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घर से दूर पढ़ाई जरूरत या दिखावा?

दिल्ली जैसी मेट्रो सिटीज के नामी संस्थानों में पढ़ने का सपना आमतौर पर हर स्टूडेंट का होता है। पैरेंट्स भी इसके लिए खासे परेशान रहते हैं। अच्छी पढ़ाई, बेहतरीन सुविधाएं और सबसे बड़ी बात बेस्ट प्लेसमेंट इसकी सबसे बड़ी वजह हो सकती है। पर क्या सभी के अरमान पूरे हो पाते हैं? जाने-माने संस्थान में एडमिशन न मिलने पर भी सिर्फ बाह

By Edited By: Published: Tue, 13 May 2014 10:50 AM (IST)Updated: Tue, 13 May 2014 10:50 AM (IST)

दिल्ली जैसी मेट्रो सिटीज के नामी संस्थानों में पढ़ने का सपना आमतौर पर हर स्टूडेंट का होता है। पैरेंट्स भी इसके लिए खासे परेशान रहते हैं। अच्छी पढ़ाई, बेहतरीन सुविधाएं और सबसे बड़ी बात बेस्ट प्लेसमेंट इसकी सबसे बड़ी वजह हो सकती है। पर क्या सभी के अरमान पूरे हो पाते हैं? जाने-माने संस्थान में एडमिशन न मिलने पर भी सिर्फ बाहर पढ़ने के नाम पर किसी भी इंस्टीट्यूट में दाखिला लेना कितना उचित है? बाहर पढ़ने की जिद आपकी जरूरत की बजाय कहीं महज दिखावा तो नहीं? अगर ऐसा है, तो सोचने की जरूरत है..

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देश के लाखों-करोड़ों स्टूडेंट्स में से कितनों को आइआइटी, एनआइटी, आइआइआइटी, डीयू, जेएनयू या इनके जैसे नामी-गिरामी संस्थानों में एडमिशन मिल पाता है? ब्रिलिएंट स्कॉलर्स को छोड़ दें, तो एवरेज या बिलो एवरेज के लिए क्या ऑप्शंस हैं ? दूर पढ़ने की चाह में आखिरकार इनमें से अधिकतर को उन प्राइवेट कॉलेजों में एडमिशन लेना पड़ता है, जो अपनी बाहरी चकाचौंध, हंड्रेड परसेंट प्लेसमेंट के दावे और जमकर की गई पब्लिसिटी के दम पर ऐसे स्टूडेंट्स को ग्रिप में लेने में कामयाब हो जाते हैं।

जब दावे होते हैं फुस्स

फीस के रूप में लाखों चुकाने के बावजूद कोर्स के दौरान ज्यादातर कॉलेजों द्वारा न तो अपडेटेड फैकल्टी उपलब्ध कराई जाती है और न ही इंडस्ट्री के साथ इंटरैक्शन कराया जाता है। आखिर में प्लेसमेंट के नाम पर भी जब उन्हें ठेंगा दिखा दिया जाता है, तो वे कहीं के नहीं रहते। कोर्स कंप्लीट करने के बाद भी स्किल्ड न होने के कारण कोई कंपनी उन्हें जॉब देने को तैयार नहीं होती। सालों तक ठोकरें खाने के बाद मिलती भी है, तो महज कुछ हजार की नौकरी। सवाल यह है कि आखिर बाहर पढ़ने के नाम पर दिखावा क्यों करें? लाखों खर्च करके बाहर के कथित संस्थानों में एडमिशन लेने की बजाय घर-शहर के करीब रहते हुए अपेक्षाकृत किसी बेहतर संस्थान में पढ़ाई करके भी करियर की राह चमकदार बनाई जा सकती है। फिर खुद के भीतर झांकने और उसके अनुरूप कदम आगे बढ़ाने की बजाय क्यों करें दूसरों का अनुकरण?

