विरासत से प्यार, कोई कैसे करे इंकार
कला के भीतर बोलती हैं जीवंत संवेदनाएं। यह प्राचीन होती है लेकिन पुरानी नहीं। सीमा झा ने पाया कि यह विरासत हमारी पहचान है, इससे प्यार, इसकी साज-संभाल का अर्थ है अपने कल को संवारना और रोशन करना..
किसी प्राचीन चित्रकृति के बोलते भावों के साथ जुड़ाव होना नई बात नहीं। इनमें इंसानी जीवन से लिए गए भाव होते हैं, इसलिए सहज जुड़ जाते हैं हम। ग्रामोफोन रिकॉर्ड सुनने को मिल जाए तो दशकों पुराने दौर में सहसा लौट जाना भी इसी बात की ताकीद करता है कि कला कभी पुरानी नहीं होती। शहर से दूर किसी कोने में खड़ी खंडहर हो चुकी इमारतों में आने-जाने वाली भीड़ यही बताती है कि पारंपरिक धरोहरों और विरासतों की गोद में बैठकर सुकून इसलिए मिलता है, क्योंकि ये पूर्वजों की देन है। यही वजह है कि जब ताजमहल के मुख्य गुंबद और मीनारों का रंग बदरंग हो जाने की खबर आई तो निराशा हुई। विश्व विरासत में शुमार सीरिया के हजारों साल पुराने शहर ‘अलेप्पो’ के उजाड़ होने की खबर आते ही सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो गई। वरिष्ठ शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल कहती हैं, ‘जो पुरानी कही जा रही हैं उन्हीं में नवसृजन के बीज छुपे होते हैं। उनसे प्यार होना स्वाभाविक है पर इस प्यार को जाया न होने दें। आइए उन्हें फिर से संवारने की पहल करें।'
कबीर हो जाएंगे आप भी
‘मां बुजुर्ग हो जाए, तो क्या मां शब्द का अर्थ बदल जाएगा?’पूछते हैं कबीरपंथी गायन परंपरा को नए रंग और खास शैली से जीवंत बनाए रखने वाले गायक पद्मश्री डॉक्टर भारती बंधु। कबीर की सीख, मर्म, वैभव, फक्कड़पन, अल्हड़ता और गंभीरता के अलावा जो चीज उनके गायन को खास बनाती है वह भारतीय काव्य का वैभव और शास्त्रीय संगीत का वैविध्य है। सब कुछ एकसाथ मिलना मुश्किल है पर इस कठिन काम को वे अपने अंदाज में पूरा कर रहे हैं। वे कहते हैं, ‘कबीर को सुनें तो आप भी कबीर हो जाएंगे। जब अपनी पुरानी परंपरा में इतनी जान है तो उसे नया बनाने की बात क्यों सोची जाए? अमीर खुसरो, रूमी या फिर कबीर को जितना जानेंगे तो समझ पाएंगे कि विरासतों को संजोने-संभालने की जरूरत क्यों है?’ भारती बंधु की छह पीढ़ी इस पंरपरा से जुड़ी रही हैं और यह लगातार बढ़ रही है। कबीरपंथी परंपरा से युवाओं का जुड़ना इसे और खास बनाता है। भारती बंधु कहते हैं, ‘युवाओं में कबीर को सुनने-जानने का उत्साह गजब का है। वे भी इस परंपरा से जुड़कर इसे आगे तक ले जाने की इच्छा रखते हैं।’
धुन सहेजने की धुन
सुरेश चंदवंकर मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में साइंटिस्ट रहे हैं, पर एक दिन उन्होंने सिर्फ इसलिए स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली क्योंकि उन्हें पुराने हिंदी फिल्मी गानों से लगाव था। यह लगाव कब ग्रामोफोन रिकॉर्ड संग्रह में बदल गया यह उन्हें खुद नहीं मालूम। सुरेश के मुताबिक, ‘जब पुराने ग्रामोफोन रिकॉड्र्स दुर्लभ हो रहे थे और ऑडियो कैसेट्स बाजार में आ रहे थे, तो मैंने सोचा कि अगर कोई इनको संभालकर नहीं रखेगा तो आने वाली पीढ़ी को ये मालूम ही नहीं होगा कि हमारे देश में ऐसे रिकॉर्ड भी बने थे। मैंने यहां-वहां देखा तो मेरे जैसे बहुत लोग थे जिनके पास रिकॉड्र्स का कलेक्शन था। मैंने सोचा कि अगर हम सब मिलकर कोशिश करें तो इन ग्रामोफोन रिकॉर्ड्स में दर्ज इस सांस्कृतिक धरोहर को आने वाली पीढ़ी के लिए बचाकर रख सकते हैं।’ आज मुंबई के सोसायटी ऑफ इंडियन कलेक्टर्स नामक संगठन की मदद से उन्होंने न केवल हजारों ग्रामोफोन रिकॉर्ड्स को सुरक्षित रखा है बल्कि वैज्ञानिक से कला प्रेमी बन चुके सुरेश देश और दुनियाभर में इस धरोहर के प्रति लोगों
को जागरूक कर रहे हैं।
अतीत की जीवंत पेशकश
जब पुरानी शास्त्रीय संगीत विरासत को नए अंदाज में मंच पर उतारा जाए तो वह दौर जीवंत हो उठता है, जिसे पीढ़ियों ने देखा भी नहीं। यह अपने तरह का प्रयोग है, जिसे वरिष्ठ शास्त्रीय संगीत गायिका शुभा मुद्गल ने शुरू
किया है। वे कहती हैं, ‘शास्त्रीय संगीत परंपरा को हमने पुरानी अभिलेखीय सूचनाओं के रूप में पेश करने की कोशिश की है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत परंपरा 20वीं सदी में कैसी थी, कैसा था स्वरूप, यह सब जानना रोमांच और कौतुहल का विषय है। हमने तकरीबन 78 पुराने अभिलेखीय रिकॉर्ड को उसी रूप में मंच पर उतारने की पहल की है। लोग इन्हें खूब पसंद कर रहे हैं।’ विरासतों से प्यार और उन्हें मंच पर उतारने के इस कार्य को शुभा मुद्गल ने युवा साथी कलाकारों की मदद से पूरा किया है और इसकी खूबसूरती में चार चांद लगाने का काम किया है फैशन डिजाइनर रोहित बल ने। उन्होंने मंच पर उपस्थित कलाकारों के कॉस्ट्यूम डिजाइन किए जो कि इसे और भव्यता प्रदान करते हैं। यही वजह है कि पुरानी पीढ़ी के कद्रदान तो इसे पसंद कर ही रहे हैं, युवा भी इसकी ओर खूब आकर्षित हो रहे हैं।
कला बन गई फैशन
पट्टचित्र यानी कपड़े पर बनाई जाने वाली चित्रकारी। उड़ीसा की इस परंपरागत कला की हालत बहुत अच्छी नहीं है। इससे संबंधित कलाकारों को देखकर यह बात कही जा सकती है लेकिन कुछ प्रयोग और पहल से इनकी हालत बदल रही है। बंगलुरू स्थित फैशन डिजाइनर डोली पारेख ने जरदोजी में पट्टचित्र को शामिल कर परिधान में उतारने का काम किया है जिसकी खूब मांग है। उनके मुताबिक, ‘यह पुरातन कला खुद में काफी जटिल है। परंपरागत कलाकारों को कपड़ों पर की जाने वाली इस महीन चित्रकारी के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है। यह देखकर मैंने सोचा क्यों न इस कला को फैशन की दुनिया में उतारा जाए। इसका परिणाम अद्भुत रहा है जिसे लोगों
ने हाथोंहाथ लिया है।’
समझते हैं अपनी जिम्मेदारी
कठपुतली कला को संजोने और नए जमाने के अनुरूप ढालने का काम कर रहे हैं युवा कलाप्रेमी अनुराग चौहान।
वे अपने संगठन ह्यूमैन फॉर ह्युमैनिटी के जरिए इस परंपरागत कला से न केवल युवाओं को जोड़ रहे हैं बल्कि कठपुतली को ग्रामीण इलाकों से निकाल आधुनिक तबकों तक ले जाने का काम कर रहे हैं। अनुराग कहते
हैं, ‘अपनी विरासत के प्रति युवा भी कम जागरूक नहीं। कोई यदि यह समझता है कि युवा पीछे हैं तो यह उनका भ्रम हो सकता है। हम जानते हैं कि अपनी विरासत को आगे ले जाने का काम हमारा है।’
सीमा झा