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उर्दू भी हमारी हिंदी भी हमारी!

एक समय जब न तो उर्दू थी और न ही हिंदी थी तो उस बोली को ‘हिंदवी’ कहा जाता था। इसे फिर ‘रेख्ता’ का नाम भी दिया गया।

By Babita KashyapEdited By: Published: Mon, 27 Feb 2017 01:16 PM (IST)Updated: Mon, 27 Feb 2017 01:32 PM (IST)
उर्दू भी हमारी हिंदी भी हमारी!
उर्दू भी हमारी हिंदी भी हमारी!

जो लोग उर्दू को मुस्लिमों की और हिंदी को हिंदुओं की भाषा मानते हैं, न केवल वे संकीर्णतावादी हैं बल्कि उग्रवादी हैं क्योंकि इन दोनों भाषाओं में जो समता व समानता है, वह न तो उर्दू व फारसी में है और न ही संस्कृत और हिंदी में । एक समय जब न तो उर्दू थी और न ही हिंदी थी तो उस बोली को ‘हिंदवी’ कहा जाता था। इसे फिर ‘रेख्ता’ का नाम भी दिया गया। वैसे मुनव्वर राना ने भी क्या खूब कहा है, ‘लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है, मैं उर्दू में गजल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है।’

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पिछले तीन वर्ष से हिंदी व उर्दू वालों के संबंध में एक बड़ा रोचक और खुशगवार बदलाव आया है, ‘जश्न-ए-रेख्ता’! यह एक ऐसा जश्न है कि जिसने न केवल उर्दू-हिंदी भाषाओं को एक सिलसिले में पिरोया है बल्कि हिंदुओं और मुसलमानों को भी जोड़ा है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसने दिलों को जोड़ा है। 

इस जश्न से पूर्व भाषाओं के मेले प्राय: वीरान और नीरस से हुआ करते थे मगर शाबाशी देनी होगी हमें उर्दू के प्रशंसक और हिंदी के हितैषी संजीव सराफ को जिन्होंने इन भाषाओं में ऐसी जान फूंकी है कि लोग अन्य सभी मनोरंजनों को भूल तीनों दिन यहीं गुजारते हैं। यूं तो भाषाओं पर विश्व भर में नाना प्रकार के मेले हुआ करते हैं मगर, जश्न-ए-रेख्ता जैसा जीवंत भाषाई मेला अब तक कहीं देखने में नहीं आया।

वास्तविकता तो यह है कि उर्दू व हिंदी इतनी घुल-मिल गई हैं कि उनकी भिन्नता ही लगभग सिवाय लिपि के समाप्त हो चुकी है, जिसका उदाहरण हमें प्रो. कलीम कैसर की इन पंक्तियों में मिलता है, ‘जबान-ए-यार समझने की धुन में कैसर/जो अपने पास थी, वह भी जबान भूल गए!’ इसका अर्थ यह है कि हिंदी-उर्दू भाषाओं का मिलन इतना खूबसूरत होता है कि हम अपनी भाषा भूल कर एक रंगीन प्यार की भाषा बोलने लगते हैं। कलीम कैसर की विशेषता यह भी है कि उन्होंने हिंदी में भी गजल कही है और उनके गजल स्टाइल को प्रख्यात हिंदी कवि गोपाल दास नीरज ने इतना पसंद किया कि यहां तक कह दिया कि अगर हिंदी में गजल लिखना हो

तो कलीम कैसर के स्टाइल को अपनाया जाए।

जहां तक हिंदी-उर्दू मिलन का प्रश्न है, उर्दू के नामचीन शायर, मोईन शादाब ने अपने एक दोस्त शायर के हवाले से कहा, ‘उर्दू भी हमारी है, हिंदी भी हमारी है/एक खालिदा खानम है, एक राजकुमारी है!’’ उनका कहना है कि जिस प्रकार से हिंदी और उर्दू को जश्न-ए-रेख्ता में बहनें बनाकर पेश किया गया है, उससे सभी झूम उठे। कुछ इसी प्रकार की बात मुंशी प्रेमचंद के पौत्र और हिंदी जगत के स्तंभ आलोक राय ने भी कही कि अगर हिंदू आंधी है और मुस्लिम तूफां तो आओ आंधी और तूफां मिल के कुछ नया करें। जश्न-ए-रेख्ता के बारे में वर्तमान युवा पीढ़ी