ये रेस कहां ले जाएगी?

यूपी के सिद्धार्थनगर के सुयश श्रीवास्तव का परिवार चाहता था कि वे इंजीनियर बनें। फिर क्या था, 12वीं तक की पढ़ाई जिले में की। उसके बाद नोएडा के एक जाने-माने कॉलेज में एडमिशन ले लिया। फिलहाल वह बैचलर डिग्री के छठे सेमेस्टर में हैं। सामान्य परिवार के सुयश के पिता ने पढ़ाई के लिए जीपीएफ से लोन भी लिया है। उन्हें उम्मीद है कि साल दो साल में बेटे की नौकरी लग जाएगी, तो लोन भी चुकता हो जाएगा। इसी तरह बैंक कर्मी राजेश त्रिपाठी बेटी को इंजीनियरिंग-मेडिकल से अलग किसी क्रिएटिव फील्ड में डालना चाहते थे। काउंसिलिंग कराई, बेटी से पूछा और तय किया कि 12वीं के बाद उसे होटल मैनेजमेंट का कोर्स कराएंगे। बेटी ने भी पता किया। नेशनल और स्टेट लेवल के कुछ होटल मैनेजमेंट संस्थानों में अप्लाई किया। ये दोनों एग्जाम्पल चमकदार करियर बनाने की चाह रखने वाले गोरखपुर-बस्ती मंडल के युवाओं के हैं, जिन्होंने घर से दूर जाकर पढ़ाई करने में ही अपनी तरक्की देखी। गोरखपुर ही क्यों ? आज पटना, धनबाद, रांची, हरिद्वार, अगरतला जैसे सुदूरवर्ती शहरों से स्टूडेंट्स दिल्ली एनसीआर के नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गुड़गांव, फरीदाबाद, गाजियाबाद या फिर आगरा, अलीगढ़, मेरठ जैसे शहरों के प्राइवेट कॉलेजेज में पढ़ाई कर भविष्य के सपने बुन रहे हैं। पर क्या उनके ख्वाब पूरे हो पा रहे हैं या वे सिर्फ एक दिशाहीन रेस में शामिल हैं?

गलत साबित हुआ फैसला

गुजरात के भुज जिले से मेरठ में डेंटल की पढ़ाई करने आई नेहा का अनुभव खास उत्साहजनक नहीं रहा। वे कहती हैं, आज उन्हें अफसोस होता है कि इतनी दूर से आकर यहां दाखिला क्यों लिया? बिहार के मोतिहारी की सुरुचि कहती हैं कि प्लेसमेंट केवल कॉलेज पर निर्भर नहीं करता, दरअसल यह स्टूडेंट पर भी निर्भर करता है। कुछ ऐसी ही कहानी पटना से यहां डेंटल कोर्स करने आई कोमल की भी है। वे कहती हैं कि कॉलेज शुरू से ही मान्यता प्राप्त होने का दावा करता रहा। दूर से आने की वजह से उन्हें पता नहीं चल पाया। सत्र तो पिछड़ा ही, ऊपर से एक साल में ही दो साल की फीस का भुगतान करना पड़ रहा है। कोर्स पूरा करने में कितने साल लग जाएंगे, इसका भी पता नहीं। यहींपढ़ रहींबिहार के बेगूसराय की रचना कहती हैं कि डेंटल कोर्स करने के लिए कॉलेज में दाखिला लेने का फैसला सही नहीं रहा। कॉलेज की स्थिति देखकर नहीं लगता है कि यहां प्लेसमेंट या कोई ऑफर मिलेगा, खुद मेहनत कर एग्जाम देना होगा या फिर क्लीनिक खोलकर बैठना होगा।

