Move to Jagran APP

EXCLUSIVE: बदल देंगे बिहार की सूरत: अमित शाह

गुजरात में लगातार जीत के बाद लोकसभा और चार अन्य राज्यों में खुद को शाह साबित कर चुके भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अब पाटलिपुत्र को फतह करने के लिए पटना में डटे हैं। माइक्रो मैनेजमेंट और धुवांधार चुनावी रैलियां।

By Sanjeev TiwariEdited By: Published: Mon, 12 Oct 2015 12:43 AM (IST)Updated: Mon, 12 Oct 2015 09:07 AM (IST)
EXCLUSIVE: बदल देंगे बिहार की सूरत: अमित शाह

प्रशांत मिश्र / आशुतोष झा। गुजरात में लगातार जीत के बाद लोकसभा और चार अन्य राज्यों में खुद को शाह साबित कर चुके भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अब पाटलिपुत्र को फतह करने के लिए पटना में डटे हैं। माइक्रो मैनेजमेंट और धुवांधार चुनावी रैलियां। बिहार में नई सरकार किसकी बनेगी इसके लिए मतदान शुरू हो चुका है। हर दल में बेचैनी है, लेकिन शाह आश्वस्त हैं। जब चुनावी सर्वे कांटे की लड़ाई दिखा रहे हैं तो शाह के विश्वास का कारण..? कारण दो प्रमुख हैं- एक तो उनका रिकार्ड और दूसरा मोदी और शाह का विकास का एजेंडा। उनका मानना है कि बिहार की सत्ता से भाजपा के अलग होने के बाद जिस तरह प्रशासन डगमगाया, कानून व्यवस्था ध्वस्त हुई, विकास चरमराया, उसके बाद जनता भाजपा के हाथ ही अपने भविष्य का कमान देना चाहती है। दैनिक जागरण से हुई लंबी बातचीत में शाह ने बीफ बयान, लालू-नीतीश के गठबंधन, सवा लाख करोड़ के पैकेज, अपने एजेंडा समेत कई मुद्दों पर चर्चा की। इसके कुछ अंशः

आपके शानदार चुनावी रिकार्ड में दिल्ली ने ब्रेक लगा दिया था। भाजपा बुरी तरह परास्त हो गई थी। उसके बाद बिहार में आप और भाजपा जीत को लेकर कितना आश्वस्त हैं?

loksabha election banner

(आक्रामकता के साथ) मुझे लगता है कि आपका एनालिसिस थोड़ा बायस्ड(पूर्वाग्रहग्रस्त) है। चार राज्य और दिल्ली, दोनों में ढ़ाई महीने का अंतर था। चार महीने में पांच राज्यों के चुनाव हुए थे जिसमें से चार राज्य मे भाजपा की सरकार बनी। महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड ऐसे राज्य थे जहां भारतीय जनता पार्टी सरकार में कभी भी बहुमत के साथ नहीँ आई थी। तीनों राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्री बने और जम्मू कश्मीर में भी पहली बार भाजपा का उपमुख्यमंत्री बना। तो पहले तो आप अपना नजरिया बदलिए कि दिल्ली के बाद बिहार का चुनाव आ रहा है। बिहार में पांच राज्यों के बाद चुनाव आया है। हमारी सफलता का प्रतिशत निकालेंगे तो यह अस्सी फीसद है। सफलता के रिकार्ड के साथ हम बिहार में आए हैं। रही बात बिहार के प्रति आश्वस्त होने की तो हम दो तिहाई बहुमत के साथ यहां भी सरकार बनाएंगे।

यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि अधिकतर चुनावी सर्वे का मानना है कि लड़ाई बहुत नजदीकी है। आप अपने सर्वे से उत्साहित हैं तो वह सर्वे क्या कहता है?
(ठठा कर हंसते हैं) मैं आपसे पूछता हूं कि लोकसभा चुनाव के वक्त कितने सर्वे ने भाजपा के लिए बहुमत की सरकार का आकलन किया था? कितने सर्वे ने 2002, 2007 और फिर 2012 में भाजपा की सरकार बनाई थी? उन सबके विपरीत हम गुजरात में भी लगातार जीते और लोकसभा में तीस साल बाद पहली बार एक पार्टी को बहुमत मिला। देखिए, सर्वे एक विज्ञान हैं और हम उसकी अवज्ञा करना नहीं चाहते हैं। मगर इस पर कई तरह के रंग चढ़ते हैं। टीवी पर रिपोर्ट आने से पहले वह कई तरह की प्रक्रियाओं से गुजरता है। हमारा विश्वास तो जनता पर है और वह मतदान के दिन ही आता है। मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि हर गांव में हमारा कार्यकर्ता पहुंचा है, हर घर तक हमारा संदेश पहुंचा है और हर स्थान पर हमारा दूत मौजूद है। वहां से हम तक जो रिपोर्ट पहुंच रही है उसके आधार पर बिहार के हर कोने में भाजपा की लहर है। मतदान आते आते वह सुनामी में तब्दील हो जाएगा।


