कभी जिनसे था खतरा, वही बने खेवनहार
यूरोप की राइन नदी आज साफ है, तो उसमें वहां के उद्योगों का बड़ा योगदान है। जिस तरह वहां के उद्योग जगत ने नदी को साफ रखने को उत्साह दिखाया है, अगर वैसा हमारे यहां भी हो तो गंगा निर्मल हो जाएगी। क्या सरकार और उद्योग मिलकर गंगा को प्रदूषण
यूरोप की राइन नदी आज साफ है, तो उसमें वहां के उद्योगों का बड़ा योगदान है। जिस तरह वहां के उद्योग जगत ने नदी को साफ रखने को उत्साह दिखाया है, अगर वैसा हमारे यहां भी हो तो गंगा निर्मल हो जाएगी। क्या सरकार और उद्योग मिलकर गंगा को प्रदूषण से निजात दिलाने का हल निकालेंगे?
लुडविगशाफेन (जर्मनी), [हरिकिशन शर्मा] । जब खतरा ही खेवनहार बन जाए तो संकट टलने में देर नहीं लगती। कुछ ऐसा ही हुआ राइन नदी के साथ। यूरोप की इस नदी को जिस उद्योग से प्रदूषण का सबसे यादा खतरा था, उसी ने इसे निर्मल बनाने के लिए आगे बढ़कर भूमिका निभाई। नतीजा यह है कि आज राइन के किनारे लगे औद्योगिक संयंत्र न सिर्फ अपने अपशिष्ट जल को साफ कर रहे हैं, बल्कि वे आस-पास के कस्बों का घरेलू सीवेज भी साफ कर नदी में डाल रहे हैं। राइन को साफ रखने में मदद कर रहे ये उद्योग गंगा में हर दिन करोड़ों लीटर गंदगी बहा रही 764 प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयों के लिए एक नजीर हैं।
राइन के तटवर्ती क्षेत्र में 950 से अधिक औद्योगिक इकाइयां हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण केमिकल कंपनियां हैं। दुनिया की सबसे बड़ी केमिकल कंपनी बीएएसएफ भी राइन के तट पर है। दस वर्ग किलोमीटर में फैली बीएएसएफ में 160 उत्पादन संयंत्र हैं और यहां 35 हजार लोग काम करते हैं। रसायन उद्योग की चर्चा करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि यही उद्योग सर्वाधिक स्वछ जल इस्तेमाल करता है और उसके बाद अपशिष्ट जल नदी में छोड़ता है। जर्मनी के संघीय सांख्यिकीय कार्यालय के अनुसार रसायन उद्योग हर साल तकरीबन 3.3 अरब घन मीटर स्वछ जल का इस्तेमाल करता है। इसके बाद खनन, धातु उत्पाद और कागज उद्योग का नंबर आता है। ये तीनों उद्योग मिलकर करीब दो अरब घन मीटर पानी इस्तेमाल करते हैं।
जर्मनी के केमिकल उद्योग संघ के पदाधिकारी डॉ. थॉमस कुलिक कहते हैं कि 30 साल पहले औद्योगिक इकाइयां अपना अपशिष्ट जल राइन नदी में बहा रही थीं, लेकिन आज ऐसा नहीं है। इसे साफ रखने की हमारी भी उतनी ही जिम्मेदारी है। बीएएसएफ का अपना बहुत बड़ा वेस्टेज वाटर ट्रीटमेंट प्लांट है, जो गंदे पानी को जैविक तरीके से शुद्ध करता है। यह प्लांट जितना अपशिष्ट जल साफ करता है, उसमें 80 प्रतिशत कंपनी का और 20 प्रतिशत लुडविगशाफेन शहर का होता है।
बीएएसएफ के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के प्रभारी डा. पीटर शमिट्टल बताते हैं कि स्थानीय एजेंसियां कंपनी के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की निगरानी करती हैं, ताकि प्रदूषक तत्व नदी में प्रवाहित न हों। सीवेज ट्रीटमेंट के बाद जो गाद बचती है, उसे जलाकर बिजली बनाते हैं। आजकल मेम्ब्रेन तकनीक से सीवेज ट्रीट करने की विधि का परीक्षण चल रहा है।
दरअसल बीते तीन दशकों में राइन के किनारे औद्योगिक इकाइयों और शहरों में 80 अरब यूरो (5600 अरब रुपये) खर्च कर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए गए हैं। इसमें एक बड़ा हिस्सा कंपनियों ने लगाया है। उद्योग जगत और सरकार की सामूहिक कोशिश का ही नतीजा है कि आज तीस साल बाद अमोनिया, फास्फोसरस, लेड, कैडमियम, क्रोमियम, कॉपर, निकल, पारा, जिंक और एंडोसल्फान सहित कई दर्जन खतरनाक रसायनों को 70 से 100 फीसद तक राइन नदी में गिरने से रोका गया है। राइन के किनारे लगे औद्योगिक संयंत्रों में ऑनलाइन मॉनिटरिंग प्रणाली भी लगी है, जिससे प्रदूषक तत्वों की निगरानी होती रहती है।
गंगा किनारे के उद्योगों की बेरुखी
दूसरी ओर गंगा की तस्वीर है, जिसमें 764 प्रदूषणकारी औद्योगिक इकाइयां रोजाना 501 एमएलडी से अधिक गंदगी बिना साफ किए डाल रही हैं। इनमें अधिकांश इकाइयां कानपुर के पास जाजमऊ की टेनरियां हैं। टेनरियों के अपशिष्ट को ट्रीट करने के लिए एक कॉमन एफ्लुएंट प्लांट भी लगा है। लेकिन उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का आरोप है कि टेनरियां इस प्लांट को चलाने के लिए अपने हिस्से की धनराशि नहीं दे रहीं। यह मामला पिछले साल सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा।
क्या सीएसआर की धनराशि है समाधान?
क्या गंगा के किनारे लगी औद्योगिक इकाइयों को उनकी सीएसआर धनराशि एफ्लूएंट ट्रीटमेंट प्लांट पर खर्च करने से प्रदूषण से निजात मिल सकती है। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रलय के अधिकारियों का कहना है कि इससे कोई हल नहीं निकलेगा, क्योंकि ऐसा होने पर बड़ी कंपनियां तो फायदे में रहेंगी लेकिन लघु और मध्यम इकाइयों को कोई लाभ नहीं मिलेगा। इसलिए सरकार ने सीएसआर से ईटीपी लगाने की अनुमति नहीं दी है। हालांकि कंपनियां सीएसआर की धनराशि स्वछ गंगा फंड में दान दे सकती हैं।