पैरेंट्स की ख्वाहिश पड़ी भारी

हरिद्वार के ऋषभ राजपाल को काउंसलिंग के दौरान मुजफ्फरनगर के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिल रहा था, लेकिन पिता चाहते थे कि बेटा दिल्ली या नोएडा के किसी कॉलेज से बीटेक करे। ऋषभ कहते हैं, मेरे डैडी को लगता है कि दिल्ली, नोएडा जैसे एजुकेशन हब या मेट्रोपोलिटन सिटी में पढ़ने से बच्चे का फिजिकल और मेंटल दोनों तरह से ग्रोथ होता है। इसलिए उन्होंने नोएडा के एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में बीटेक (इलेक्ट्रॉनिक्स ऐंड टेलीकॉम) में मेरा एडमिशन करा दिया। वैसे तो कॉलेज की रेप्यूटेशन अच्छी है, फिर भी मैंने कुछ सीनियर स्टूडेंट्स से प्लेसमेंट रिकॉर्ड के बारे में पता किया था। जवाब सैटिस्फैक्ट्री मिला। यहां ऑरेंज, भारती एयरटेल, एरिक्सन जैसी कंपनियों के अलावा, इंडियन नेवी भी हायरिंग के लिए आती रही हैं। आज मुझे यहां पढ़ते दो साल हो गए हैं। कॉलेज में पढ़ाई का अप्रोच प्रैक्टिकल बेस्ड है, लेकिन कई बार यह खयाल आता है कि अगर थोड़ी और तैयारी कर ली होती, तो किसी अच्छे गवर्नमेंट इंस्टीट्यूट में दाखिला मिल जाता।

तब शायद इतनी भारी फीस नहीं देनी पड़ती।

बेहतर पढ़ाई के लिए छोड़ा घर

बलिया कोठी गांव (रोहतास, बिहार) के नीतीश कुमार आगरा के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में बीटेक थर्ड ईयर के स्टूडेंट हैं। कहते हैं, इंटर तक की पढ़ाई गांव में हुई, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक्स ऐंड कम्युनिकेशन में इंजीनियरिंग करने का मेरा सपना वहां रहकर पूरा नहीं हो सकता था। इसलिए आगरा आया। शहर के माहौल में एडजस्ट करने में समय लगा। इसी संस्थान से बीटेक कर रहे विनीत कुमार कहते हैं, अलीगढ़ में मुझे इंजीनियरिंग की पढ़ाई को लेकर सही माहौल नहीं मिल सका। इसलिए इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में मैंने अलीगढ़ से बाहर का कॉलेज चुना। पढ़ाई कंप्लीट करने के बाद 8 कंपनियों में इंटरव्यू दिए, तब जाकर कहीं सफलता मिली।

लुभाती हैं मेट्रोज सिटीज

मेट्रो शहरों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स को कहीं ज्यादा सुविधाएं मिलती हैं। इन शहरों में 95 परसेंट स्टूडेंट्स दूसरे शहरों से होते हैं।

प्रो. प्रभात कुमार, पटना

छोटे शहर में भी अच्छी पढ़ाई

मेरे शहर में पढ़ाई की अच्छी सुविधाएं हैं। स्टूडेंट्स अच्छी जॉब भी पा रहे हैं। पैरेंट्स के साथ रहने से उनकी देखभाल भी हो जाती है। तो फिर हम उन्हें कहींऔर क्यों भेजें?

निरुपमा सिन्हा, पूर्णिया (बिहार)

