अकर्मण्यता को बढ़ावा देने वाली योजनाएं
ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध कराने वाली ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना’ (मनरेगा) भारत में कई व्यवहारिक समस्याओं की शिकार रही है।
ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध कराने वाली ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना’ (मनरेगा) भारत में कई व्यवहारिक समस्याओं की शिकार रही है। इन समस्याओं का निराकरण न होने की वजह से गत वर्षों में ‘मनरेगा’ योजना के अंतर्गत वे लक्ष्य प्राप्त नहीं किए जा सके हैं, जो अपेक्षित थे। यह योजना गांवों में बसी विशाल भारतीय जनसंख्या को कौशल और अनुशासित आर्थिक विकास के अवसर उपलब्ध करा पाने में कहीं न कहीं चूक रही है। इन दोषों का अध्ययन करने के उपरांत यह उचित ही है कि केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा योजना में अब तक सामने आए दोषों को दूर कर इसे और अधिक उपयोगी बनाने की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं।
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने मनरेगा के तहत होने वाले कुल व्यय में अकुशल वेतन की अनिवार्य हिस्सेदारी 60 प्रतिशत से घटाकर 51 प्रतिशत करने का निर्देश दिया है। इसके अलावा उन्होंने कुल व्यय का 50 प्रतिशत कृषि उत्पादन बढ़ाने में खर्च करने को कहा है। इसके लिए लघु सिंचाई प्रणाली का विकास करने पर जोर दिया गया है। सरकार के अनुसार, मनरेगा परियोजना वर्तमान में 644 जिलों में चल रही है, जबकि इसका क्रियान्वयन केवल उन जिलों में होना चाहिए, जहां गरीबी और बेरोजगारी अधिक है। कुछ वामपंथी अर्थशास्त्रियों, समाजसेवियों और नौकरशाहों की दलीलों के विपरीत यह असल में उचित दिशा में ही उठाया गया कदम है। मनरेगा के दोषों को दूर करना राष्ट्रीय हित में होगा।
मनरेगा में बदलाव के विरोधियों का यह भी कहना है कि इससे तो इस योजना का मूल उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा। सामग्री की मद में राशि बढ़ाने के कारण रोजगार निर्माण में 40 प्रतिशत तक कमी हो जाएगी। भारत में यदि मनरेगा के गत वर्षों के अनुभव को आधार बनाया जाए, तो स्पष्ट होता है कि यद्यपि मनरेगा में अकुशल वेतन की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत घोषित की गई थी, परंतु व्यवहार में इसकी हिस्सेदारी लगभग 75 प्रतिशत तक रही है। स्पष्ट है कि अकुशल वेतन में गिरावट अनिवार्य शर्त नहीं है, बल्कि स्थितियों के अनुरूप इसमें फेरबदल किया जा सकता है। ऐसी कोई आशंका सत्य के निकट प्रतीत नहीं होती है कि मनरेगा योजना में कतिपय आवश्यक संशोधन किए जाने से अकुशल मजदूरों का अहित हो जाएगा।
मनरेगा निधि का अधिक उत्पादकतापूर्ण और असरदार इस्तेमाल इस योजना के मूल उद्देश्य के विपरीत बताना तो योजना में धनराशि की बर्बादी, अकुशलता और नौकरशाही की निष्क्रियता का समर्थन करना ही होगा। वास्तव में गरीबों के बैंक खाते में सीधे पैसा जमा करने से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। मनरेगा के वेतन को सीधे बैंक खाते में जमा करने के विरोध को उचित नहीं कहा जा सकता। यह तय है कि यदि मनरेगा में समय रहते आवश्यक सुधार नहीं किए गए, तो मनरेगा केवल गड्ढे खोदने की योजना और अकर्मण्यता व भ्रष्टाचार की शरणस्थली मात्र बनकर रह जाएगी।
देश में अकर्मण्यता को बढ़ावा देने वाली योजनाओं की वास्तव में भरमार रही है। लोकतांत्रिक विवशता व राजनैतिक तदर्थवाद के चलते भारत में अकर्मण्यता और सुस्ती को बढ़ावा देने वाली योजनाएं बनती रही हैं। इनसे देश की अधिसंख्य जनता निष्क्रय, अकर्मण्य एवं आत्मसम्मान से रहित होती गई है। इन योजनाओें का मकसद मानो, देश की जनता को बिना कर्म के उदरपोषण मात्र में उलझाए रखना है। ऐसा लगता है कि अधिसंख्य नागरिकों को न तो राष्ट्र की चिंता है, न ही निजी स्वाभिमान की। भारतीय संदर्भ में मात्र उदरपोषण ही जीवन का एक लक्ष्य सा बनकर रह गया है। स्वतंत्र भारत में यह प्रवृत्ति बढ़ती ही गई है और इस पर कठोरतापूर्वक लगाम लगानी होगी तथा नागरिकों को राष्ट्रहित में कर्मयोग की ओर प्रवृत्त एवं जागरूक करना होगा।
