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'आपके कितने बच्चे हैं?' वह बड़ी निश्छलता से जवाब देती हैं, '358'

बच्चे की मासूम आंखों में जिसे देखकर चमक आ जाए, वही ममता है। इसकी न कोई लिखत-पढ़त है, न ही कोई कायदा-कानून। दुर्भाग्यवश आज भी ऐसे कई बच्चे हैं जिन्हें मां की ममता से वंचित रहना पड़ता है तो कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें मां होते हुए भी गरीबी और अभाव के कारण वे संस्कार नहीं मिल पाते, जो उन्हें सभ्य नागरिक बना सकें। ऐसे ही बच्चों की जरूरत को समझते हुए वे बन गईं हैं मां...

By prabhapunj.mishraEdited By: Published: Fri, 12 May 2017 06:35 PM (IST)Updated: Sun, 14 May 2017 09:06 AM (IST)
'आपके कितने बच्चे हैं?' वह बड़ी निश्छलता से जवाब देती हैं, '358'
'आपके कितने बच्चे हैं?' वह बड़ी निश्छलता से जवाब देती हैं, '358'

 इस घर का नाम 'पहल' है 

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उनसे जब कोई पूछता है, 'आपके कितने बच्चे हैं?' वह बड़ी निश्छलता से जवाब देती हैं, '358'। ये बच्चे अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग परिवारों में जन्में जरूर, पर संस्कारों के बीज इनमें सुनीता चंद्रा ने बोए। बाहरी राज्यों से मजदूरी करने आए परिवारों के ये बच्चे कुपोषण, अस्वच्छता और बाल विवाह जैसी समस्याओं में ही घिरे रहते, अगर उन्हें सुनीता ने बढ़कर संभाल न लिया होता। 

जम्मू में महेंद्र नगर निवासी सुनीता चंद्रा पिछले 11 वर्ष से अपने घर की दूसरी मंजिल पर एक दूसरा घर बसाए बैठी हैं। इस घर में कूलर, पंखा, ठंडा पानी और दरियों के साथ हैं ढेरों किताबें, कापियां, पेंसिलें, टूथब्रश, साबुन, तेल और कंघियां भी। ये उन बच्चों का सामान है जो दिनभर या तो कूड़ा बीनते हैं या घरों, दुकानों में छोटा-मोटा काम करते हैं, पर शाम के चार बजते ही धीरे-धीरे सारे बच्चे अपने घर लौटने लगते हैं। यहां वे अक्षर ज्ञान ही नहीं पाते, बल्कि निजी स्वच्छता और जीवन के लिए जरूरी अन्य संस्कार भी सीखते हैं। सुनीता बताती हैं, 'मैं छोटे बच्चों को जब कूड़ा बीनते देखती तो मुझे लगता था कि इनके हाथों में तो कॉपी पेंसिल होनी चाहिए। मैंने इन्हें घर बुलाकर खिलाना-पिलाना शुरू किया। निजी स्वच्छता की बातें बताई। बच्चों को थोड़ा-बहुत पढ़ा उनका सरकारी स्कूलों में एडमिशन करवाया।' जब कोई बच्चा यहां आना छोड़ देता तो सुनीता उसके घर जाकर उनके अभिभावकों को समझातीं। इन परिवारों के ज्यादातर बच्चे कहीं न कहीं काम पर लगे होते हैं। इसलिए जब सुनीता ने बाल मजदूरी रोकने की बात कही तो उसका नकारात्मक असर हुआ। मां-बाप ने इन्हें पढऩे के लिए भी भेजना बंद कर दिया। फिर उन्हें लगा कि शायद रोटी का मसला इनके लिए सबसे बड़ा है। इसलिए अब बच्चे आधा दिन काम करते हैं और आधा दिन अपने घर पहल में आकर पढ़ाई करते हैं। ये छोटी-छोटी बच्चियों की शादी कर देते हैं, पर बच्चे अब समझदार हो रहे हैं। एक बच्ची की शादी बारह की उम्र में हो रही थी। वह मुझे लेकर अपने मां-बाप के पास गई। पूरे छह साल उसने अपने परिवार में इसका विरोध किया। यही तो समझ है, जो हमें बच्चों में विकसित करनी है। इनमें पोषण की बहुत कमी है। इसका भी हमें ख्याल रखना होता है। दूध-फल, दाल-सब्जियां जो भी जहां से भी अरेंज हो सकता है, मैं कोशिश करती हूं। शुक्र है कि मेरा परिवार इसमें भरपूर सहयोग कर रहा है। अब तो मेहमान भी इनके लिए बिस्कुट, फल, कॉपियां, बस्ते आदि लेकर आते हैं। यह सुनीता की अथक मेहनत का ही परिणाम है कि कभी जो बच्चे कूड़ा बीना करते थे आज उनमें से चार बच्चों ने 12वीं कक्षा में 75 फीसदी नंबर लिए हैं और चार बच्चे राज्य की हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व करते हुए नेशनल लेवल पर खेल कर आए हैं। वह कहती हैं, 'मुझे खुशी होती है कि मेरे बच्चे आज अपनी मंजिल तलाशने के काबिल बन गए हैं। एक समय था जब पास-पड़ोस के लोग मुझसे सवाल करते थे कि आपने क्यों ये झुग्गियों के बच्चे इकट्ठे किए हुए हैं। वही लोग आज इन बच्चों की पीठ थपथपा रहे हैं।' 

