यूपी विधानसभा चुनाव 2017: अंतर्कलह की आग पर हर दल की 'हांडी'
कांग्रेस की पॉलिटिकल पार्टनर सपा में असंतोष के बीज पारिवारिक कलह से ही पड़ गए। चाचा-भतीजा गुट में बंटी पार्टी में कई प्रत्याशियों की घोषणा होने के बाद टिकट कट गए और नए घोषित हो गए, जिनके टिकट कटे, उनमें और उनके साथ जुड़े लोगों में भरपूर असंतोष है।
जागरण संवाददाता, कानपुर। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर सत्ता का स्वाद चखने को सभी राजनीतिक दलों ने ‘हांडी’ चढ़ा दी है। जरूरी तो है जोश, जुनून और जज्बे की आग की, लेकिन टिकट वितरण की दलों की अपनी-अपनी नीतियों ने अंतर्कलह की चिंगारी को सुलगाना शुरू कर दिया है। इस मामले में भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस पार्टी व समाजवादी पार्टी की स्थिति एक जैसी ही है। हाईकमान के दबाव में मुखर विरोध भले न हो लेकिन असंतोष पनपा हुआ है।
उत्तर प्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनाव सभी दलों के लिए बहुत ज्यादा अहम है। लोकसभा चुनाव में भारी-भरकम जीत के बाद दिल्ली और बिहार चुनाव हार चुकी भाजपा के हाथ से अगर उत्तर प्रदेश भी फिसला तो ये बड़ा नुकसान होगा। ये हार न सिर्फ उत्तर प्रदेश में भाजपा का वनवास बढ़ाएगी, बल्कि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भी जीत की राह कमजोर कर सकती है।
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यही मजबूरी कांग्रेस की है। 27 साल से प्रदेश में वापसी की बाट जोह रही कांग्रेस इस सिलसिले को इस वजह से भी तोड़ना चाहती है, क्योंकि सबसे बड़े प्रदेश में जीत हासिल करने के बाद वह मान रही है कि अगले लोकसभा चुनाव में वह हाथ से फिसली देश की सत्ता फिर पा सकती है। वहीं, सपा के सामने अजीब स्थितियां हैं। पारिवारिक कलह में पिता-चाचा को पछाड़कर अखिलेश यादव पार्टी के सिरमौर बन गए हैं। वह अपनी विकासवादी छवि की दुहाई देकर फिर उत्तर प्रदेश में जीत का दंभ भर रहे हैं। अगर वह विफल हुए तो उनकी साख का बट्टा लगेगा और बिना सत्ता सपा के बिखरते जाने की आशंकाएं बलवती होती जाएंगी।
ऐसा ही अस्तित्व का संकट लोकसभा चुनाव में शून्य पर ढेर हुई बसपा के लिए है। इसी वजह से बसपा को छोड़कर सभी दलों ने अपनी उन नीतियों को किनारे कर दिया है, जिसका राग अब तक अलापते आ रहे थे।
‘27 साल यूपी बेहाल’ के नारे के साथ पांच साल हमलावर रही कांग्रेस ने सपा से ही हाथ मिला लिया। अब तक की संभावनाओं के मुताबिक, गठबंधन में आवंटित 105 सीट में से कानपुर नगर की दस में से अधिकतम तीन सीट कांग्रेस को मिल सकती हैं। अब इन सात सीटों पर पांच साल से पसीना और पैसा बहा रहे दावेदारों और उनके साथ लगे कार्यकर्ताओं की नाराजगी स्वाभाविक है। कानाफूसी चल रही है।
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कांग्रेस की पॉलिटिकल पार्टनर सपा में असंतोष के बीज पारिवारिक कलह से ही पड़ गए। चाचा-भतीजा गुट में बंटी पार्टी में कई प्रत्याशियों की घोषणा होने के बाद टिकट कट गए और नए घोषित हो गए, जिनके टिकट कटे, उनमें और उनके साथ जुड़े लोगों में भरपूर असंतोष है। हां, जहां से कांग्रेस के कोटे के प्रत्याशी लड़ेंगे, वहां सपाइयों का दिल से सहयोग मिलना इतना आसान नहीं है।
इसी तरह भाजपा में टिकट वितरण की नीतियों ने संगठन को कमजोर करने का काम किया है। पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच नाराजगी इस बात लेकर ज्यादा है कि दूसरे दलों से आए हुए दावेदारों पर पार्टी ने ज्यादा भरोसा जताया है। कानपुर में ही ऐसे छह प्रत्याशी पार्टी ने मैदान में उतारे हैं। इतने समय तक पार्टी के लिए जी-जान से जुटे कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज कर दिया गया। सवाल यह भी उठाया जा रहा है जब आलाकमान यह कहता रहा कि पूरा सिस्टम बना है, कई सर्वे कराए गए हैं। हर पैमाने पर फिट दावेदार को ही टिकट दिया जाएगा। भला दूसरे दलों से आए हुए कार्यकर्ता कौन से सर्वे के आधार पर टिकट पा गए। इस नाराजगी का असर चुनाव परिणामों पर दिख सकता है।
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