हरयिाणा में अकेले चुनाव लड़ने से भाजपा को हुआ फायदा
लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद अपने बूते विधानसभा चुनाव में कूदना भाजपा के लिए फायदे का सौदा साबित हुआ। कभी डेढ़ दर्जन से अधिक सीटें भी नहीं जीतने वाली भाजपा आज प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। भाजपा को जहां केंद्र में अपनी पार्टी की सरकार होने का फायदा मिला है, वहीं प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता विरोधी लहर का लाभ
चंडीगढ़। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद अपने बूते विधानसभा चुनाव में कूदना भाजपा के लिए फायदे का सौदा साबित हुआ। कभी डेढ़ दर्जन से अधिक सीटें भी नहीं जीतने वाली भाजपा आज प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। भाजपा को जहां केंद्र में अपनी पार्टी की सरकार होने का फायदा मिला है, वहीं प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता विरोधी लहर का लाभ भी पहुंचा है।
भाजपा का चुनाव नतीजों से पहले मुख्यमंत्री घोषित न कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही चेहरा बनाकर मैदान में उतरना सही रणनीति साबित हुआ है। पार्टी इससे एकजुट होकर मैदान में उतरी और भितरघात की संभावनाओं को सिरे से ही खारिज कर दिया। टिकट आवंटन के बाद जो थोड़ा बहुत विरोध हुआ भी, उसे चुनाव प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय शांत करने में पूरी तरह से सफल रहे।
भाजपा इस चुनाव में जीत और पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने का लक्ष्य लेकर मैदान में डटी रही। पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं की एकजुटता का ही नतीजा रहा कि भाजपा को प्रदेश में हरियाणा के गठन के बाद मैराथन जीत हासिल हुई। लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का जो राजनीतिक कौशल देखने को मिला था, वह इस चुनाव में भी काम आया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ-साथ अमित शाह पूरे समय हरियाणा के चुनावी मोर्चे पर डटे रहे, जिसके रिजल्ट प्रदेश के सामने हैं।
हरियाणा में पिछले चुनाव नतीजे कभी भाजपा के अनुकूल नहीं रहे। पार्टी हमेशा फर्श पर ही रही, लेकिन इस बार यह पहला मौका है, जब वह फर्श से सीधे अर्श पर जा पहुंची है। प्रदेश में उसका अपने दम पर सरकार बनाने का सपना भी पूरा हो गया है। हरियाणा में भाजपा ने 1987 में सबसे अधिक 16 सीटें जीती थी। इसके बाद 1991 में हुए चुनाव में भाजपा एक बार फिर टूटकर जनता पार्टी बन गई। इस चुनाव में भी जनता पार्टी को 16 सीटें मिली। 1996 में भाजपा फिर एकजुट होकर चुनाव लड़ी लेकिन 11 सीटें ही जीत पाई। 2000 में भाजपा को मात्र छह सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। 2005 में यह आंकड़ा घटकर मात्र दो सीटों पर सिमट गया, जबकि 2009 के चुनाव में भाजपा को चार सीटें ही मिल पाई थी। बावजूद इसके भाजपा ने हार नहीं मानी और पूरे दमखम के साथ मैदान में डटी रही। शहर के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी पार्टी ने अपना कैडर तैयार किया और लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे के साथ ही इसका असर भी देखने को मिला।
लोकसभा चुनाव में मिली भारी जीत का ही असर है कि भाजपा ने विधानसभा चुनाव में अपनी सहयोगी पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस (बीएल) से नाता तोड़ कर अकेले चुनाव में उतरने का फैसला किया। भाजपा का यह फैसला भी सही साबित हुआ, जबकि हजकां (बीएल) को नुकसान उठाना पड़ा है। भाजपा ने इस जीत के साथ ही अपनी जमीनी ताकत भी परख ली है और सत्ता में आने के बाद वह कैडर को अधिक मजबूत कर सकेगी।
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