असहाय बच्चों की मां है जमुना 

वाराणसी की वरिष्ठ सीए जमुना शुक्ला की गाड़ी का हॉर्न बजते ही बच्चे उनकी तरफ दौड़ पड़ते हैं। किसी को दिनभर की बातें बतानी हैं, किसी को कराटे या पेंटिंग सीखनी है तो किसी को अपने स्कूल की फीस देनी है। इन सभी की आस हैं जमुना शुक्ला। वह भी बाहें फैलाए इन बच्चों का स्वागत करती हैं और उनकी हर जरूरत पूरी करने की कोशिश करती हैं। जमुना वाराणसी के खजुरी में रहती हैं। वह वरूणा सेवा ट्रस्ट की संस्थापिका हैं। इसके जरिए वह शास्त्री घाट पर बच्चों को कराटे, पेंटिंग सिखाने के लिए समर कैंप भी चला रही हैं। वह कई वर्षों से समाजसेवा में हैं। पर्यावरण संरक्षण, स्वच्छता, ग्रामीण महिलाओं व बच्चों की शिक्षा के साथ ही शहर के कई अनाथालयों में पिछले 20 वर्ष से जमुना बच्चों के लिए कार्य कर रहीं हैं। इतने वर्षों में कई बच्चों को गोद लेकर उनकी शिक्षा-दीक्षा की जिम्मेदारी भी वह उठा रही हैं। जमुना के पति इनकम टैक्स लॉयर हैं और परिवार में एक बेटा व एक बेटी भी है, जो अभी शिक्षा ले रहे हैं। जमुना शुक्ला बताती हैं, 'आदिवासी कन्याओं व अनाथ बच्चों को हर साल गोद लेती हूं। ताकि उन्हें शिक्षा और उचित परवरिश मिल सके। वे सभी बच्चे मेरे सामने जब भी आते हैं तो उनके चेहरे पर मां के प्यार की आस रहती है। मैं और मेरे पति जब भी उनसे मिलने जाते हैं वे बेझिझक अपने दिल की बात करते हैं। एक गुरुकुल की कन्याओं को भजन की शिक्षा दिलाकर उन्हें स्वावलंबी बनाया अब उनके प्रोग्राम भी होते हैं। इसी तरह अनाथालय के बच्चों को गोद लेकर उनकी शिक्षा, फीस, कपड़े आदि मुहैया कराने के साथ हर त्योहार पर उनसे मिलकर उत्सव मनाती हूं। वाराणसी के शास्त्री घाट पर असहाय व अनाथ बच्चों की प्रतिभा निखारने के लिए निशुल्क समर कैंप शुरू किया है। इसके साथ ही वह निशुल्क ट्यूशन की भी व्यवस्था करती हैं। इसी कैंप में एक कूड़ा बीनने वाला बच्चा भी आता है जो प्रतिदिन कराटे व पेंटिंग सीखता है। यहां पांच से चौदह वर्ष के बच्चों की बड़ी संख्या है, जो जमुना की गाड़ी का हॉर्न सुनते ही उनकी तरफ दौड़ पड़ते हैं। समर कैंप में सभी बच्चे जमुना को घेरे खूब मस्ती करते हैं उस वक्त जो भी उन्हें देखता है यही सोचता है कि जमुना उनकी मां हैं। इस रूप में कई बच्चों ने कभी अपने माता-पिता का मुंह नहीं देखा, मगर जमुना में उन्हें अपनी मां दिखाई देती है। जमुना को अर्थ डे नेटवर्क संस्था की तरफ से सम्मानित भी किया जा चुका है। जमुना शुक्ला ग्राम डोमरी में महिलाओं व बच्चों के लिए शिक्षा व स्वरोजगार के लिए भी कार्य कर रही हैं। साथ ही यहां पर निशुल्क कोचिंग भी खोली है जिसमें गरीब बच्चे पढ़ते हैं। 

