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नदियां बचाने को तोड़ दीं सरहद की बंदिशें

कभी 'सीवर ऑफ यूरोप' कही जाने वाली राइन नदी आज निर्मल है। आज कई देश अपनी नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए राइन से सीख ले रहे हैं। राइन कैसे साफ हुई? उसे निर्मल बनाने के लिए वहां की सरकारों, लोगों, उद्योगों और वैज्ञानिकों ने कैसे अपनी प्रतिबद्धता निभाई?

By Rajesh NiranjanEdited By: Published: Mon, 31 Aug 2015 06:56 AM (IST)Updated: Mon, 31 Aug 2015 06:59 AM (IST)

कभी 'सीवर ऑफ यूरोप' कही जाने वाली राइन नदी आज निर्मल है। आज कई देश अपनी नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए राइन से सीख ले रहे हैं। राइन कैसे साफ हुई? उसे निर्मल बनाने के लिए वहां की सरकारों, लोगों, उद्योगों और वैज्ञानिकों ने कैसे अपनी प्रतिबद्धता निभाई? यह जानने के लिए पढि़ए दैनिक जागरण की विशेष शृंखला।

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हरिकिशन शर्मा, कोबलंज (जर्मनी)। हमारे देश में नदियों की सफाई के नाम पर सरकारें भले ही एक-दूसरे का मुंह ताकती हैं, लेकिन इन्हें बचाने के लिए कई देशों ने सरहद की बंदिशें तोड़ दी हैं। ये देश आर्थिक और राजनीतिक मंच पर मतभेदों के बावजूद नदियों को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए साथ मिलकर काम कर रहे हैं। यूरोप में दशकों से काम कर रहे कई अंतरराष्ट्रीय नदी संरक्षण आयोग इसकी मिसाल हैं। गंगा को निर्मल बनाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के बीच भी इसी तरह के समन्वय, सहयोग और समर्पण की दरकार है।

नदियों को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिए अलग-अलग देशों के बीच सहयोग का सबसे प्रमुख उदाहरण अंतरराष्ट्रीय राइन नदी संरक्षण आयोग (आइसीपीआर) है। इस आयोग ने यमुना के बराबर लंबी और छह देशों से बहने वाली राइन नदी को साफ करने में अहम भूमिका निभाई है। जर्मनी, फ्रांस, लग्जमबर्ग, नीदरलैंड और स्विटजरलैंड ने 11 जुलाई, 1950 को आइसीपीआर की स्थापना की। विशेष बात यह है कि राइन को साफ करने के लिए विभिन्न देशों के बीच सहयोग की शुरुआत यूरोपीय संघ (ईयू) की स्थापना से भी काफी पहले हो गई थी।

आइसीपीआर के अध्यक्ष गुस्ताफ बोरखार्ट ने 'दैनिक जागरण' से कहा कि सभी देशों की एकजुटता से ही हम राइन नदी के लिए कारगर योजना बनाने और प्रभावी ढंग से लागू करने में कामयाब रहे। हम कानूनी तौर पर ईयू के वर्ष 2000 के प्रदूषण संबंधी जल दिशा-निर्देशों का पालन करते हैं। राइन बेसिन का एक देश स्विटजरलैंड ईयू का सदस्य नहीं है। फिर भी वह उन दिशा-निर्देशों को मानता है और उनके अनुरूप कार्रवाई करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह आइसीपीआर का सदस्य है और राइन के मामले में सबके साथ है।

राइन आयोग की सफलता को देखते हुए डेन्यूब नदी को बचाने के लिए 1994 में 14 देश साथ आए। डेन्यूब नदी लगभग गंगा के बराबर है और इसका बेसिन 19 देशों में फैला है। इन देशों ने मिलकर अंतरराष्ट्रीय डेन्यूब नदी संरक्षण आयोग (आइसीपीडीआर) बनाया। अब यूरोपीय संघ भी इन देशों के साथ जुड़ गया है। डेन्यूब बेसिन के कई देश यूरोपीय संघ के सदस्य न होकर भी इसके द्वारा नदियों के लिए तय किए गए लक्ष्यों को हासिल करने में जुटे हैं।

इसी तरह एल्ब नदी को अविरल और निर्मल रखने के लिए बना अंतरराष्ट्रीय एल्ब नदी संरक्षण आयोग भी 1990 से काम कर रहा है। इसमें जर्मनी, चेक गणराज्य, आस्ट्रिया, पोलैंड और यूरोपीय संघ शामिल हैं। ऐसे ही अंतरराष्ट्रीय ओद्रा नदी संरक्षण आयोग है, जो 1999 से ओद्रा नदी में प्रदूषण की रोकथाम के लिए काम कर रहा है। इसी प्रकार मोजेल और सार नदियों को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए जर्मनी, फ्रांस और लग्जमबर्ग मिलकर 50 के दशक से अंतरराष्ट्रीय मोजेल और सार संरक्षण आयोग के तहत काम कर रहे हैं। एक अन्य उदाहरण अंतरराष्ट्रीय सवा नदी बेसिन संरक्षण आयोग का है, जो पिछले दशक से काम कर रहा है।

गंगा पर नहीं दिखती राज्यों की प्रतिबद्धता

राइन को साफ करने के लिए जैसी प्रतिबद्धता वहां की सरकारों ने दिखाई है वैसी हमारे यहां देखने को नहीं मिलती। गंगा की सफाई के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (एनजीआरबीए) बना है। इसमें उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री शामिल हैं। ये पांच राज्य ही गंगा को प्रदूषित कर रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2009 से 2014 के दौरान प्राधिकरण की मात्र तीन बैठकें बुलाईं। वहीं मौजूदा सरकार ने जब-जब प्राधिकरण की बैठक बुलाई, तो कई मुख्यमंत्री शामिल ही नहीं हुए। 27 अक्टूबर, 2014 की बैठक में उत्तराखंड को छोड़ बाकी किसी राज्य के मुख्यमंत्री नहीं आए। बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों ने खुद आने के बजाय अपने प्रतिनिधि भेज दिए। इसी तरह 26 मार्च, 2015 को एनजीआरबीए की बैठक में भी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री नहीं पहुंचे। राज्य सरकारें गंगा पर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के लिए जमीन और बिजली मुहैया कराने में भी कोताही बरतती हैं।

साफ हुई राइन

तीस साल पहले राइन इतनी प्रदूषित थी कि इसे 'सीवर ऑफ यूरोप' कहते थे। इसकी मछलियां खत्म हो गई थीं। आज इसमें साल्मन और ईल के साथ-साथ मछलियों की 64 प्रजातियां हैं। लगभग 99 प्रतिशत आबादी सीवर नेटवर्क से जुड़ी है। फॉस्फोरस, जिंक, कॉपर, क्रोमियम, नाइट्रोजन, अमोनिया, लेड, निकल तथा अन्य प्रदूषणकारी तत्वों की मात्रा 80 से 100 प्रतिशत तक कम हो गई है। साथ ही ऑक्सीजन की मात्रा भी बढ़ गई है।


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