पिछले कई महीनों से आप बिहार में माइक्रो मैनेजमेंट कर रहे हैं, पूरी केंद्रीय टीम पटना में जमी हुई है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तूफानी चुनाव प्रचार कर रहे हैं। क्या यह संकेत नहीं कि बिहार में लड़ाई कठिन है?
हम राष्ट्रीय पार्टी है। हमारे पास टीम है। आप बताइए कि लालू जी पूरे भारत से किसको बुलाएंगे। नीतीश जी किसे बुलाएंगे? इस तरह की तुलना ठीक नहीं है। फिर भी सोनिया जी और राहुल जी भी प्रचार में आते हैं। लेकिन इससे भी आगे की बात बताता हूं.. चुनाव आप लोगों के लिए केवल हार जीत से जुड़ा होता होगा। भाजपा के लिए इसका अर्थ और बड़ा होता है। चुनाव तो एक मौका होता है। भाजपा इसके जरिए अपने सिद्धांतों और विचारों के प्रचार करने का और अपने समर्थक वर्ग के विस्तार करती है। यही कारण है कि हम बिहार चुनाव में जीत को लेकर आश्वस्त हैं, फिर भी हर कार्यकर्ता और जनता से संपर्क साध रहे हैं। हम अपने एजेंडा और सिद्धांत को लेकर जा रहे हैं और उसके लिए जो समर्थन दिख रहा है उसी से हमारा विश्वास भी और मजबूत हो रहा है।


कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव के बाद आरएसएस ने बिहार में अपने संगठन का विस्तार किया है। आप क्या कहेंगे?
1925 से आरएसएस अपने संगठन का विस्तार करने का प्रयास कर ही रहा है। यह तो निरंतर चलती प्रक्रिया है। उसको चुनाव के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आपने भी विकास को अपने चुनाव प्रचार की केंद्रीय धुरी बनाई थी। लेकिन पिछले कुछ दिनों में मुद्दा कुछ भटक रहा है। अब शब्द- अपशब्द, बीफ बयान आदि केंद्र में आ रहे हैं।
देखिए, आज भी भाजपा का और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का मुद्दा विकास ही है। लेकिन राजनीति में सामने वाले की ओर से मुद्दा भटकाने का प्रयास होता है तो मीडिया को संयम बरतना चाहिए। जैसे बीफ का मामला है- हमने तो कुछ नहीं कहा था, हम तो बिहारवासियों को यही बता रहे थे कि विकास कैसे होगा। लेकिन कोई गौमांस की बात करेगा तो हम स्वाभाविक तौर पर राजनीतिक रूप से प्रतिक्रया देंगे। महत्व इसका है कि ऐसे बयानों की शुरूआत कौन करता है। शुरूआत लालू जी ने की और आज भी उनके पाले में कुछ नेता गौमांस को लेकर बयान दे रहे हैं। क्यों दे रहे हैं यह आप उनसे पूछिए तो सही कि भाई ऐसी बातें क्यों करते हो जो करोड़ों लोगों की संवेदना से जुड़ी है।