के कवि कुमार विश्वास ने भी हिंदी और उर्दू के बारे में कहा, ‘हिंदी मां का जाया हूं, मौसी के घर आया हूं’। वरिष्ठ सलाहकार प्रो. अनीसुर्रहमान के मुताबिक, इस वर्ष तीन दिन में हिंदी व उर्दू के लगभग 3 लाख चाहने

वाले जश्न-ए-रेख्ता में आकर जिंदगी के भरपूर मजे लूट ले गए। इस जश्न की सबसे बढ़िया व जानदार बात उन्हें यह लगी कि इन तीन लाख लोगों में न केवल कालेज बल्कि स्कूल के युवाओं ने भी बढ़-चढ़ कर

भाग लिया जिससे पता चलता है कि हमारी भाषाएं जिंदा रहेंगी।

हिंदी-पंजाबी का भी बोलबाला

मजे की बात यह है कि इस जश्न में उर्दू और हिंदी के अतिरिक्त पंजाबी की धुनों और सुरों ने भी अपनी सतरंगी बहारें बिखेरीं। सूफी गायक हंस राज हंस ने जो समां बांधा उसके जादू से लोग झूमने लगे। उनका यह पंजाबी गीत बड़ा पसंद किया गया, ‘नित खैर मंगा। सोंणेयां मैं तेरी। दुआ न कोई होर मंगदीं।’

जब जिक्र हिंदी जबां का है तो गजल गायकों, ध्रुव संगारी और और विद्या शाह के बिना बात पूरी न हो पाएगी। बड़ी हैरानी होती है कि जब हम संगारी की शुद्ध उर्दू की नुक्ते वाली आवाजों को सुनते हैं, अर्थात उनका उर्दू उच्चारण वास्तव में वरिष्ठ उर्दू वालों से भी साफ-सुथरा है। यही नहीं ध्रुव को पंजाबी सूफी कलाम में भी उतनी ही महारत हासिल है कि जितनी हिंदी व उर्दू पर। वे बंगला, कन्नड़ और गुजराती की भी बढ़िया जानकारी रखते हैं। अभी हाल ही में सिंध में सूफी संत बाबा लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह पर बम कांड से आहत उन्होंने जो सूफियाना कलाम सुनाया तो लोगों की आंखों से आंसू थमने का नाम न लेते थे।

जब जोशी का जादू सिर चढ़ कर बोला इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला सभागार, इंडिया गेट, दिल्ली में इस तीन दिवसीय रंगारंग भाषाई मेले में विश्व विख्यात हिंदी कवि व गीतकार प्रसून जोशी ने जो सुरों की लय बांधी तो लोग ऐसे मंत्र मुग्ध हो गए कि उन्हें पता ही न चला कि मिठास की यह बयार आखिर आ कहां से रही है और इसकी भाषा क्या है! ठीक ही कहा है खलील जिब्रान ने कि सुर और शायरी का कोई धर्म नहीं होता। जिस प्रकार से प्रसून ने उर्दू की महफिल में हिंदी के गुल खिलाए, उर्दू वालों ने उन्हें झुक-झुक सलाम किया। उन्होंने अपने एक गीत में घर में मां और पिता के किरदार पर टिप्पणी करते हुए, मां की कुर्बानियों का जो तांता बांधा और साथ ही साथ बेचारे पिताओं पर मधुर कटाक्ष किया, उसका श्रोताओं ने भरपूर लुत्फ लिया।

दीवान-ए-आम पांडाल में बैठे सभी लोगों के समक्ष प्रसून ने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात शायरी के संबंध में कही। उन्होंने कहा कि शायरी का जो अंदाज-ए-बयां होता है, दिल पर उसका सबसे बड़ा असर पड़ता है। राजनेता भी संसद के दोनों सदनों में प्राय: शायरी का सहारा ले अपनी बात में जान डालने के लिए और विपक्ष को जीत लेने के लिए उर्दू व हिंदी का सहारा लेते देखे गए हैं। प्रसून ने कहा कि अब समय आ गया है कि ये राजनेता शायरी को पाठ्यक्रम का भाग बनाएं ताकि बच्चों के मस्तिष्क का सर्वांगीण विकास हो।

इश्किया शायरी में उर्दू की टक्कर नहीं जिक्र शायरी का हो तो इश्किया उर्दू शायरी की बात करना यहां अति आवश्यक होगा। ‘इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया/वर्ना हम भी आदमी थे काम के!’

