बीमार न होने दें मन को, अपने मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सचेत हो जाएं
जब भी सेहत की बात होती है तो लोग शरीर से जुड़े तमाम मेडिकल टेस्ट करवाते हैं लेकिन मन की तरफ ज़रा भी ध्यान नहीं देते।
जब भी सेहत की बात होती है तो लोग शरीर से जुड़े तमाम मेडिकल टेस्ट करवाते हैं लेकिन मन की तरफ ज़रा भी ध्यान नहीं देते। इसी वजह से आजकल मनोवैज्ञानिक समस्याएं तेज़ी से बढ़ रही हैं। पिछले महीने 7 अप्रैल को वल्र्ड हेल्थ डे के अवसर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से डिप्रेशन पर विस्तृत चर्चा की गई। ऐसे में सभी के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि हम अपने मानसिक स्वास्थ्य के प्रति सचेत हो जाएं।
चाहे बुखार हो या सिरदर्द, किसी भी शारीरिक बीमारी के लक्षण दिखते ही हम तुरंत डॉक्टर से सलाह लेते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि शरीर की तरह कभी हमारा मन भी बीमार हो सकता है और उसे भी पूरी देखभाल की ज़रूरत होती है। शरीर की भांति हमारा मन भी अलग-अलग लक्षणों के ज़रिये इस बात का संकेत दे रहा होता है कि उसे कोई तकलीफ है, जिसे सही समय पर दूर करना आवश्यक है लेकिन जागरूकता के अभाव में हम इसके लक्षणों को पहचान नहीं पाते। मेंटल हेल्थ को लेकर आज भी समाज में ऐसा टैबू बना हुआ है कि कई बार लोग इसके लक्षणों को जानबूझकर नज़रअंदाज़ करने की कोशिश करते हैं, जो आगे चलकर किसी गंभीर मनोरोग का रूप धारण कर लेते हैं। आइए हम यहां एक नज़र डालते हैं, कुछ ऐसे मामूली दिखने वाले लक्षणों पर, जिन्हें लंबे समय तक नज़रअंदाज़ करने पर वे किसी गंभीर मनोरोग में बदल सकते हैं। इन समस्याओं के संदर्भ में सबसे ज़रूरी बात यह है कि इनसे पीडि़त व्यक्ति को स्वयं इसके लक्षणों का आभास नहीं होता। ऐसी स्थिति में परिवार वालों और दोस्तों की यह जि़म्मेदारी बनती है कि अगर उन्हें अपने आसपास किसी व्यक्ति में यहां बताए गए लक्षण दिखाई दें तो वे बिना देर किए उसे क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट के पास ले जाएं।
खतरनाक है शक की सूई:
आपने अपने आसपास कुछ ऐसे लोगों को ज़रूर देखा होगा, जिन्हें अकसर शक्की या सिरफिरा समझा जाता है। ऐसे लोगों के मन में कुछ बातों को लेकर इतना गहरा भ्रम होता है कि वे उसे ही सच मानने लगते हैं। मसलन कुछ लोगों को ऐसा भ्रम होता है कि कोई उनका पीछा कर रहा है या उनके खिलाफ साजि़श रच रहा है, कुछ लोगों को अपने पार्टनर के चरित्र पर शक होता है, कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि मेरी अनुपस्थिति में लोग हमेशा मेरी बुराई करते हैं। अगर किसी व्यक्ति में ऐसे लक्षण बहुत ज्य़ादा दिखाई दें तो आगे चलकर उसे स्क्रिज़ोफेनिया भी हो सकता है।
क्या करें : अगर परिवार के किसी सदस्य में ऐसे लक्षण दिखाई दें तो अन्य सदस्यों की यह जि़म्मेदारी बनती है कि वे जल्द से जल्द किसी मनोचिकित्सक की सलाह लें। अगर शुरुआती दौर में ही उपचार शुरू हो जाए तो व्यक्ति शीघ्र ही स्वस्थ हो जाता है।
उदासी में छिपा है डिप्रेशन:
किसी भी इंसान के जीवन में थोड़ी उदासी स्वाभाविक है, लेकिन जब ऐसी मनोदशा दिनों के बजाय महीनों तक कायम रहे और इससे व्यक्ति की दिनचर्या प्रभावित होने लगे तो यह डिप्रेशन का लक्षण हो सकता है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि परिवार के सदस्य और दोस्त ऐसे मरीज़ों को बोरिंग और आलसी कह कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं। डिप्रेशन बढऩे की स्थिति में मरीज़ आत्महत्या तक कर लेते हैं।
