गंगा जागरण : अब तो चेतो कब चेतोगे
मेरठ, (देवेश त्यागी)। प्रकृति पर आर्थिक संपन्नता, विरोधी अवधारणा, नीतियों व प्रबंधन की विपन्नता, संचय की समृद्ध परंपरा का त्याग और सामाजिक कायरें के सरकारीकरण ने उत्तर प्रदेश में पानी का विकराल संकट पैदा कर दिया है। जल के स्तर को स्थिर बनाने वाली नदियों की अविराम धाराओं की पूरी संरचना अस्त-व्यस्त कर देने से हालात और
मेरठ, (देवेश त्यागी)। प्रकृति पर आर्थिक संपन्नता, विरोधी अवधारणा, नीतियों व प्रबंधन की विपन्नता, संचय की समृद्ध परंपरा का त्याग और सामाजिक कायरें के सरकारीकरण ने उत्तर प्रदेश में पानी का विकराल संकट पैदा कर दिया है। जल के स्तर को स्थिर बनाने वाली नदियों की अविराम धाराओं की पूरी संरचना अस्त-व्यस्त कर देने से हालात और ज्यादा भयावह होते जा रहे हैं। गंगा-यमुना जैसी बड़ी नदियों के जल स्रोत सिकुड़ने और बुरी तरह प्रदूषित होने से विनाश के संकेत मिलने लगे हैं। प्रदूषण से कराह रहीं राष्ट्रीय नदी गंगा समेत किसी का भी जल आचमन के लायक नहीं रह गया है।
हवा और पानी को प्रकृति प्रदत्त उपहार मानने की एशियाई मान्यता की बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। लगातार घटते या खत्म होते जलसा्रेत और दुबली होती जा रही नदियां इसी का नतीजा हैं। जल संरक्षण, पर्यावरण और पारिस्थितकीय संतुलन या तो बौद्धिक विलासिता के साधन बना दिये गए हैं या धनोपार्जन के सुलभ माध्यम। कुदरत के निजाम में इंसानी दखल ने पूरे जल संतुलन को झकझोर दिया है। जल ही जीवन है इस सूत्र वाक्य की सार्थकता को जनता ने भी अपनी दायित्वहीनता के बांध तले दबा दिया है। नदी संरक्षण और जल संकट के समाधान में मूल बाधक तत्वों में निष्क्रियता तो है ही दृढ़ता और दायित्व बोध की भी बड़ी कमी है।
बेतुकी और घातक योजनाओं की वजह से अधिकतर शहरों ने पानी के मूल स्रोत अपनी नदियों को नालों में तब्दील कर दिया है। जल और सीवर प्रबंधन में शोध और समझ का नितांत अभाव है। गंगा को ही लें तो 1965 से 1980 तक जो जीवाणु ई कोलाई देवप्रयाग के दो-चार बूंद जल को पांच मिली प्रदूषित जल में डालने से मर जाते थे वही हरिद्वार, गढ़ मुक्तेश्वर और फर्रूखाबाद के गंगा जल को मिलाने से अब बहुत देर में मरने लगे हैं। गंगा कार्य योजना के प्रथम चरण की शुरुआत के समय 1985 में हुए इन्हीं शहरों के परीक्षण के बाद यह स्थिति अब शून्य होने के कगार पर है। तब से गंगा तीन गुना और यमुना सात गुना मैली हो चुकी है।
अपने उदगम स्थल से बनारस तक गंगा में 16500 नदियां व नाले गिरते हैं। अपने 2500 किमी से अधिक के प्रवाह मार्ग में गंगा शहर-देहात की करोड़ों की आबादी से गुजरती है और बड़ी संख्या में उद्योगों समेत इनका कूड़ा-कचरा इसी में गिरकर जहर घोल रहा है।
असमय मौत की तरफ बढ़ रही हिंडन भरी जवानी में नाले में तब्दील हो चुकी है और पानी जानलेवा। यमुना में भी बरसात को छोड़ कर ताजेवाला बांध से लेकर बागपत के काफी आगे तक साल के आठ महीने धूल उड़ती है। बागपत में कृष्णा नदी की नब्ज थम चुकी है तो कभी स्वच्छ जल देने वाली सहारनपुर की पांवधोई, सिसक रही हैं। बिजनौर की जिस मालन के तट पर कभी दुष्यंत और शंकुतला का मिलन हुआ था वह कब की मर चुकी है। बरसात में इसके घाव जरूर रिसते हैं। यही हाल मुरादाबाद मंडल की यगद और बगद जैसी नदियों का भी है जो नाले की शक्ल में गंगा में गंदगी उड़ेल रही हैं। रामगंगा की सेहत भी लगातार गिर रही है और यही हाल रहा तो इसका भविष्य भी संकट में है।
गंगा-यमुना तो जैसे तैसे रिस रही हैं लेकिन पश्चिमी यूपी से लेकर कन्नौज तक का सैकड़ों किमी का सफर तय करने वाली काली नदी मृत हो चुकी है तो यमुना की दो बड़ी सहायक नदियों में हिंडन मरणासन्न है तो कृष्णा लगभग खत्म। प्रदेश की अन्य नदियों का हाल भी इससे जुदा नहीं है।
पारंपरिक संसाधनों पर इतना भारी दबाव पड़ा है कि अतिदोहन व कुदोहन से पूरे उत्तर प्रदेश के पारंपरिक और प्राकृतिक जल स्रोत अपनी जलापूर्ति क्षमता या तो खो चुके हैं या लगातार खोते जा रहे हैं। कुंए, तालाब, बवड़ी, झीलें और कुंड जिनमें बारिश के पानी का भंडारण होता था, आज लुप्त प्राय: हैं। सभ्य समाज को इस बात की चिंता ही नहीं है कि उसके लोग संसाधनों के दोहन की हदें कब की पार कर चुकें हैं और हजारों साल पुरानी सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों में लक्ष्यगत, नीतिगत और क्रियान्वयनगत तालमेल का सारा तानाबाना तोड़ दिया है।
बहुत ज्यादा नहीं तो तीन दशक पहले के अतीत में ही झांके तो तमाम छोटी बड़ी नदियां उभय तटबंधों से प्रवाह मार्ग में हजारों छोटे बडे तालाबों और बरसाती नालों से जुड़ी हुई थीं। यह जल संतुलन की प्राकृतिक व्यवस्था थी। इसी वजह से नदी का जल स्तर कम होने के बाद भी बारिश का संचित जल नदियों से जुड़े तालाबों, झीलों में एकत्र होता था और भू गर्भीय जल स्रोत हमेशा रिचार्ज होते रहने से नदियां भी बहुत कम सूखती थीं। पर तीन चौथाई से ज्यादा तालाब, दो तिहाई नाले और बरसाती नदियां और लगभग पूरी तरह से कुंए खत्म हुए तब से बारिश का 90 प्रतिशत पानी यूं ही बह रहा है और हर साल गर्मियों में हर छोटी-बड़ी नदी सिसकने लगती हैं।
लगातार कमजोर मानूसन, भू गर्भ जल भंडारों का बेहिसाब दोहन और जल पुनर्भरण के लगभग सभी स्रोतों को बर्बाद कर देने से भी भयावह तस्वीर उभर रही है। खाली होती धरती की गगरी से समूचा नदी तंत्र बिगड़ गया है।