डिग्री पर भरोसा नहीं

अगरतला की अर्पिता रॉय गाजियाबाद के एक कॉलेज में बैचलर ऑफ आर्किटेक्चर की फोर्थ ईयर की स्टूडेंट हैं। वे बताती हैं, काउंसलिंग छूट गई थी, इसलिए इतनी दूर पढ़ने आना पड़ा। नेशनल एप्टीट्यूड टेस्ट ऑफ आर्किटेक्चर का एग्जाम क्वालिफाई किया और कॉलेज में एडमिशन मिल गया। एडमिशन के समय कॉलेज एडमिनिस्ट्रेशन की ओर से क्वालिटी फैकल्टी समेत प्लेसमेंट की गारंटी का भरोसा दिलाया गया था, लेकिन न तो वहां प्लेसमेंट का रिकॉर्ड अच्छा है, न लैब और न लाइब्रेरी ही हैं। रेगुलर फैकल्टीज की भी कमी है। हर साल एक लाख रुपये फीस और हॉस्टल में रहने के लिए करीब 65 हजार रुपये चुकाने पड़ते हैं। अर्पिता को आज यह बात समझ में आ गई है कि उनकी इस डिग्री से मार्केट में जॉब मिलनी मुश्किल है। इसलिए वह गेट (जीएटीई) की तैयारी और किसी अच्छे इंस्टीट्यूट से एमबीए करने के बारे में सोच रही हैं।

प्लेसमेंट का दावा खोखला

गुजरात की निकिता मिश्रा फरीदाबाद के एक कॉलेज में पढ़ाई कर रही हैं। वे कहती हैं, कॉलेज का गुजरात में काफी प्रचार किया जा रहा था कि पढ़ाई के तुरंत बाद प्लेसमेंट कराई जाएगी। यही सोचकर मैंने यहां दाखिला लिया और परिवार से इतनी दूर आकर यहां रही, लेकिन कॉलेज के दावे खोखले निकले। पढ़ाई के बाद प्लेसमेंट दिलवाने में प्रबंधन ने मेरी कोई सहायता नहीं की। मैंने अपनी मेहनत से ही नौकरी हासिल की। यहीं पढ़ने वाले ललित डागर कहते हैं, एडमिशन के समय कॉलेज प्रबंधन 100 प्रतिशत प्लेसमेंट देने का भरोसा दिलाता है, लेकिन वक्त आने पर ठेंगा दिखा देता है। मेरी न तो नौकरी लगी और न ही कॉलेज ने कोई मदद की। हमारे जैसे दूर शहरों के बच्चे किराये के मकानों में रहते हैं। ऐसे में पढ़ाई के बाद भी जब नौकरी के लिए भटकना पड़ता है, तो बहुत अफसोस होता है। हमारे भविष्य के साथ एक तरह का खिलवाड़ किया जा रहा है।

छोटे शहरों में भी करियर

मेट्रो शहर में करियर के बढ़ते अवसर को भुनाने के लिए पहुंचे तमाम स्टूडेंट्स से इतर भी कुछ युवा हैं, जिन्होंने अपने शहर में ही पढ़ाई करने के बाद अच्छी नौकरी पाई है। मसलन, धनबाद स्थित बीसीसीएल में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर कार्यरत विवेक पाठक को ही लें। विवेक कहते हैं, मैंने इसी शहर में पढ़ाई की और आज नौकरी भी यहीं कर रहा हूं। इसके दो फायदे हैं, एक तो बाहर जाकर नौकरी करने से खर्च बढ़ जाता है। दूसरा परिवार से दूरी भी बढ़ जाती है। वैसे, बहुत कुछ स्टूडेंट पर निर्भर करता है कि वह अपने करियर को कैसे आकार देना चाहता है। कई बार छोटे शहरों के कॉलेजों में भी पढ़ाई की क्वालिटी बड़े शहरों से काफी अच्छी होती है। स्वाति सिंह ने भी धनबाद से पीजी कोर्स किया। वे कहती हैं, शुरू में एक बार मन हुआ था कि बाहर रहकर पढ़ाई करूं, लेकिन फिर सबने समझाया कि दूसरों की देखा-देखी कदम आगे बढ़ाने से अच्छा होता है, खुद के लिए सही फैसला करना। आज मुझे फैमिली सपोर्ट के साथ-साथ मेट्रो शहर जैसा एक्सपोजर भी मिल रहा है।

