जातिगत रोष का अर्थशास्त्र भाजपा के लिए गुजरात चुनाव बड़ी चुनौती
जातिगत रोष के इस समाजशास्त्र में छिपा अर्थशास्त्र गुजरात के मौजूदा चुनाव में भाजपा के लिए सबसे बडी चुनौती बन गया है।
संजय मिश्र, अहमदाबाद/मेहसाणा। गुजरात के मौजूदा चुनाव में साफ तौर पर उभरती दिख रही जातिगत गोलबंदी भले ही जातीय बादशाहत की लडाई मानी जा रही है मगर इसकी बुनियाद आर्थिक प्रगति की होड में पिछडने की सामाजिक बेचैनी ज्यादा है। सूबे का सबसे प्रभावशाली पाटीदार समाज और ओबीसी दोनों समुदाय में गहराती इस बेचैनी को इनका युवा वर्ग सियासी रोष का रुप दे रहा है। जातिगत रोष के इस समाजशास्त्र में छिपा अर्थशास्त्र साफ तौर पर गुजरात के मौजूदा चुनाव में भाजपा के लिए सबसे बडी चुनौती बन गया है।गुजरात चुनाव के पहले चरण के प्रचार का दौर गुरुवार को थम गया मगर अहमदाबाद से लेकर मेहसाणा और वडनगर से लेकर वडगाम तक सभी जगहों पर पाटीदारों और ओबीसी के रोष की तपिश को ठंडा करने की भाजपा की सियासी कोशिशें बहुत कारगर होती नहीं दिख रहीं। इन समुदायों के युवा ही नहीं बुर्जुगों में बीते सालों में यह धारणा बनी है कि गुजरात के आर्थिक प्रगति के दौर में उनके समाज को वह हिस्सा नहीं मिला है जिसके वे न्यूनतम हकदार हैं। पाटीदारो की आम शिकायत यही है कि सूबे में जातीय प्रभाव की वजह से राजनीतिक व्यवस्था और सत्ता की दशा-दिशा तय करने में उनके अहम भूमिका के बाद उनकी नई पीढी आर्थिक प्रगति की दौड में पीछे रह गई है। पाटीदारों की आरक्षण की मांग और लडाई की बुनियादी वजह यही है।
जैसाकि मेहसाणा में पाटीदारों के हिंसक आंदोलन में जेल गए यहां के एक युवा अमित पटेल कहते हैं किे आरक्षण की मांग का मतबल नहीं कि हम दूसरे समाज का हक छीनना चाहते हैं बल्कि ऐसी व्यवस्था चाहते हैं जिसमें हमारी तरक्की के लिए भी जगह हो मगर आज हालात ऐसे नहीं हैं। इंजीनियरिंग डिप्लोमा के बाद दो साल तक गांधीनगर में नौकरी करने के बाद बेकार हुए मेहसाणा के नील पटेल कहते हैं कि हालत यह है कि उन्हें अपना खर्च चलाने के लिए पिछले पांच साल से बीमा एजेंट से लेकर छोटे-मोटे काम करने पडते हैं। समस्या इसलिए भी ज्यादा बडी है कि मां-बाप इंजीनियरिंग, एमबीए से लेकर कई प्रोफेशनल कोर्स कराने के लिए लाखों रुपये फीस भरते हैं और 5 से 7 हजार रुपये की नौकरी मिलती है।उनकी बात का समर्थन करते हुए एक युवा केवल शाह कहते हैं कि आलम यह है कि मनरेगा की मासिक आमदनी के बराबर भी तीन चार साल काम करने के बाद भी तनख्वाह नहीं होती और सब लोग तो इंटेलीजेंट नहीं हो सकते। मेहसाणा के खाडी के रहने वाले ओबीसी युवा मनु भाई देसाई और चंदा भाई पटेल दोनों कहते हैं कि उनके समाज के आंदोलन को जातीय वर्चस्व की जंग बताना गलत है क्योंकि यह जातीय नहीं बल्कि आर्थिक और समाजिक प्रगति में उनकी हिस्सेदारी की लडाई है। इन सभी का कहना है कि सूबे की भाजपा सरकार ने उनके साथ इंसाफ नहीं किया है और चुनाव में उनके समाज के लिए यह मसला तो है ही।
गुजरात के आर्थिक-सामाजिक ढांचे पर बारीक निगाह रखने वाले अहमदाबाद के एचके आर्टस कालेज के प्रोफेसर हेमंत शाह भी कहते हैं कि इन समुदायों के आंदोलन को केवल जातीय बताना राजनीतिक भूल होगी। उनके मुताबिक गुजरात का यह चुनाव बाहर से भले जातीय दिख रहा हो मगर इसके मूल में विकास और आर्थिक प्रगति में पिछडने की बेचैनी है। उनका यह भी कहना है कि केवल गगनचूंबी इमारतें, रिवर फ्रंट या बुनियादी ढांचे का निर्माण ही विकास का पैमाना नहीं हो सकता। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के तीनों अहम पैमानों के सरकारी आंकडे यह बताते हैं कि आर्थिक विकास के ढांचे में संतुलन सही नहीं बना है।
शाह के मुताबिक किसानों की लंबे समय से जारी समस्याएं भी इस सामाजिक उथल पुथल में बडा योगदान कर रही हैं। किसानों के संगठन गुजरात खेदत समाज के महासचिव सागर रबाडी भी शाह की बात का समर्थन करते हुए कहते हैं कि चुनाव में जमीनी स्तर पर इन मसलों को लेकर लोगों में नाखुशी है। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि भाजपा का कैडर वोट तो बरकार है मगर आम मतदाताओं को चुनाव के इस मोड पर रिझाना पार्टी के लिए बडी चुनौती है।