जाने कहां गए वो दिन? बिहार के मिथिलांचल की भोज-भात -की परंपरा...
मिथिला की परंपरा में शामिल किसी खास अवसर पर आयोजित होने वाले भोज-भात का आयोजन अब धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। अब ना वो व्यंजनों की खुशबू रही ना ही भोज खाने-खिलाने की बात।
पटना [काजल]। किसी विशेष अवसर पर सामूहिक भोजन की परंपरा वैसे तो भारत के अनेकों हिस्सों में प्रचलित है पर अपने अनूठेपन और वृहत स्तर पर जमीन पर बैठकर एक साथ भोजन करने और उसके विधि-विधान जो मिथिला भी प्रचलित है वो भोज-भात की परंपरा वाकई अनोखी है।
यहां भोज को एक मायने में समाज में आपके बढ़ते रुतबे के परिपेक्ष्य में भी देखा जाता है | यानी जितना बड़ा भोज उतना ज्यादा आपका यश ! बच्चे के जन्म से लेकर विवाह तक और विदाई से लेकर मृत्योपरांत यहां भोज के आयोजन की अनिवार्य परंपरा है। भारत में भले ही मृत्यु भोज की प्रासंगिकता पर बहस छिड़ी हो किन्तु इससे मिथिलांचल के बहुसंख्य जन-मानस पर कोई असर नहीं पड़ता।
मिथिला की इस भोज-भात में कई प्रकार की सब्जिया बनाई जाती हैं। वो भी परंपरागत तरीके से और कोई कुक नहीं बनाता ये भोजन, बल्कि गांव के लोग खुद मिलकर बनाते हैं। ये भोजन प्रचुर मात्रा में बनाए जाते हैं। भोज में सीजनल सब्जियां , फल , मिठाई , दही , पापड़ के साथ ही अन्य कई तरह के आइटम बनाए जाते हैं जिन्हें एक साथ खा पाना शायद संभव नहीं होता।
यहां हर भोज में दही और मिठाई रहना अनिवार्य माना जाता है। जमीन पर भोज की पंगत बैठाई जाती है जिसमें पुरुष घर से पानी पीने के लिए लोटा लेकर आते हैं। फिर पत्तल दिया जाता है जिसे पानी छिड़ककर साफ किया जाता है। फिर एक-एक कर सबकुछ परोसा जाता है। फिर एक साथ सभी खाना शुरु करते हैं। खाना चलता रहता है उसके बीच-बीच में और अाइटम भी परोसा जाता है।
सबसे अंत में दही और मिठाई परोसी जाती है। आपने अगर पहले भोजन कर लिया है तो भी यह अपेक्षा की जाती है कि जब सभी खाकर उठने लगें तभी आप भी उठें। भोज में एक और ख़ास बात यह है की पुरुष और महिला साथ बैठ कर खाने की परंपरा नहीं है। भोज खाने के बाद लोगों के बीच पान सुपाड़ी भी बांटने की रिवाज है।
भोज के प्रकार
मिथिलांचल में साधारणतया दो अवसरों पर बड़े भोज किये जाते हैं। एक तो उस समय जब घर में किसी लड़की या लड़का का विवाह हो , मुंडन या यज्ञोपवीत संस्कार हो और दूसरा जब किसी की मृत्यु हो। मृत्यु के अवसर पर होने वाले भोज को श्राद्ध-भोज कहते हैं। अन्य भोज जैसे बच्चों का छठी , जन्म-दिन का भी आयोजन किया जाता है।
जन्मोत्सव या छठी का भोज
वैसे जन्मोत्सव या छठी का भोज उतने बृहद स्तर पर नहीं होता। बच्चे की छठी में लोग अपने परिवार के सदस्य और बंधु-बांधव के साथ मिलकर ही भोज करते हैं। इस दिन जिन - जिन व्यक्तियों को भोज कराया जायेगा उसे निमंत्रण भेजा जाता है। शाम में लोग भोज खाने के लिए आते हैं। इस भोज में कचौड़ी , पुलाव , चना दाल , एक या दो सब्जी (समयानुकूल) , टमाटर की चटनी , मांस या मछली एवं अंत में दही पड़ोसा जाता है।
मुंडन का भोज