स्टार्टअप से की नई शुरुआत

यूपी के गोरखपुर के रहने वाले अनुराग श्रीवास्तव ने यह सोचकर आगरा के इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन लिया था कि वहां अच्छी फैकल्टी मिलेगी। कोर्स के बाद जॉब मिलने में भी परेशानी नहीं होगी, लेकिन बकौल अनुराग, इंजीनियरिंग के आखिरी सेमेस्टर में प्लेसमेंट का इंतजार करता रहा, लेकिन कुल 120 स्टूडेंट्स में से सिर्फ 8 का ही कैंपस प्लेसमेंट हो सका। मैंने सोचा भी नहीं था कि इतने पैसे खर्च करने के बावजूद मैं बेरोजगार रह जाऊंगा। उस दिन मुझे महसूस हुआ कि आगरा, अलीगढ़, मेरठ, नोएडा, गाजियाबाद, ग्रेटर नोएडा आदि में खुले इस तरह के इंस्टीट्यूट्स मेरी तरह न जाने कितने स्टूडेंट्स के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। मैं घर नहीं लौट सकता था, क्योंकि हर पल यह लग रहा था कि मैं अपने पैरेंट्स की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। दो साल तक मैं यूं ही छोटी-मोटी कंपनियों में जॉब करता रहा। अलग से वेब डिजाइनिंग और डॉट नेट का कोर्स करने के बाद भी संतोषजनक जॉब नहीं मिली। आखिरकार मैंने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर सॉफ्टकॉर्न टेक्नोलॉजी प्राइवेट लिमिटेड नाम से एक स्टार्टअप कंपनी रजिस्टर्ड कराई। आज हम सब इसी के लिए काम कर रहे हैं।

जागरूकता ज्यादा जरूरी

कुमार दिलीप चंद्र ने पटना से ही अपनी पढ़ाई पूरी की। बैंक पीओ की तैयारी के लिए उन्हें अपने शहर में ही अनुकूल माहौल मिला। वे पीओ के लिए सलेक्ट हो गए। उनका मानना है कि आज के आइटी एज में यदि स्टूडेंट जागरूक हों, तो कहीं भी रहकर बेहतर रिजल्ट दे सकते हैं। पटना की ही अपूर्वा सिंह मानती हैं कि परिवार के साथ रहकर पढ़ाई करने पर आर्थिक और सामाजिक फायदा मिलता है। अगर घर में रहकर प्रॉपर गाइडेंस और एक्सपोजर मिले, तो डेवलपमेंट की संभावनाएं कहीं ज्यादा होती हैं। वाराणसी के विजय कृष्ण राय ने भी सेंट्रल हिंदू स्कूल में शुरुआती पढ़ाई के बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय से लाइब्रेरी साइंस से एमलिब किया था। जिसके बाद उन्होंने एसएससी एग्जाम दिया। उसे क्लीयर किया और फिर वाराणसी के ही बीज अनुसंधान केंद्र में उन्हें लाइब्रेरियन की जॉब भी मिल गई।

दूर के ढोल सुहावने क्यों लगें?

पूर्णिया के विकास कुमार ने अपने शहर में रहकर ही इंजीनियरिंग की तैयारी की। इसके बाद एंट्रेंस एग्जाम में सेलेक्शन हुआ और वे बीटेक की पढ़ाई के लिए भुवनेश्वर चले गए। आज विकास पश्चिम बंगाल के वर्णपुर स्थित भारत सरकार के उपक्रम सेल में इंजीनियर के पद पर कार्यरत हैं। विकास के मुताबिक आत्मविश्वास है, तो स्टूडेंट अपने शहर में रहकर भी अच्छी एजुकेशन और जॉब हासिल कर सकते हैं। कुछ ऐसा ही मानना है सुपौल की सोनाली का। वे कहती हैं, असल में लोगों को दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। सुपौल में पढ़ाई का माहौल नहीं था, लेकिन मैंने घर से दूर जाने की बजाय पूर्णिया में रहकर ही इंजीनियरिंग की तैयारी करने का फैसला किया। अगर घर के करीब एजुकेशन का अच्छा माहौल मिल जाए, तो दूर रहकर पढ़ाई की क्या जरूरत है? पूर्णिया से बीबीए कर रहे आकाश सागर भी मानते हैं कि शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के कारण अब छोटे शहरों के कॉलेजों में भी अच्छी फैकल्टी आने लगी है।