लेकिन अब तो यह मामला गरमा गया है और इसकी जड़ दादरी में हैं। आप क्या कहेंगे?
आप मुझे बताइए कि लालू जी का दादरी से क्या मतलब। न तो वहां उनकी पार्टी की कोई इकाई है और न ही वह वहां चुनाव लड़ते हैं। सच्चाई यह है कि तुष्टीकरण के लिए उन्होंने ऐसी बात की है और अब फंस गए हैं।
लेकिन यह भी तो सच्चाई है कि अब भाजपा की पूरी टीम बीफ मामले को लेकर आक्रामकता से जुट गई है।
(रोकते हुए) नहीं, यह कहना सही नहीं होगा। हम तो केवल लालू जी से सवाल पूछ रहे हैं। हम यह जानना चाहते हैं कि नीतीश जी और सोनिया जी लालू जी के बयान पर क्या सोचते हैं। वह बताएं। यह पूछना तो हमारा अधिकार है। बल्कि बिहार की हर जनता का अधिकार है। उन्हें यह जानने का हक है कि वोट मांग रहे सभी दलों का रुख क्या है। हमने अपना रुख बता दिया है कि गौ को लेकर हमारी मान्यता क्या है। दूसरे बताएं।


बात फिर से घूमकर वहीं पहुंच गई है। इस पूरे प्रकरण में विकास का मुद्दा पीछे रह गया है।
ऐसा होता है, लेकिन उसका दोषी कौन है? इस पर गौर कीजिए, आप गौर कीजिए, जनता को देख रही है, समझ चुकी है। कौन बोला, हम तो नहीं बोले, कभी नहीं बोले। यह मुद्दा था ही नहीं। किसने बनाया- लालू जी ने। अब नीतीश जी के शब्दों मे कहें तो एक बार बांध तोड़ दोगे तो पानी कहां तक पहुंचेगा यह तो उस वक्त समझ नहीं आएगा। बांध तोड़ने से पहले ही विचार करना पड़ेगा।

इस पूरे प्रकरण में सवा लाख करोड़ के पैकेज का मुद्दा भी तो कहीं गुम हो गया है?
बिल्कुल नहीं... बिहार में तो इसी की चर्चा है और साथ में इसपर भी बहस है कि मुख्यमंत्री राज्य के विकास के लिए पैकेज को राजनीतिक रंग दे रहा है। कहा जा रहा है – हमें नहीं चाहिए, बिहार अपने पैरों पर खड़ा होगा। मैं कहना चाहता हूं कि नीतीश जी मुगालते में न रहें। यह पैसा आपके लिए नहीं हैं। यह पैसा बिहार की करोड़ों जनता के लिए हैं। बिहार के किसान, मजदूर के लिए हैं। बिहार की महिलाओं की सुरक्षा के सहयता है। युवा आगे बढ़ पाएं उसके लिए हैं। बिजली पहुंचाने के लिए, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए पैसा है। और हां, केंद्र सरकार बिहार के विकास के पैसा देती है तो कोई उपकार भी नहीं है। बिहार हिंदुस्तान का हिस्सा है। बिहार का देश के खजाने पर अधिकार है। लोकसभा चुनाव के वक्त ही प्रधानमंत्री जी ने कहा था कि पश्चिमी हिस्से का विकास हो चुका है। पूर्वी हिस्सा पीछे छूट गया है। उसके लिए विशेष सहायता की जरूरत है। अब जब केंद्र सरकार अपने वादे के अनुसार मदद के लिए आगे बढ़ रही है तो मुख्यमंत्री धन्यवाद कहने की बजाय अहंकार की पराकाष्ठा दिखा रहे हैं।

पर ज्यादा चर्चा में तो बयान हैं। अपशब्दों का इस्तेमाल हो रहा है।
यही तो दुर्भाग्य है। बिहार में असीम क्षमता है। आंकड़े निकालकर देख लें तो आइएएस, आईपीएस पूरे देश में सबसे ज्यादा बिहार के हैं। लेकिन कुछ नेता कैसे कैसे बयान दे रहे हैं। कुछ कहते हैं कौवे की बात कर रहे हैं. कुछ कहते हैं धुआं छोड़कर चूहा भगाउंगा। मुझे अचरज होता है ऐसी बातें करने वाले नेता इस तरह की बातों से पानी कैसे आएगा, बिजली घर घर तक कैसे पहुंचेगी, सडकों का निर्माण कैसे होगा। इन नेताओं का क्या एजेंडा है मेरी समझ में नहीं आ रहा है और जनता बखूबी समझती है कि उन्हें बेढंगे बयान देकर मुद्दे से भटकाने की कोशिश हो रही है।