मिथिलांचल में बच्चे के मुंडन के दिन भी भोज-भात का प्रचलन है। जिस बच्चे का जग-मुरन होता है उस घर में छागर यानि बकरे के बलिप्रदान की परंपरा भी है जो कुल देवता को समर्पित किया जाता है। उस भोज में गांव वालों को निमन्त्रण भेजा जाता है। लोग शाम में भोज खाने के लिये आते हैं। इस भोज-भात में भात , दाल , आलू परवल या आलू गोभी की सब्जी , बैगन अदौड़ी , कदीमा , आलू , कच्चा केला , बैगन का तरुआ , साग , मांस एवं अंत में दही बांटा जाता है।
यज्ञोपवीत (जनेऊ) का भोज
मिथिलांचल में यज्ञोपवीत के अवसर पर होने वाले भोज का आनंद ही कुछ और है। जनेऊ से एक सप्ताह या दस दिन पहले जिस घर में जनेऊ या यज्ञोपवीत संस्कार होना है उस घर में बसकट्टी या उद्दोग का भोज होता है जिसमें अन्य व्यंजनों के अलावा बड़ी बनती है। उद्दोग के भोज में बड़ी होना आवश्यक है।
बसकट्टी के एक सप्ताह या दस दिन बाद जनेऊ के दिन से एक दिन पहले कुमरम का भोज होता है। इस दिन कुल देवी को छागर यानि बकरे का बलिप्रदान दिया जाता है और शाम में भोज का आयोजन होता है। भोज में प्रसाद के रूप में अन्य व्यंजनों के साथ मांस परोसा जाता है और अंत में दही परोसी जाती है।
दूसरे दिन अर्थात जनेऊ के दिन यज्ञोपवीत संस्कार हो जाने के बाद दही-चूड़ा का भोज आयोजित होता है। पहले चूडा परोसा जाता है, उसके बाद दही और चीनी। इसके साथ ही सीजनल सब्जियां भी बनाई जाती हैं जिसे डालना कहते हैंडालना मिथिला में बनने वाली एक विशेष प्रकार की सब्जी है जिसमे आलू ,बैगन , परवल या गोभी , मटर एवं कदीमा मिलाकर बनाया जाता है।
श्राद्ध भोज
श्राद्ध के अवसर पर आयोजित होने वाले भोज को मिथिलांचल में एकादशा एवं द्वादशा का भोज कहते हैं, जिसके पहले दिन एकादशा का भोज और दूसरे दिन द्वादशा का भोज करने की परंपरा है। पहले दिन भोज में भात – दाल, आलू परबल या आलू गोभी , कदीमा , कद्दू , बैगन अदौड़ी , साग , ओल की चटनी , आलू एवं कच्चा केला की तरुआ एवं उरीद के बेशन का बड़ होता है। इस भोज के अंत में भी दही परोसी जाती है। दूसरे दिन की भोज में चूड़ा-दही चीनी का भोज होता है। जिसमें डालना वाली सब्जी की प्रधानता रहती है।
जाने कहां गए वो दिन....
बदलते दौर में सबकुछ बदला, मिथिला के भोज-भात की भी परंपरा बदली। कुछ गांवों को छोड़कर अब कहीं भी भोज-भात वाली बात देखने को नहीं मिलती है। आज के बदलते परिवेश में भोज-भात का स्वरुप इतना बदल गया हैे कि अब कुक बुलाकर खाना बनवाया जाता है और जमीन पर बैठाकर खिलाने की बजाय गांवों में भी अब कुर्सी टेबल पर बैठाकर खिलाया जाता है।
केले के पत्ते की जगह अब प्लास्टिक के थर्मोकोल की प्लेट्स मे भोजन परोसा जाता है। भोज-भात पर भी आधुनिकता और शहरीकरण की पूरी छाप दिख रही है। अब तो गांवों में भी पारंपरिक व्यंजनों की बजाय शहरों में प्रचलित पार्टियों वाले व्यंजन बनाए और खिलाए जा रहे हैं।
अब पारंपरिक खाने की खुशबू गांव के भोज-भात में शायद ही कहीं मिलेगी। अब तो पारंपरिक भोज की जगह बुफ़े सिस्टम ले रहा है जिसकी पहुंच अब धीरे-धीरे शहरों के साथ गांवों में भी होने लगी है। हमारे संस्कार, हमारी लोक संस्कृति हमारी परंपराएं एेेसे ही धीरे-धीरे विलुप्त हो जाएंगी।