लोन के बोझ तले दबे

बिहार के भभुआ के राजेश सिंह अपने पैरेंट्स को यह भरोसा दिलाकर दिल्ली पढ़ने आए थे कि जॉब लगने के बाद जल्द ही एजुकेशन लोन चुकता कर देंगे, पर ऐसा हो नहींसका। कहते हैं, मैंने ग्रेटर नोएडा के एक इंस्टीट्यूट से मार्केटिंग ऐंड फाइनेंस में पीजीडीएम किया था। उस समय कुछ लोगों को प्लेसमेंट मिली थी। लेकिन मुझे सीनियर्स से पता चला कि तीन महीने का प्रोबेशन पीरियड समाप्त होते ही, कंपनियों ने उन्हें निकाल दिया था। मैं तब तक भारी-भरकम एजुकेशन लोन लेकर फंस चुका था। तब मेरा फोर्थ सेमेस्टर चल रहा था, लेकिन कोई कंपनी प्लेसमेंट के लिए नहींआई। लोन के पैसे तो दूर, आज मैं उसका ब्याज तक चुका पाने की हालत में नहींहूं।

इंजीनियरिंग के बाद सेल्स जॉब

अयोध्या के गोपाल ने 2009 में ग्रेटर नोएडा के एक इंस्टीट्यूट से बीटेक किया था। एडमिशन के समय तो प्लेसमेंट बोर्ड में कई बड़ी कंपनियों के नाम दिए गए थे, लेकिन फाइनल ईयर में गोपाल को कॉलेज की ओर से प्लेसमेंट में कोई भी मदद नहीं मिली। उन्होंने खुद से ही 10-12 कंपनीज में इंटरव्यू दिए। शुरुआत में हर जगह से निराशा ही हाथ लगी। उस समय रिसेशन का भी दौर था, इसलिए भी परेशानी हुई। गोपाल कहते हैं, इंटरव्यू देने के क्रम में मैंने महसूस किया कि कॉलेज में मार्केट के अनुसार न तो पर्सनैलिटी ग्रूमिंग और न ही स्किल डेवलप पर कोई ध्यान दिया गया था। इसलिए इंजीनियरिंग करने के बावजूद पहली जॉब सेल्स की फील्ड में मिली।

शहर नहींअनुशासन जरूरी

कहीं भी रहकर अनुशासित वातावरण में कड़ी मेहनत से सफलता पाई जा सकती है। घर के करीब रहकर पढ़ाई करें, तो बच्चों का ख्याल रख सकते हैं।

संतोष कुमार, पटना

बहुत ठोकरें खाई

आज मैं विप्रो में आर्किटेक्ट हूं। लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए काफी ठोकरें खाई। एमसीए के बावजूद, प्लेसमेंट नहींहुआ। एक साल तक बेरोजगार रहने के बाद खुद से नौकरी मिली।

मनीष मिश्रा, सासाराम

चेक करें कॉलेज के दावे

इंस्टीट्यूट/फैकल्टी की क्वालिटी

- जहां एडमिशन लेने जा रहे हैं, वहां संचालित कोर्स एआइसीटीइ या संबंधित रेगुलेटरी बॉडी से मान्यता प्राप्त है या नहीं? अगर मान्यता प्राप्त है, तो उसकी अवधि कब तक है? इस बारे में रेगुलेटरी बॉडी की साइट पर जाकर चेक कर सकते हैं।

- संस्थान और डिपार्टमेंट की वेबसाइट है कि नहीं? अगर नहीं है या उस पर पूरी इंफॉर्मेशन नहीं दी गई है, तो वहां एडमिशन लेने का रिस्क न लें।

- वहां फैकल्टी का लेवल क्या है? फुलटाइम फैकल्टी मेंबर्स की संख्या का पता करें। स्टूडेंट-फैकल्टी रेशियो की जानकारी भी जरूर हासिल करें। यह भी देखें कि फैकल्टी कितनी अपडेटेड है और उसका इंडस्ट्री से कितना इंटरैक्शन होता है?

