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एकाधिकार की निस्सारता

आदिकाल से संचित होते आ रहे ज्ञान का अक्षयकोष तो पूरी मानवता की थाती है। इस पर वैयक्तिक एकाधिकार की अवधारणा और आग्रह को कूप-मंडूकता नहीं तो और क्या कहेंगे!

By Babita KashyapEdited By: Published: Tue, 07 Mar 2017 11:02 AM (IST)Updated: Tue, 07 Mar 2017 11:12 AM (IST)
एकाधिकार की निस्सारता
एकाधिकार की निस्सारता

लोग छेनी की तरह होते हैं, जो दिमाग की सिल पर एक ही मुलाकात में निशान छोड़ जाते हैं जबकि कुछ रस्सी की तरह होते हैं जो समय के साथ निशान बनाते हैं। प्रोफेसरी के इस लंबे जीवन में ऐसे कई निशान डॉ. महतो के दिमाग में हैं जिनमें से कई अब देश में ही बड़े पदों पर हैं तो कई विदेश में शोध कर रहे हैं। मनन से कॉलेज में जब वह पहली बार मिले, तब वह उन्हें एक आम छात्र ही लगा था। बाद में मनन उनके मार्गदर्शन में ही शोध कार्य करने लगा। बस तभी से उसके खुले और परिपक्व विचारों की रस्सी डॉ. महतो पर अपने निशान बनाती चली गई। मनन उम्र में उनसे बहुत छोटा था पर अनुभव में नहीं। जाने उसमें क्या था? अच्छा व्यक्तित्व या अच्छी वक्तव्य कला या उसकी आंखों से झलकती उसके विचारों की गहराई, वह इतनी आसानी से अपने विचारों की नदियां बहाता चलता, जैसे इनका उद्गमस्रोत भी वही हो।

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वह डॉ. महतो के सामने भी ऐसा ही करता, पर यह बात ऐसे प्रतिभावान छात्र का गुरु होने का गर्व महसूस कराने की जगह डॉ. महतो को उससे दूर करती। उन्हें लगता कि वे जाने-माने प्रोफेसर हैं, जिनसे आवश्यकतानुसार शासक-प्रशासक भी राय लिया करते हैं और ये कल का छोकरा उनसे ही तर्क करने पर उतारू हो जाता है। ऐसा नहीं था कि हर वक्त मनन के तर्क सही ही होते लेकिन उससे तर्क कर उसकी प्रतिभा को तराशने और गुरु होने का दायित्व निभाने की जगह डॉ. महतो न चाहते हुए भी कई बार उसके विचारप्रवाह को बांध ही देते, परंतु क्या कोई बंधन कभी बहते जल के प्रवाह को सदा के लिए रोक सका है?

उसकी मौजूदगी डॉ. महतो को कभी-कभी खिजाती लेकिन नामौजूदगी उसकी प्रतिभा को सराहने पर विवश करती। उनके मन के गह्वर में उमड़ आते इन विरोधी विचारों और अनिच्छा के भंवरों के बावजूद, जाने वे कैसी धाराएं थीं जिनमें बहते हुए मनन उनका प्रिय बनता चला गया। यहां तक कि उन्होंने उसे शोध कार्य हेतु अपने निजी पुस्तकालय का लाभ लेने की अनुमति भी दे दी, जहां पूरे देश से संग्रहीत दुर्लभ पांडुलिपियां और पुस्तकें उन्होंने जमा कर रखी थीं।

डॉ. महतो के ऐसे समृद्घ संग्रह को देखते हुए मनन कुछ दुर्लभ पुस्तकों को पाकर खुशी से किलक उठा। कुछ दिन तो वह किसी पुरानी शराब की तरह पुस्तकों को घूंट-घूंट पीता हुआ, इस पुस्तकालय के नशे में रहा। जब वह कुछ 

प्रकृतिस्थ हुआ तो उसने डॉ. महतो से कहा, ‘सर! आप तो दुर्लभ पुस्तकों के अकूत भंडार के स्वामी हैं। इन सबको तो पुस्तकालयों में सहज उपलब्ध होना चाहिए। सर, यदि आप मुझे अनुमति दें तो मैं इनकी फोटोकॉपी कराना चाहता हूं।’ यह सुनते ही डॉ. महतो की स्थिति ‘काटो तो खून नहीं’ की हो गई। वह उस घड़ी को कोसने लगे जब उन्होंने मनन को अपने निजी पुस्तकालय के उपयोग की अनुमति दी थी। उनके लिए यह दुर्लभ संग्रह ही खुद को महत्वपूर्ण महसूस कराने का कीर्तिस्तंभ था। कई बार इसी ने उन्हें देश-प्रदेश में पहचान दिलाई थी। कालांतर में उनके लिए उनकी विद्वता नहीं अपितु यह पुस्तक संग्रह ही उनका आत्मविश्वास, उनकी शक्ति और उनकी संपत्ति बन गया था। वह अपनी शक्ति, संपत्ति सारे लोगों में बांटने की बात सोचकर ही संज्ञाशून्य से हो गए।