क्या बिहार चुनाव मोदी और नीतीश की नाक की लड़ाई बन गई है?
देखिए, मोदी जी तो प्रधानमंत्री हैं। जनता ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाया है। बिहार में मोदी जी मुख्यमंत्री बनने की न तो चाह रहते हैं और न ही ऐसा होता है। फिर दोनों के बीच स्पर्द्धा कैसी। यह तो हो ही नहीं सकता है। एक राज्य के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के बीच कैसी स्पर्द्धा। नीतीश जी की ओर से इस तरह का अभियान चलाने का प्रयास दिख रहा है। लेकिन जनता सबकुछ समझती है।

नीतीश जी का तो कहना है कि जब नरेंद्र मोदी बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बन सकते हैं उनके लिए या उनके नाम पर वोट देने का क्या अर्थ है?
अब इतिहास बताना पड़ेगा। एक जननेता और सामान्य नेता का फर्क क्या नीतीश जी नहीं समझते हैं। भारत में ऐसे प्रधानमंत्री रहे हैं जो चुनाव में हिस्सा लेने से बचते रहे। लेकिन जननेता तो जनता के सामने जाएगा। एक ऐसा जननेता जो जनता की बात समझता है, उनकी बात करता है, उनके अनुकूल नीतियां बनाता है और उनका दुख दर्द कम करता है। जनसंपर्क को किसी भी नेता के लिए नीचा नहीं माना जाना चाहिए। अटल जी जाते थे, इंदिरा जी जाती थीं..जितने लोकप्रिय प्रधानमंत्री हुए वे चुनाव प्रचार में हिस्सा लेते थे। मगर इंदर कुमार गुजराल, नरसिंहा राव, मनमोहन सिंह की बात अलग थी। वह जनता से दूर रहने वाले नेता थे। कोई प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के लिए प्रचार कर रहा है तो इसमें बुराई क्या है? सच्चाई यह है कि सामने वाले लोग हताश हैं। उन्हें डर लग रहा है और यह डर स्वाभाविक है क्योंकि हम बड़ी जीत की ओर अग्रसर हो चुके हैं। मोदी जी हमारी पार्टी के सर्वोच्च नेता है और उन्हें अपनी पार्टी की बात मुखर होकर रखनी ही चाहिए।

आपके विरोधी दलों का यह भी कहना है कि जब भाजपा में नेता ही तय नहीं है तो वोट किसे दें?
ऐसे कई चुनाव हुए जिसमें नेतृत्व का कोई चेहरा तय नहीं होता है। लेकिन भाजपा प्रचंड़ बहुमत से जीती। हमने अपना एजेंडा लोगों के सामने रखा है। नीतीश जी को अपने कार्यकाल का जवाब देना होगा। दस साल में हर घर तक बिजली क्यों नहीं पहुंची, दस साल में सड़क पूरी तरह क्यों नहीं बनी, क्राइम क्यों बढ़ रहा है? पढ़ाई, दवाई और कमाई, तीनों के लिए बिहार की जनता को बाहर क्यों जाना पड़ता है? मां गंगा की कृपा होने के बावजूद आज किसान कंगाल क्यों हैं? इन सारी चीजों का हिसाब किताब तो नीतीश जी को देना है। वह अपना हिसाब देने की बजाय हमारे नेतृत्व के बारे में पूछ रहे हैं। अरे भाई, हम आश्वस्त कर रहे हैं कि चेहरा कोई भी हो, भाजपा अपने रिपोर्टकार्ड के अनुसार ही बिहार को भी हर क्षेत्र में अग्रणी बनाएगी। 2019 में केंद्र सरकार अपना रिपोर्टकार्ड देगी। अभी तो नीतीस दस साल का और लालू प्रसाद 15 साल का जवाब दें।

बिहार चुनाव में एक बात साफ दिखी- हर सीट पर राजद या जदयू के साथ लड़ाई में भाजपा का नाम लिया जा रहा है। क्या आपके सहयोगी दल बहुत मददगार साबित नहीं हो रहे हैं?
नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। हमारे सहयोगी हर जगह प्रचार में हैं। हम मंच साझा करते हैं। मैंने खुद सात रैलियां सहयोगी दलों के उम्मीदवारों के लिए की है। राम विलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा जी ने भी भाजपा के लिए प्रचार किया है। हम एकजुट हैं। मैंने पहले भी कहा है कि सभी 243 सीटों पर राजग लड़ रहा है। परेशानी तो दूसरे पाले में है। गांधी मैदान के बाद फिर महागठबंधन के साथी कभी इकट्ठे क्यों नहीं दिख पाए? क्या लोग नहीं समझते कि वह तो अंदरूनी लड़ाई से ही बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। जनता ऐसे गठबंधन को वोट कैसे देगी। राजद-जदयू का गठबंधन का हाल तो यह है कि अपने सर्वोच्च नेता मुलायम सिंह को भी नहीं बख्शा। अपमानित महसूस होने पर सपा ने महागठबंधन से पाला छुड़ा लिया। वह गठबंधन किसो को न्याय और सम्नान दे ही नहीं सकता है।