- फैकल्टी की क्वालिफिकेशन के बारे में जानकारी रखें। कितने एमटेक या पीएचडी हैं? पीएचडी कहां से की है, यह जानना अच्छा रहेगा। ज्यादातर अच्छे संस्थानों में पीएचडी होल्डर ही फैकल्टी मेंबर होते हैं।

- अगर किसी कॉलेज में फैकल्टी मेंबर की क्वालिफिकेशन बीटेक या एमसीए से ज्यादा नहीं है, तो वहां जाना सही नहीं रहेगा। वैसे अधिकांश प्राइवेट इंस्टीट्यूट्स में वहींसे पासआउट स्टूडेंट्स को ही पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। इसके बारे में जरूर पता कर लें।

- कॉलेज के कितने स्टूडेंट्स हायर टेक्निकल स्टडीज के लिए जाते हैं, इसकी भी जानकारी रखें।

- हरेक डिपार्टमेंट के रिसर्च आउटपुट पर ध्यान रखें। अगर फैकल्टी मेंबर रिसर्च कर रहे हैं, तो इसका मतलब है कि कॉलेज मैनेजमेंट क्वालिटी ऑफ एजुकेशन को लेकर गंभीर है। ..

..चेक करें दावे

इंफ्रास्ट्रक्चर

- कॉलेज के इंफ्रास्ट्रक्चर, आईटी एरिया, पीसी, सॉफ्टवेयर के स्टैंडर्ड और सपोर्ट स्टाफ के बारे में भी जानकारी इकट्ठा करने की कोशिश करें।

- लाइब्रेरी के बारे में पता करें कि वहां कितनी एडवांस किताबें और लेटेस्ट जर्नल्स आते हैं।

- एडवांस इंक्यूबेटर लैब/प्रैक्टिकल की सुविधा है या नहीं?

इंडस्ट्री इंटरैक्शन

- मार्केट की जरूरत के अनुसार, इंडस्ट्री के साथ स्टूडेंट्स का रेगुलर इंटरैक्शन कराया जाता है या नहीं, इसका पता करें।

- इंडस्ट्री की जरूरत के मुताबिक, स्किल डेवलपमेंट पर कितना ध्यान दिया जाता है? ध्यान रखें, इंडस्ट्री पहली नजर में उसी को जॉब देना पसंद करती है, जो स्किल्ड हो और पहले दिन से उसके लिए आउटपुट दे सके।

जॉब प्लेसमेंट

- संस्थान में प्लेसमेंट सेल है या नहीं? अगर है, तो वह कितना कारगर है? जॉब

प्लेसमेंट का पिछला रिकॉर्ड कैसा रहा है?

- किस तरह की कंपनियां कैंपस सलेक्शन के लिए आती रही हैं?

- कंपनियों द्वारा ऑफर की जाने वाली सैलरी कितनी अट्रैक्टिव है?

- प्लेसमेंट सेल न होने या उसके सक्रिय न होने पर संस्थान द्वारा जॉब पाने में किस तरह की मदद की जाती है?

