आरक्षण नीति पर समग्र रूप से हो विचार, जाति आधारित सुविधाओं का समापन; एक्सपर्ट व्यू
अब समय आ गया है जब सभी राजनीतिक पार्टियां जातीय भावनाओं की सियासत से बाज आएं। वरना आरक्षण के कारण होने वाले आंदोलनों से होने वाली परेशानी के लिए लोग उन्हें ही दोषी मानेंगे और ऐसा वाजिब भी होगा।
रोहित प्रियदर्शी। हाल के वर्षों में गुजरात के पाटीदार, राजस्थान के गुर्जर, हरियाणा के जाट और महाराष्ट्र के मराठा समुदाय जैसे प्रभावशाली समुदाय द्वारा आरक्षण की मांग हेतु आंदोलन करने की घटनाएं सामने आई हैं। प्रभावशाली समुदायों द्वारा भी उच्च शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण की मांग के पीछे बड़ा कारण यह है कि ये जातियां खेती से कम आय से त्रस्त हैं और अपने बच्चों के भविष्य को अच्छी नौकरियों या आय के अन्य स्रोतों से सुरक्षित करना चाहती हैं।
राजनीतिक दल भी अपने हित साधने के लिए विभिन्न राज्यों में किसान समुदाय के लोगों को आरक्षण देने का लालच देते रहे हैं। सारे राजनीतिक दलों को पता है कि ओबीसी और एससी-एसटी आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता और संविधान में जिन समुदायों को आरक्षण मिला हुआ है, उसे कम करके दूसरे समुदायों के लोगों को उसमें हिस्सा नहीं दिया जा सकता है। फिर भी जब राजनीतिक दलों को अपना जनाधार बढ़ाना होता है, चुनावों के समय आरक्षण का मुद्दा छेड़ देते हैं।
सभी राजनीतिक दल समझते हैं कि पढ़ाई और नौकरियों में आरक्षण के पीछे संवैधानिक मंशा क्या है, मगर वे अपने राजनीतिक लाभ को ध्यान में रख कर अलग-अलग जातियों को इसके लिए आंदोलन को उकसाते रहे हैं। हरियाणा में जाट आरक्षण, गुजरात में पाटीदार, राजस्थान में गुर्जर तथा महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को लेकर हुए आंदोलन तो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुए थे। इन मांगों के पीछे समुदायों का अपना तर्क हो सकता है। कुछ राज्य सरकारों की इस दलील में भी सचाई हो सकती है कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष के बाद भी कई ऐसे समुदाय हैं जो पिछड़े हैं। परंतु प्रश्न यह है कि क्या ऐसे तमाम पिछड़ेपन को दूर करने का एकमात्र जरिया आरक्षण ही है? इसका उत्तर हां में नहीं हो सकता।
आरक्षण में व्याप्त विसंगतियों का ही परिणाम है कि जहां ओबीसी श्रेणी के कुछ समुदाय अनुसूचित जाति का दर्जा चाह रहे हैं, वहीं कुछ अनुसूचित जातियां जनजाति के रूप में अपनी गिनती कराना चाहती हैं। कुछ ऐसे समाज भी आरक्षण की मांग कर रहे हैं, जो इसके लिए पात्र नहीं हैं। विडंबना यह है कि वे आरक्षण की अपनी मांग मनवाने के लिए हिंसक तरीके भी अपना रहे हैं। यह तय है कि यदि किसी एक समुदाय को आरक्षण मिला तो कुछ अन्य समुदाय भी इसकी मांग लेकर आगे आ जाएंगे। कई राज्यों में कई जातियां आरक्षण की मांग करती रही हैं और राज्य सरकारें व अलग-अलग दल भी इसका समर्थन करते रहे हैं।
यही कारण है कि कभी गुजरात तो कभी कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना आरक्षण की अधिकतम सीमा को पार करना चाहते हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय 50 प्रतिशत तक आरक्षण की सीमा इसमें आड़े आ जाती है, क्योंकि ओबीसी, एससी और एसटी का आरक्षण लगभग 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। दूसरी ओर कड़वा सच यह भी है कि बिना सोचे समझे हर मामले में आरक्षण लागू करने से इसकी सीमित उपयोगिता भी नष्ट हो जाने का खतरा है। ऐसे में समय की आवश्यकता है कि न केवल ओबीसी आरक्षण के तहत आने वाली जातियों का उप-वर्गीकरण हो, बल्कि उन जातियों को आरक्षण के दायरे से अलग भी किया जाए, जो अब आरक्षण की पात्र नहीं रह गई हैं।
अब समय आ गया है, जब सभी राजनीतिक पार्टियां जातीय भावनाओं की सियासत से बाज आएं। वरना आरक्षण के कारण होने वाले आंदोलनों से होने वाली परेशानी के लिए लोग उन्हें ही दोषी मानेंगे और ऐसा वाजिब भी होगा। समय की मांग है कि एक समाज और राष्ट्र के रूप में हमें आरक्षण की बढ़ती मांग का कोई ऐसा समाधान निकालना होगा, जिसमें सभी समुदायों की आकांक्षाओं के लिए पर्याप्त अवसर सुनिश्चित हों।
[लोक नीति विश्लेषक]