भारत में मनरेगा योजना को लेकर कुछ उचित बदलाव किए जा रहे हैं। इस योजना के तहत अब युवाओं को भी आजीविका का लाभ मिलेगा। आजीविका मिशन का दायरा सभी वर्ग के ग्रामीण बेरोजगार अकुशल युवाओं के लिए खोल दिया गया है। इसके लिए मिशन के मानकों को शिथिल किया गया है। मनरेगा के युवा मजदूरों को प्रशिक्षण देकर कुशल बनाकर आत्मनिर्भर बनाया जाएगा। मिशन में उत्तरी क्षेत्र के राज्यों को खास प्राथमिकता दिए जाने की योजना है।
‘राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन’ (एनआरएलएम) पर कुल 4000 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। मिशन में केवल गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन (बीपीएल) करने वाले परिवारों को ही शामिल किया जाता है। इस प्रावधान को शिथिल करते हुए इसे अब सभी वर्ग के ग्रामीण अकुशल युवाओं के लिए खोल दिया गया है। नक्सल प्रभावित 82 जिलों समेत 150 जिलों में महिला स्वयं सहायता समूहों को रियायती दर पर ऋण भी दिया जाएगा। ब्याज सब्सिडी का बोझ केंद्र सरकार उठाएगी। देश के अन्य जिलों के महिला ‘सेल्फ हेल्प ग्रुप’ (एसएचजी) को भी इसी दर से कर्ज मिलेगा। उसमें केंद्र की हिस्सेदारी 75 फीसदी होगी। ‘एनआरएलएम’ का प्रदर्शन दक्षिण भारत के चार राज्यों में बहुत उम्दा है। उत्तर व मध्य क्षेत्र में ‘आजीविका मिशन’ को प्राथमिकता दी जाएगी।
भारत में निर्धनता और बेरोजगारी से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर ‘स्किल डेवलपमेंट’ (दक्षता विकास) कार्यक्रम को लागू करना होगा। इसके लिए केवल पाठ्यक्रमों में थोड़े-बहुत बदलाव से काम नहीं चलेगा। भारत में अभी जारी पाठ्यक्रमों और शिक्षा व्यवस्था को व्यापक रूप से परिवर्तित करने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की भी है कि देश में ‘उद्यमिता’ की भावना को बढ़ावा दिया जाए। ऐसा नहीं है कि अभी हमारे युवाओं में उद्यमिता की भावना की कोई कमी है। भारतीय नागरिक पारंपरिक और ऐतिहासिक रूप से उद्यमी और ‘इनोवेटिव’ (प्रयोगधर्मी) रहे हैं।
भारतीय शैक्षणिक व्यवस्था में औपनिवेशिक शासन की कुप्रवृत्तियों को ढोते रहने के कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था इस प्रकार की उद्यमशीलता और प्रयोगधर्मिता से दूर होती चली गई है। भारतीय जनमानस में उद्यमिता की भावना को सर्वत्र जमीनी स्तर पर देखा जा सकता है। भारतीय लोकजीवन में सदैव से ही कृषि को सर्वोत्तम माना गया है। जब कृषि को उत्तम माना गया है, तो निश्चित रूप से देश में कृषि के उपयुक्त एक ऐसा समय देश में अवश्य रहा होगा। निश्चय ही उस समय किसी भी स्थिति में किसानों के आत्महत्या करने जैसी नौबत भी नहीं आती होगी। कृषि स्वयं में एक प्रयोगधर्मी उद्यम है।
महात्मा गांधी ने भी बार-बार ग्रामीण कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की बात की थी। कृषि और उद्योगों की ओर आज भी युवाओं का आकर्षण कुछ कम नहीं है। ब्रिटिश दौर के पुरातनपंथी कानून आज भी देश में ढोए जा रहे हैं और इनकी वजह से बड़ी संख्या में युवाओं को कृषि तथा अन्य प्रयोगधर्मी व उद्यमशील कार्यों से नहीं जोड़ा जा सका है। खासकर औद्योगिक क्षेत्र पर विभिन्न कानूनों के जरिये लालफीताशाही इस तरह हावी है कि किसी नए व्यक्ति के लिए व्यवसाय में उतरना आसान काम नहीं है। बुनियादी ढांचे के अभाव के कारण कृषि और उद्योग क्षेत्र का व्यापक विकास भारत में नहीं हो पा रहा है।