लघुकथा
अचानक से बीती बातें नजरों के आगे कौंधने लगीं लेकिन तुरंत उसने झटक के गोलगप्पे का प्लेट थाम लिया।
चोट
प्रेम को समर्पित अपने एक और काव्य संकलन के लिए पुरस्कार जीतकर गर्वित मन से घर लौट रही युवा लेखिका रागिनी का मन गोलगप्पे का स्टॉल देख फिर ललचा उठा और उसने गाड़ी झट से रोक दी। ‘‘पांच
रुपए के देना’’ पर्स संभालते हुए कहा ही था कि तभी वहां पहले से खड़े किसी से निगाहें मिल गईं। सुधीर। उसका पूर्व पति। अचानक से बीती बातें नजरों के आगे कौंधने लगीं लेकिन तुरंत उसने झटक के गोलगप्पे का प्लेट थाम लिया। पहला गोलगप्पा मुंह में डालते हुए पूछ बैठी ठेलेवाले से ‘‘भैया, तारा आकाश से टूट कर क्या पाता होगा?’’
आवाज में व्यंजना स्पष्ट थी। हकबकाए ठेलेवाले को पैसे देते हुए भावार्थ समझ चुका सुधीर मुस्करा उठा ‘‘भाई, किसी के आकाश का एक तारा बन के जीने से किसी का आकाश बन जाना ज्यादा सुखद है न।’’
सुधीर की बाइक को जाते देख रहे ठेलेवाले के चेहरे पर आश्चर्य गहरा चुका था और रागिनी की आंखों में आहत हुआ अहंकार।
कुमार गौरव अजीतेंदु द्वारा श्री नवेंदु भूषण कुमार शाहपुर (ठाकुरबाड़ी मोड़
के पास), दाऊदपुर पो. दानापुर (कैंट) पटना
रंग चोखा
‘यार मोहित, पहले तो शाम को तुझे दμतर से भागने की बड़ी जल्दी रहती थी। कहता था देर से निकलो तो मेट्रो पकड़ने से पहले सुरक्षा जांच के लिए खड़े लोगों की लंबी लाइन में लगना पड़ता है, मगर अब तो तुझे शाम को कोई हड़बड़ी नहीं होती। तू दμतर का समय खत्म होने के बाद भी पंद्रह-बीस मिनट तक यहीं बैठा रहता है। क्या वजह है
या इसकी?’
‘वो ऐसा है नितिन कि मुझे एक सूरदास जी
का सहारा मिल गया है।’
‘मतलब?’
‘मतलब यह कि साथ वाली बिल्डिंग के एक दμतर में काम करने वाले एक सूरदास शाम को मेट्रो पकड़ते हैं। जब वे अपनी बिल्डिंग से बाहर आते हैं तो मैं उनका हाथ पकड़कर उन्हें मेट्रो स्टेशन के अंदर तक ले जाता हूं और सुरक्षा जांच के लिए लगी लाइन के बिलकुल शुरू में चला जाता हूं। फिर उन्हें मेट्रो के डिब्बे तक छोड़ने की बात कहकर उसके साथ ही आगे निकल जाता हूं। इस तरह मुझे लाइन में भी नहीं लगना पड़ता और मैं घर भी जल्दी पहुंच जाता हूं। इसे ही कहते हैं हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा-ही-चोखा!’
हरीश कुमार ‘अमित’ 304, एम.एस.4, केंद्रीय
विहार, सेक्टर 56, गुड़गांव-122011 (हरियाणा)
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