जब डॉ. महतो का मनसागर इस प्रस्ताव से उपजे विचारों के भीषण चक्रवातों का सामना कर रहा था, तब मनन आशा भरी नजरों से उन्हें देख रहा था। वह उससे कैसे कह सकते थे कि अपनी महत्ता बनाए रखने के लिए मैं इन्हें सर्वसुलभ नहीं बना सकता। अंतत: उन्होंने मनन से कहा, ‘कलम सिर्फ उन हाथों में उपयोगी होती है जो इससे लिख सकें। इसे सर्वसुलभ बना देने से सारे लोग लिखना नहीं सीख सकते। यह तो संसाधनों की बर्बादी मात्र होगी।’ इस पर मनन बोला, ‘सर, जब इंसान पहली बार कलम पकड़ता है, तब उसे लिखना नहीं आता, यदि लिख सकने वाले को ही कलम देने की शर्त रख दी जाए, तब तो कोई भी लिखना नहीं सीख सकता।’

डॉ. महतो के पास इस सही बात का कोई जवाब नहीं था लेकिन उनके पास शोध मार्गदर्शक होने का हथियार था। उन्होंने मनन के हाथों में पकड़ी दुर्लभ पांडुलिपि ले ली, उसे डपटते हुए कहा, ‘मैंने तुम्हे शोध कार्य के लिए पुस्तकालय के उपयोग की अनुमति दी है इसे सहज उपलब्ध बनाने की पैरवी करने के लिए नहीं, तुम अपना

काम करो।’ 

मनन ने अपनी गहरी आंखों में लबालब भरे  हुए अविश्वास से डॉ. महतो को देखा। इन नजरों की सच्चाई का सामना करने की शक्ति उनमें न थी। वे हाथ में ली पांडुलिपि को सही जगह रखने मुड़ गए। उन्हें मनन की आंखें पीठ में चुभ रहीं थीं। अगले ही दिन उन्होंने मनन को शोध कार्य कराने से भी इंकार कर दिया। यह मनन के लिए तड़ित प्रहार सी ताड़ना थी, जिस पर उसका भविष्य भी दांव पर लग रहा था। मनन कुछ दिन तक उन्हें मनाता रहा। उनसे माफी मांगता रहा पर वे पुस्तकों से निर्जीव हो गए। पुस्तक- जिनमें दुनिया के सारे एहसास होते हैं फिर भी वे सारे एहसासों से परे होती हैं। आखिर एक दिन मनन चला गया। उनके पुस्तकालय में सैकड़ों पुस्तकें बढ़ गईं लेकिन धीरे-धीरे उन्हें मनन की वही आंखें अपनी पीठ पर गड़ती महसूस होने लगीं।

गुजरते वर्षों में कई शोधार्थियों ने उनके मार्गदर्शन में शोध किया। मनन के बाद उन्होंने किसी विद्यार्थी को अपने पुस्तकालय का लाभ  उठाने की अनुमति नहीं दी। डॉ. महतो अपने शोधार्थियों को शोधकार्य में जुटे देखते रहते। वह देखते कि उनके शोधार्थी घंटों कंप्यूटर पर काम करते हैं। जाने क्या पढ़ते रहते हैं? एक दिन उन्होंने अपने किले के द्वार की अर्गला खोल दी। अपने एक शोधार्थी से पूछ लिया कि वह कंप्यूटर में दिनरात् ा क्या करता रहता है? और सहसा उनके सामने जैसे जानकारियों का समंदर लहरा उठा। उन्होंने सोचा था कि वे एक प्रश्न में अगत्स्य मुनि की तरह कंप्यूटर के सागर को सोख लेंगे लेकिन उन्हें पता चला कि इसमें तो कई नदियां आकर मिलती

जा रही थीं। उस शोधार्थी ने उन्हें बताया कि वह कंप्यूटर पर संदर्भ ग्रंथों का अध्ययन करता है।

