मोदी-शाह की भाजपा ने तीन साल में किया आमूल चूल परिवर्तन
नौ राज्यों में जीत के साथ किसी एक पार्टी का यह करिश्मा चकाचौंध करता है।
आशुतोष झा, नई दिल्ली। तीन साल, तेरह विधानसभा चुनाव और नौ राज्यों में जीत के साथ सरकार का गठन। मजबूत बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी एक पार्टी का यह करिश्मा चकाचौंध करता है। यह सोचने को मजबूर भी करता है कि क्या भाजपा का अदभुत प्रदर्शन किसी एक 'चेहरे' का जादू है जो लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा है? या फिर दूसरे दल इतने कमजोर हो चुके हैं कि अब लड़ाई इकतरफा होकर रह गई है? दोनों में सच्चाई है लेकिन एक बड़ा कारण है पार्टी की इच्छाशक्ति जो 'जमीन की उर्वरता' और नेतृत्व व कार्यकर्ताओं की मेहनत पर इतना फली फूली कि हर लक्ष्य साध्य हो गया है।
भाजपा के अश्वमेध से घबराए विपक्षी दलों में एकजुटता की कोशिश तो हो रही है लेकिन शायद भाजपा की शक्ति का आकलन करने में ही चूक रहे हैं। वह यह भूल रहे हैं कि 37 की हो चुकी भाजपा डेढ़ दशक पहले ही सत्ता के शीर्ष पर पहुंच चुकी थी। उस वक्त पार्टी के ह्रास का जो कारण रहा था नए युग में मोदी-शाह की भाजपा ने जहां उसे दूर किया। वहीं कांग्रेस समेत दूसरे विपक्षी दल अपनी ही अनजान गलतियों के भंवर में फंसते गए हैं। पिछला तीन साल राजनीतिक रणनीति के लिहाज से बहुत खास माना जा सकता है। पहले अटल -आडवाणी और मोदी-शाह भाजपा की तुलना की जाए तो अब संतुष्ट और अतिविश्वस्त होने की जगह नहीं बची है।
पार्टी अध्यक्ष शाह बार-बार बोल चुके हैं कि स्वर्णिम काल अभी नहीं आया है। न ही असंभव नाम का कोई शब्द रहा है। पार्टी उन क्षेत्रों और सीटों पर सबसे पहले जुटती है जो बंजर मानी जाती रही है। भाजपा ने पिछले तीन साल में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि राजनीति में दूसरों पर निर्भरता को सहयोग और सामंजस्य का नाम देना कमजोरी है। महाराष्ट्र इसका उदाहरण रहा है जहां शिवसेना की लाठी को छोड़ने के बाद ही भाजपा का उत्थान हुआ और फिर भी दोनों साथी हैं। असंभव नहीं है कि भाजपा का यह तेवर दूसरे साथियों को डरा रहा होगा लेकिन यह भी सच्चाई है कि इसी ताकत के कारण वह भाजपा के साथ ही खुद को सुरक्षित भी पाते हैं। यही कारण है पिछले दिनों राजग का दायरा बढ़ता ही जा रहा है।
आने वाले दिनों में दक्षिण में इसके विस्तार की संभावनाएं भी खंगाली जा रही हैं। दरअसल यह सोच पैदा करने से पहले मोदी-शाह की भाजपा ने जमीनी तैयारियों के साथ खुद को इस लायक बना लिया था। गौरतलब है कि पूरे सामंजस्य के साथ अमित शाह की भाजपा ने जहां पहले दिन से बूथ को अपने दौरे का केंद्र बनाया और यह सुनिश्चित किया कि सालों भर यह सक्रियता बनी रहे।
अध्यक्ष होते हुए भी शाह एक कार्यकर्ता की तरह बूथ पर प्रवास करते रहे हैं। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता ने उस पर मुहर लगा दी। पहले की भाजपा से परे नई भाजपा ने यह तय कर लिया कि हर चुनाव एक परीक्षा है और जमीन उर्वरा। जरूरत है सिर्फ पहचान की और सही बीज की। यह इच्छाशक्ति ही है कि भाजपा अब हर चुनाव में पहले से ज्यादा कठिन लक्ष्य तय कर उतरती है और उसे हासिल भी कर रही है। इस तीन साल में ही भाजपा ने जनसंघ और संघ के जम्मू-कश्मीर से लेकर असम तक के सपने को भी आकार दिया है। सरकार और संगठन के सामंजस्य ने यह सुनिश्चित किया पार्टी के विस्तार का लाभ सरकार के कार्यक्रमों को मिले और लोक हितकारी कार्यक्रमों का लाभ पार्टी अपने खाते में जोड़े।
विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए भाजपा यह साबित करने में सफल दिख रही है कि वह केवल चुनाव के वक्त नहीं 365 दिन जनता के आसपास है। विपक्ष की चूक ने भी भाजपा को उर्जा दी है। संकुचित राजनीतिक लाभ के लिए राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी प्रतीकों को लेकर विपक्षी दलों के रुख ने देश के बहुत बड़े वर्ग की सुसुप्त भावना को जगा दिया।
ध्यान रहे कि पिछले वर्षो में ऐसा भी मौका आया कुछ विपक्षी पार्टियां वंदे मातरम के नारों को लेकर भी विरोधी नजर आई। जिसने विरोध न किया वह चुप रहकर विरोधी दिखी। ऐसे विपक्षी दलों के जमघट ने एक दूसरे को हानि ही ज्यादा पहुंचाई है। जबकि भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अपनी विचारधारा के साथ ज्यादा बलवान हुई। ध्यान दिया जाना चाहिए कि पिछले तीन वर्षो में केंद्र सरकार और भाजपा ने तिरंगा यात्रा, स्वाभिमान यात्रा जैसे कई कार्यक्रमों को राष्ट्रव्यापी बनाने की कोशिश की है। और उसपर सवाल उठाकर विपक्ष ने चूक ही की है।
अमित शाह का दावा है कि भाजपा अगले 40-50 वर्षो तक सत्ता में रहेगी। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में विपक्षी नेता सार्वजनिक तौर पर भले ही उपहास उड़ा लें लेकिन बंद कमरे में वह भी भाजपा से सहमे दिखेंगे।