जब फरहत एहसास, शीन काफ निजाम, अशोक चक्रधर और अंबर बहरायची ने इश्क की डोर श्रंगार रस से जोड़ी तो ‘दीवान-ए-खास’ में बैठे सभी श्रोताओं ने पूर्ण रूप से उसका रसास्वादन लिया। लेखक को पक्का विश्वास है कि इस संगोष्ठी में उपस्थित सभी लोग वास्तव में खुशनसीब थे कि इन धुरंधरों को सुन बैठे। बातों-बातों में अकबर इलाहाबादी का शेर आया, ‘ताल्लुक आशिक-ओ-माशूक का तो लुत्फ रखता था/मजे अब वो कहां बाकी रहे, मियां बीवी हो कर!’ इसी संदर्भ में बशीर बद्र का यह शेर भी देखा जाए, ‘वो चांदनी का बदन, खुशबुओं का साया/बहुत अजीज है हमें, मगर पराया है!’ जरा

फैज अहमद फैज के इस शेर को भी देख लें कि ‘दोनों जहां तेरी

मुहब्बत में हार के/वो जा रहा है कोई शब-ए-गम गुजार के!’

यहां बड़ी नाइंसाफी होगी कि अगर मामला इश्क का हो और जिगर मुरादाबादी के इस शेर का हवाला न दिया जाए, ‘यह इश्क नहीं आसां, इतना समझ लीजे/ इक आग का दरिया और डूब के जाना है!’। मामला इश्क का कुछ ऐसा है कि एक बार शुरू हो जाए तो थमना आसां नहीं, जैसे अख्तर शीरानी का यह शेर है, ‘रस भरी आंखों में हया खेल रही है/दो जहर के प्यालों में कजा खेल रही है’। जरा ठहरिए, क्या बिना अंगड़ाई के इश्किया शायरी के पूर्ण हो सकती है? प्रेम कुमार ‘नजर’ ने कहा है, ‘एक अंगड़ाई से सारे शहर को नींद आ गई/ यह तमाशा मैंने देखा बाम पर होता हुआ!’। किसी गुमनाम शायर की पंक्ति है, ‘जो अंगड़ाई उन्होंने ली तो शायरों ने अपनी कलम तोड़ दी।’

एक जश्न-ए-हिंदी भी होना चाहिए

उर्दू के दूल्हा, संजीव सराफ ने जश्न-ए-रेख्ता की जिन खुशबुओं के जरिए तीन दिन हिंदी, उर्दू एवं पंजाबी के चाहने वालों को एक ही शामियाने के तले जमा कर लिया, लेखक की इच्छा है कि एक ऐसा जश्न-ए-हिंदी वह भी दिल्लीवासियों के लिए करें जिसमें उर्दू बाजार की माफिक हिंदी बाजार हो। उर्दू बाजार में जो दुकानें लगाई गईं उनमें ‘इश्क उर्दू’, ‘आरटीकाइट’ के अतिरिक्त खत्ताती, फेस पेंटिंग, ओरिगेमी, कठपुतली आदि के अतिरिक्त इरशाद हुसैन फारूकी द्वारा लकड़ी पर बनाई जबर्दस्त खूबसूरत कृतियां भी थीं। यही नहीं, ‘अम्बरीन परफ्यूम द्वारा नाना प्रकार के इत्र भी फरोख्त किए गए।

हिंदी एवं उर्दू की किताबों के बहुत से स्टाल भी थे। पेट पूजा का बढ़िया प्रबंध था। पुरानी दिल्ली के पकवानों के अतिरिक्त हैदराबादी, कराची, पंजाबी, गुजराती, बंगाली, बंजारा आदि पकवानों से भी लोग लुत्फअंदोज हो रहे थे। जहां टुण्डे कबाबी के नर्म कबाब मुंह में घुल जाते थे तो उधर ‘शीरीं भवन’ और इल्हाम की मिठाइयां भी खूब चल रही थीं। जो यहां आया उसे वे लम्हे यादगारी हो गए।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं मौलाना आजाद के पौत्र हैं)

ए-202, अदीबा मार्केट व अपार्टमेंट्स, मेन रोड, जाकिर नगर,

नई दिल्ली-110025

फिरोज बख्त अहमद


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