यूपी विधानसभा चुनाव : तीसरे मोर्चे का नेतृत्व कर सकता है बिहार
उत्तरप्रदेेश विधानसभा चुनाव को लेकर तीसरे मोर्चे के गठन की भी बातें सामने आ रही हैं। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि इस तीसरे मोर्चे का नेतृत्व बिहार कर सकता है।
पटना [अरविंद शर्मा]। कांग्रेस की कमजोर होती ताकत व संघ मुक्त भारत के आह्वान के बीच तीसरे मोर्चे की अवधारणा पर बहस शुरू हो गई है। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले केंद्र की शीर्ष सत्ता के खिलाफ क्षेत्रीय दल एकजुटता का संकल्प लेने लगे हैं। राष्ट्रीय मोर्चा के नेता का नाम भी उछाला जाने लगा है।
देश के सियासी इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि गैर-कांग्रेस एवं गैर-भाजपा नेतृत्व के लिए बिहार की ओर टकटकी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के रूप में सशक्त विकल्प नजर आ रहा है।
करनाल में स्व. देवीलाल की जयंती के बहाने जुटे नेताओं ने बहुत हद तक तस्वीर साफ कर दी है कि भाजपा और कांग्रेस से अलग अगर कोई राष्ट्रीय विकल्प खड़ा हुआ तो उसमें बिहार की अहम भूमिका होगी। तीसरे मोर्चे के नेतृत्व के लिए वैसे तो कई नाम चलाए जा रहे हैं, मगर जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार का कद सबसे ऊपर दिख रहा है।
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अब सबसे बड़ी चुनौती क्षेत्रीय दलों को एक मंच पर लाने की होगी। प्रधानमंत्री प्रत्याशी के लिए अपनी पहली पसंद बताकर राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार की संभावनाओं को एक तरह से मजबूती दी है। इसके पहले बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एवं नेशनल कांग्र्रेस पार्टी (एनसीपी) के प्रमुख शरद पवार भी नीतीश के नाम पर सहमति दे चुके हैं।
आम आदमी पार्टी के प्रमुख एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी नीतीश के समर्थक माने जाते हैं। राजनीतिक समीकरणों के मुताबिक तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता एवं उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को भी नीतीश के नाम पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
मौजूदा हालात में नीतीश की राह में सिर्फ मुलायम सिंह ही बाधा खड़ी कर सकते हैं। लंबे समय से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नजर गड़ाए सपा प्रमुख शायद ही किसी और की दावेदारी पर सहमत होंगे। हालांकि मुलायम के भाई शिवगोपाल यादव के ताजा स्टैंड से नीतीश समर्थकों को थोड़ी राहत मिल सकती है। महज एक दिन पहले करनाल की आमसभा में उन्होंने नीतीश को आगे बढ़कर नेतृत्व संभालने के लिए प्रेरित किया था।
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कांग्रेस की क्या भूमिका होगी
बिहार में नीतीश कुमार कांग्र्रेस के साथ महागठबंधन की सरकार चला रहे हैं। राजद की तुलना में कांग्र्रेस को जदयू के ज्यादा करीब माना जाता है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल उठता है कि नीतीश कुमार खुद को राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर होती कांग्र्रेस के विकल्प के रूप में कैसे प्रस्तुत करेंगे। इतना तो तय है कि सिर्फ संघ मुक्त भारत के नारों के आधार पर तीसरा मोर्चा का स्वरूप खड़ा नहीं हो सकता। उसे कांग्र्रेस से भी उतनी ही दूरी बनानी पड़ेगी जितनी भाजपा से। यह स्थिति नीतीश के लिए सबसे बड़ी दुविधा वाली हो सकती है।
सारा दारोमदार यूपी चुनाव पर
थर्ड फ्रंट की अवधारणा यूपी चुनाव के नतीजे पर निर्भर करेगी। मुलायम सिंह व मायावती की हार-जीत से आगे की राजनीति तय होगी। बिहार के बाद पांच राज्यों के चुनाव नतीजों ने क्षेत्रीय दलों को उत्साहित कर रखा है। पांच में से तीन बड़े राज्य में न कांग्र्रेस सत्ता में आई न भाजपा। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक व केरल में वाममोर्चा गठबंधन सत्ता में आया। जाहिर है तीनों राज्यों में क्षेत्रीय दलों की ताकत दिखी। यूपी में यदि मुलायम की वापसी हो गई तो वे अपने अधूरे सपने को पूरा करने के लिए पूरी ताकत लगा सकते हैं।
कब-कब बना मोर्चा
-1977 में जेपी ने तोड़ा कांग्र्रेस का वर्चस्व और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनवाई।
-1988 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गैर कांग्र्रेस दलों ने मोर्चा बनाया और सत्ता में भी आए।
-1998 और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठबंधन बना। सरकार पूरे पांच साल चली।