वह इंटरनेट पर विषय से संबंधित एक समूह का सदस्य भी है, जहां लोग अपने शोधों से संबंधित सारी बातें साझा करते हैं। उसने उन्हें भी अपना एक ब्लॉग शुरू करने का सुझाव दे दिया। डॉ. महतो के लिए तो यह दुनिया का आठवां आश्चर्य था कि लोग कैसे इतनी आसानी से अपना ज्ञान बांट सकते है। उन्होंने अविश्वास से कहा, ‘तुम्हें विश्वास है कि लोग सही तथ्यों को साझा करते हैं?’ इस पर डॉ. महतो के दिमाग की दीवारों से अनजान उस शोधार्थी ने भोलेपन से कहा, ‘यहां विश्वास ही तो सब कुछ है सर, फिर बचपन से आप गुरुओं ने ही तो सिखाया था कि ज्ञान बांटने से बढ़ता है। समूह में सभी ऐसा ही सोचते है और करते हैं और अपना ज्ञान बढ़ाते हैं।’

एक बार इस पर बात शुरू हुई तो उनके बीच नई तकनीक के साथ-साथ, सूचनाओं की सहज उपलब्धता, इससे होने वाली सुविधा, इसके नुकसान सभी पर कई दिनों तक बात होती रही। उन्हें पता चला कि उनके पुस्तकालय की कई पुस्तकें जो राज्य में मिलनी तो दुर्लभ हैं लेकिन इंटरनेट पर सहज उपलब्ध हैं। उन्हें शिद्दत से इस विषय में अपनी अज्ञानता का ज्ञान हुआ। उनके ज्ञान-चक्षु खुलने लगे। उन्हें अपनी सोच पर ग्लानि महसूस होने लगी। ज्ञान स्रोतों पर एकाधिकार की निस्सारता का अहसास हो गया, अंतत: उन्होंने अपनी सारी पुस्तकों की फोटोकॉपियां कॉलेज पुस्तकालय में दे दीं। राज्य पुस्तकालय से इन्हें ऑनलाइन करा दिया और अब वे इनसे प्राप्त ज्ञान को ब्लॉग के माध्यम से बांटते और खुद भी कई ब्लॉग फॉलो करते हुए ज्ञान अर्जित करते हैं। वे एक इंटरनेशनल ब्लॉगर्स मीट में भाग लेने ऑस्ट्रेलिया भी गए थे। अब मनन की आंखें उन्हें चुभती नहीं थी लेकिन एक कसक सी होती थी जो मनन के उज्ज्वल भविष्य में आए अवरोध के प्रति खुद को कसूरवार मानती थी।

जब वे ब्लॉगर्स मीट में भाग लेने ऑस्ट्रेलिया जा रहे थे तब यह कसक कुछ अधिक ही बढ़ गई थी। ऑस्ट्रेलिया में एयरपोर्ट पर डॉ. एम. के. घोष उनका स्वागत करने वाले थे जो कि इस मीट के आयोजकों में से एक थे और हॉवर्ड

विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। उनसे डॉ. महतो की इतिहास की कई अवधारणाओं पर इंटरनेट में चर्चा होती रहती थी। दोनों की ही कई अवधारणाएं इस चर्चा से बदल गई थीं। वह डॉ. घोष से मिलने के लिए बहुत उत्सुक थे। एयरपोर्ट में मिलते ही डॉ. महतो को डॉ. घोष ने नमस्कार किया और कहा, ‘सर! मुझे पहचाना आपने?’

प्रश्न पूछने के इस पल में डॉ. घोष की एक जोड़ी आंखें उन पर निबद्घ थीं। इन निबद्घ आंखों को देखते ही भाले की एक तीखी चुभन डॉ. महतो के सर्वांग में व्याप्त हो गई। हर्षातिरेक में उनकी आंखें भर आईं, वे अवरुद्घ कंठ से बोल उठे, ‘गुरु गुड़ ही रह गया और चेला शक्कर हो गया।’ उन्होंने चरणों की ओर झुकते डॉ. घोष को बीच में ही थामकर गले से लगा लिया। अब न कोई कसक थी न चुभन, बस बहती ज्ञानगंगा थी।

श्रद्धा थवाईत

(भारतीय ज्ञानपीठ युवा पुरस्कार से सम्मानित लेखिका की पहली कहानी पुनर्नवा में ही छपी थी।)

एफ-5, पंकज विक्रम अपार्टमेंट, शैलेंद्र नगर, रायपुर(छत्तीसगढ़)-492001


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