सोना न खरीदें क्योंकि हम हैं गरीब
मुंबई। सोने से भारतीयों का लगाव सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है। जब देश को सोने की चिड़िया पुकारा जाता था तब इस कीमती धातु के प्रति दीवानगी समझी जा सकती थी, मगर अब भारत गरीब मुल्कों में शुमार है। ऐसे में इस पर ज्यादा खर्च करना मुनासिब नहीं है। वह भी तब जब यह अनुत्पादक निवेश है और हर साल अरबों डॉलर की विदेशी मुद्रा इस
मुंबई। सोने से भारतीयों का लगाव सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है। जब देश को सोने की चिड़िया पुकारा जाता था तब इस कीमती धातु के प्रति दीवानगी समझी जा सकती थी, मगर अब भारत गरीब मुल्कों में शुमार है। ऐसे में इस पर ज्यादा खर्च करना मुनासिब नहीं है। वह भी तब जब यह अनुत्पादक निवेश है और हर साल अरबों डॉलर की विदेशी मुद्रा इसके आयात पर खर्च करनी पड़ती है। इससे चालू खाते का घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है जिसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। सिर्फ मानसिक संतुष्टि के लिए किए जाने वाले इस खर्च पर लगाम लगाने को मानसिकता बदलने की जरूरत है। भारतीय रिजर्व बैंक [आरबीआइ] के डिप्टी गवर्नर केसी चक्रबर्ती ने यह सलाह दी है।
चक्रबर्ती के मुताबिक जब देश अमीर था तब सोने के गहने पहनना सांस्कृतिक मजबूती का परिचायक था। उस समय दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद [जीडीपी] में भारत का हिस्सा 30 फीसद था। मगर अब हम गरीब हो गए हैं तो हमें संस्कृति को भी बदलना चाहिए। इस कीमती धातु के प्रति मानसिकता बदलने के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति की जरूरत है। उन्होंने कहा कि देश में सोने की कुल मांग में से 90 फीसद गहनों या भगवान को चढ़ावे के रूप में इस्तेमाल होता है। मंदिरों में दी जाने वाली भेंट धार्मिक भावनाओं से जुड़ा और विश्वास का मामला है। मगर इसके लिए 22 कैरेट का सोना ही क्यों इस्तेमाल किया जाए? इसके लिए दो कैरेट का सोना भी इस्तेमाल हो सकता है। गहने आखिर गहने हैं, भले वह 22 कैरेट से बना हो या दो कैरेट से। उन्होंने कहा कि सही मायने में देखा जाए तो मौजूदा समय में इसकी वास्तविक कीमत कुछ भी नहीं है क्योंकि संट्टेबाजी के चलते ही इसके दाम आसमान छू रहे हैं। इसी वजह से इसमें निवेश भी बढ़ रहा है। मगर इस निवेश से कुछ उत्पादित नहीं हो रहा है। एक दिन ऐसा भी आएगा जब लोगों की भेड़चाल थमेगी और इसकी कीमत भरभरा कर नीचे आएगी। तब निवेशक कहीं के नहीं रहेंगे। आरबीआइ के डिप्टी गवर्नर का मानना है कि मौजूदा ऊंची कीमत पर इसमें निवेश करना भविष्य के लिए जोखिम उठाने जैसा है।
चक्रबर्ती ने कहा कि वित्तीय सलाहकारों को आम जनता को इस तरह के निवेश की अनुत्पादकता से अवगत कराना चाहिए। सोने का कोई उत्पादक उपयोग नहीं है। सबसे ज्यादा चिंताजनक यह है कि पीली धातु में अमीरों से ज्यादा गरीब निवेश कर रहे हैं। इसी वजह से आरबीआइ ने सोने के बदले कर्ज और बैंकों द्वारा सोने के सिक्कों की बिक्री को बढ़ावा दिया। गरीब सोना खरीदते तो हैं मगर जरूरत पड़ने पर उन्हें इसे 30 फीसद तक कम मूल्य पर गिरवी रखना पड़ता है। इस तरह की संस्कृति बड़ी समस्या बन चुकी है।
सोना और कच्चे तेल के आयात में तेज बढ़ोतरी के चलते ही वित्त वर्ष 2011-12 में चालू खाते का घाटा 30 साल के सबसे ऊंचे स्तर सकल घरेलू उत्पाद [जीडीपी] के 4.2 फीसद पर पहुंच गया। वर्ष 1991 के वित्तीय संकट के समय भी चालू खाते का घाटा केवल तीन फीसद ही रहा था। वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल के मुताबिक 2011-12 में देश में सोने का आयात 44 फीसद बढ़कर 969 टन हो गया। इसकी कुल कीमत 60 अरब डॉलर [3300 अरब रुपये] रही।
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