क्या करें : अगर परिवार का कोई सदस्य लगातार कुछ दिनों तक उदास दिखाई दे तो पहले उससे बात करके उसकी उदासी का कारण जानने और उसे दूर करने की कोशिश करें। अगर पंद्रह दिनों तक कोई सुधार नज़र न आए तो उसे विशेषज्ञ के पास ले जाएं। अगर शुरुआत में मरीज़ को हलका डिप्रेशन हो तो यह समस्या केवल काउंसलिंग से दूर हो जाती है पर ज्य़ादा गंभीर स्थिति में दवाओं की भी ज़रूरत होती है।
चिंता है सेहत की दुश्मन:
चिंता को हमारे सामाजिक व्यवहार में नकारात्मक मानसिक प्रक्रिया की श्रेणी में रखा जाता है। किसी की बीमारी की खबर सुनकर उसके लिए चिंतित होना स्वाभाविक है पर जब यही चिंता व्यक्ति का स्थायी भाव बन जाए तो यह एंग्ज़ाइटी डिसॉर्डर का रूप धारण कर लेती है।
आमतौर पर इसे दो भागों में बांटा जाता है- जनरलाइज्ड़ एंग्ज़ाइटी डिसॉर्डर : इस स्थिति में लोगों को किसी भी बात पर चिंता होती है लेकिन लगातार चिंता की मन:स्थिति में रहने से व्यक्ति की कार्यक्षमता घटने लगती है और उसके जीवन में उदासीनता भर जाती है।
स्पेसिफिक एंग्ज़ाइटी :
इसमें व्यक्ति को किसी खास वस्तु या परिस्थिति से परेशानी होती है।
इसे फोबिया का भी नाम दिया जाता है। कुछ लोगों को स्टेज, ऊंचाई या पानी से डर लगता है। इसी तरह कुछ लोगों को सोशल फोबिया की भी समस्या होती है। ऐसे लोग सामाजिक समारोहों में जाने से घबराते हैं। इस समस्या से ग्रस्त लोग स्वयं को हमेशा ऐसी परिस्थितियों से दूर रखने की कोशिश करते हैं, जहां जाने से उन्हें डर लगता है।
क्या करें : अगर आपको ऐसा महसूस हो कि ऐसी आदतों की वजह से आपके किसी करीबी व्यक्ति की रोज़मर्रा की जि़न्दगी प्रभावित हो रही है तो उसे विशेषज्ञ की सलाह की ज़रूरत है। दवाओं और काउंसलिंग से यह समस्या दूर हो जाती है।
भुलक्कड़पन है खतरनाक:
कभी-कभी कुछ बातें भूल जाना तो सामान्य है, लेकिन अगर 50 वर्ष से अधिक उम्र का व्यक्ति लोगों के नाम, पते और चेहरे भूलने लगे या घर में अकसर अपनी चीज़ें रखकर उनका निश्चित स्थान भूल जाए तो यह खतरे का संकेत है। उम्र बढऩे के साथ मस्तिष्क की कोशिकाएं सिकुड़कर छोटी होने लगती हैं। इससे उसकी कार्यक्षमता कम हो जाती है और व्यक्ति को शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस की समस्या होने लगती है। ऐसे में व्यक्ति को अपने स्कूल के दिनों के सभी दोस्तों के नाम सही ढंग से याद रहते हैं पर वे आधे घंटे पहले मिलने वाले व्यक्ति का नाम भूल जाते हैं। यह मस्तिष्क से जुड़े गंभीर मनोरोग डिमेंशिया का लक्षण हो सकता है। अगर सही समय पर इसका उपचार न करवाया गया तो यह आगे चल कर अल्ज़ाइमर्स में तब्दील हो सकता है।
क्या करें : अगर आपके परिवार का कोई सदस्य अकसर भूलने लगे तो इसे बुढ़ापे के आगमन का संकेत समझकर अनदेखा न करें, बल्कि जितनी जल्द हो सके उसे किसी कुशल न्यूरोसर्जन को दिखाएं। दवाओं के प्रभाव से ब्रेन के डिजेनरेशन की प्रक्रिया को लंबे समय तक टाला जा सकता है।
इस सनक से भी बचें:
परफेक्शनिस्ट होना अच्छी बात है लेकिन कुछ लोग बेहतर परिणाम के लिए एक ही क्रिया अनगिनत बार दोहराते हैं। यही आदत ओसीडी (ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसॉर्डर) का कारण बन जाती है। जैसा कि इसके नाम से ही ज़ाहिर है, इस समस्या से ग्रस्त व्यक्ति के मन में बार-बार एक ही खयाल आता है। फिर वह उसी से जुड़ी क्रियाएं भी बार-बार दोहराने लगता है। ऐसी सोच और क्रियाओं पर व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं होता। मिसाल के तौर पर अगर किसी के मन में सफाई का खयाल आता है तो वह बार-बार अपने हाथ धोता रहता है। अपने आसपास मौज़ूद ऐसे लोगों को हम अकसर सनकी मान कर उन पर नाराज़ होते हैं मगर याद रखें, वे बीमार हैं और उन्हें हमारी मदद और उपचार की ज़रूरत है।
विनीता
इनपुट्स : डॉ. नंद कुमार, एडिशनल प्रोफेसर, डिपार्टमेंट ऑफ साइकायट्री, एम्स, दिल्ली