बेसहारों का सहारा 

यूं तो अधिकांश मामलों में मां की ममता हर तूफान से लडऩे को तैयार हो जाती है, लेकिन कई बार यही ममता जमाने के आगे घुटने टेकने को भी मजबूर हो जाती है। ममता का गला घोंट कर वह नवजात बच्चे को सड़क किनारे या कूड़े के ढ़ेर पर तो कभी रेलवे स्टेशन पर या अनेक मामलों में नारी निकेतन के बाहर टंगे पालने में छोड़ आती हैं, पर कहते हैं न, 'जाको राखे...'। इन बेसहारा बच्चों को कोई न कोई पुलिस तक या सीधा नारी निकेतन पहुंचा ही देता है। पुलिस तक पहुंचने वाले अधिकांश बच्चे भी कागजी कार्यवाही के बाद जालंधर के 'माता पुष्पा गुजराल नारी निकेतन' को सौंप दिए जाते हैं। यहां की महासचिव अंजना तलवार गत तीस वर्षों से अपनी ममता की छांव इन बच्चों को दे रही हैं। वह बताती हैं, 'अब तक हमारे पास सैंकड़ों बच्चे आए हैं और नारी निकेतन में न केवल उनके रहने का, बल्कि पढ़ाई-लिखाई, सुरक्षा और मनोरंजन का भी उचित प्रबंध किया जाता है। कुछ दिन पहले ही 25 बच्चों को 'बाहुबली-2' दिखाई है।' वह बता ही रहीं थीं कि तभी एक चार-पांच साल की बच्ची अपनी कापियां उठाए उनके दफ्तर में आई। खुशी से चमकती आंखों के साथ कापी में अपने 'गुड' दिखाकर उनसे टाफियां व शाबाशी लेने। उनका स्नेह यहां रह रहे हर बच्चे को उनसे बांधे हुए है। 

पूर्व प्रधानमंत्री आई. के. गुजराल के माता-पिता द्वारा स्थापित व उनकी मां के नाम पर चल रही इस संस्था के अध्यक्ष उनके भाई नरेश गुजराल हैं। इसी परिवार की सदस्य अंजना बताती हैं कि उनके कार्यकाल में ही करीब एक हजार बच्चे जरूरतमंद माता-पिता को गोद भी दिये जा चुके हैं, लेकिन वह पूरी तरह कारा (सेंट्रल अडोप्शन रिसोर्स एजंसी) के नियमों के अनुसार होता है। वह कहती हैं, 'अनेक बच्चे ऐसे भी मेरे हाथों में पले हैं जिनके जन्म के समय किस्मत जो भी रही हो, लेकिन बाद में उन्हें ऐसे माता-पिता मिले हैं कि वे आज 'राज' कर रहे हैं। दिल्ली के एक परिवार ने तो हेलीकॉप्टर में आकर दो बच्चों को गोद लिया। उन्हें वे फूलों की तरह पाल रहे हैं साथ ही निकेतन में दो अन्य बच्चे गंभीर बीमार हुए तो दिल्ली में उसी परिवार ने उनके पूरे इलाज का खर्च भी वहन किया। कागजी कार्रवाई पूरी करने के बाद विदेशी जोड़ों को भी कुछ बच्चे गोद दिए गए हैं। हमारे पास कई बेटियां ऐसी भी हैं जिन्हें पढ़ाने के साथ-साथ सिलाई व ब्यूटीशियन की ट्रेनिंग भी दी गई। ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें। हमारे यहां पली बेटियां प्रोफेसर भी हैं और मल्टीमीडिया की पढ़ाई में राज्य की टॉपर भी। बहुत सी बच्चियों की शादी कर दी गई है, जो अपने ससुराल में खुश हैं। उनके मायके के पूरे रीति-रिवाज नारी निकेतन परिवार निभाता है, जिनमें ट्रस्ट की वाइस प्रेसिडेंट नीना सोंधी, ट्रेजरर एन के मेहता, ट्रस्टी सुदर्शन चोपड़ा, सीमा चोपड़ा सभी शामिल हैं।' 

योगिता यादव

वंदना सिंह, जालंधर से वंदना वालिया बाली 


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