आरक्षण को लेकर नीतीश जी का बयान आया है। उन्होंने प्राइवेट सेक्टर मे आरक्षण की बात की है।
पहले तो नीतीश जी यह बताएं कि क्या दस साल में उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि बिहार मे प्राइवेट सेक्टर आए। पहले वह निवेश लाएं, प्राइवेट सेक्टर को भी मजबूत होने का मौका दें कि वह रोजगार पैदा कर सके। फिर आरक्षण की बात करें। लालू जी और नीतीश जी इस मामले में असफल साबित हो चुके हैं। भाजपा की सरकार आएगी तो उद्योग भी आएगा, रोजगार भी मिलेगा, कृषि भी बढ़ेगा और क़ृषि आधारित उद्योग भी। शहर में भी रोजगार मिलेगा और गांव मे भी कमाई के साधन होंगे।

बिहार को जातिगत राजनीति से जोड़ा जाता रहा है। ऐसे में लालू प्रसाद के “माई फैक्टर” का आपके पास क्या तोड़ है?
केवल इतना कहूंगा कि इसी “माई फैक्टर” के साथ लालू चार चुनाव हार चुके हैं। क्या इससे आगे कुछ कहने की जरूरत है।

महंगाई..। दाल के दाम दो सौ रुपये को छू रहे हैं?
(बेबाकी से) सच बात है। दो सौ रुपये टच कर गए हैं। लेकिन संप्रग काल से बहुत कम है। महंगाई संप्रग काल से 42 फीसद कम है। देखिेए, किसी खास वस्तु की कीमत को महंगाई का पैमाना मत बनाइए। उसके कई कारण होते हैं। लेकिन क्या कोई इससे इनकार करेगा कि हमने महंगाई पर नियंत्रण किया है। और दाल की कीमतों पर भी अकुश लगाने का प्रयास कर रहे हैं। सबकुछ ठीक हो जाएगा। फिर भी किसी को महंगाई पर चर्चा करनी है तो लालू जी जब रेल मंत्री थे उस वक्त की महंगाई की भी चर्चा होगी और सोनिया-मनमोहन काल के महंगाई की भी। जो यह सवाल उठा रहे हैं उन्हें सोनिया और मनमोहन से भी तो सवाल पूछने चाहिए।

बिहार के बाद अब असम में चुनाव होने हैं। वहां आपका मुकाबला कांग्रेस से है। क्या आप मानते हैं कि बिहार चुनाव का असर असम और राष्ट्रीय राजनीति पर भी होगा?
यह स्वाभाविक है। हर चुनाव का असर पड़ता है। लेकिन यह प्रभाव कितनी मात्रा में पड़ता है वह उस राज्य की स्थिति पर निर्भर करता है। राजनीति पर भी पड़ता है लेकिन जनता कितना महत्वपूर्ण मानती है यह तो चुनाव के बाद ही समझ में आएगा। हम महाराष्ट्र में जीते, हरियाणा मे जीते, झारखंड में जीते, बेंगलोर के निकाय चुनाव मे जीते , इसका असर भी बिहार चुनाव पर पड़ेगा।

तो इसका अर्थ यह है कि बिहार चुनाव का असर संसदीय सत्र पर भी दिखेगा। पिछला सत्र धुल गया था।
मैं संसदीय सत्र के बारे में कुछ नहीं कह सकता हूं क्योकि अगर कोई गांठ बाधकर बैठा है कि परफार्म नहीं करने देना है तो उसका कोई रास्ता नहीं है। मैं तो आज भी कांग्रेस और विपक्ष के मित्रों से अपील करता हूं कि विकास के मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष के उपर उठना चाहिए।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.