इंडस्ट्री के मुताबिक ट्रेनिंग

आइआइआइटी में स्टूडेंट्स

को इंडस्ट्री की जरूरत के मुताबिक ट्रेन किया जाता है। सिलेबस में भी इंडस्ट्री के हिसाब से कुछ समय बाद चेंज किया जाता है। स्टूडेंट्स को गाइड करने के लिए बेस्ट फैकल्टी होती है। इसके अलावा, रिसर्च और प्रैक्टिकल एजुकेशन पर बहुत ध्यान दिया जाता है।

प्रो. जीएस नंदी, डीन ऑफ एकेडमिक अफेयर्स, आइआइआइटी, इलाहाबाद

परफॉर्रि्मग प्रोफेशनल्स की ज्यादा डिमांड

अवाया इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, गुड़गांव में कस्टमर सर्विस स्पेशलिस्ट पद पर कार्यरत हरीश कुमार सिंह के मुताबिक इंडस्ट्री को आज स्मार्ट प्रोफेशनल्स की जरूरत है। इंडस्ट्री चाहती है कि उनके यहां जो भी फ्रेशर्स च्वाइन करें, वे जल्द से जल्द अपना आउटपुट कंपनी को दें। आइआइटी से पासआउट स्टूडेंट्स दूसरे इंस्टीट्यूट के स्टूडेंट्स के मुकाबले ज्यादा स्मार्ट होते हैं। उनके बेसिक्स क्लीयर होते हैं। वे इनोवेटिव होते हैं। उनका एकेडमिक रिकॉर्ड अच्छा होता है। उन्हें इंडस्ट्री के बारे में भी काफी कुछ पता होता है। यही कारण है कि वे कंपनी को अच्छा रिजल्ट देते हैं। ज्यादातर कंपनीज की डिमांड होती है कि उनके यहां अच्छे इंस्टीट्यूट से पासआउट च्वाइन करें। बहुत से प्राइवेट इंस्टीट्यूट के स्टूडेंट्स भी इंडस्ट्री में अच्छा परफॉर्म करते हैं, लेकिन सभी प्राइवेट कॉलेजेज के स्टूडेंट्स का परफॉर्मेस अच्छा नहीं होता। ऐसे कॉलेज के स्टूडेंट्स को जॉब के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है। आने वाले टाइम में कॉम्पिटिशन और बढ़ेगा। इस नए माहौल के लिए स्टूडेंट्स और इंस्टीट्यूट दोनों को मेहनत करनी होगी और खुद को तैयार करना होगा।

बेहतर रिजल्ट से बेहतर प्लेसमेंट

लखनऊ के आरआर इंस्टीट्यूट ऑफ मॉडर्न टेक्नोलॉजी में कॉरपोरेट रिलेशंस ऐंड प्लेसमेंट सेल के हेड रोहित अग्रवाल कहते हैं कि स्टूडेंट्स अगर जीनियस होंगे, तभी रिजल्ट अच्छा होगा और जब रिजल्ट अच्छा होगा, तभी कंपनियां प्लेसमेंट के लिए आएंगी। हम जब कंपनियों का फीडबैक लेते हैं, तो पता चलता है कि हमारे स्टूेडेंट्स उनकी नीड को फुलफिल कर रहे हैं। इसके अलावा, समय-समय पर कंपनी विजिट के जरिए हम इंडस्ट्री के नए ट्रेंड के बारे में पता करते हैं। इसके अलावा, करिकुलम भी अपडेट करते रहते हैं। प्लेसमेंट के दौरान पर्सनैलिटी डेवलपमेंट कोर्स भी चलाया जाता है।

इंडस्ट्री के हिसाब से ग्रूमिंग

फरीदाबाद स्थित डीसीटीएम कॉलेज के चेयरमैन डॉ.प्रदीप कुमार कहते हैं, हम स्टूडेंट्स को क्वालिटी एजुकेशन के साथ-साथ इंडस्ट्री के लिए भी ट्रेन करते हैं। समय-समय पर उन्हें कंपनियों की विजिट भी कराई जाती है। पूरी तरह से ग्रूमिंग के बाद स्टूडेंट्स का प्लेसमेंट भी पहले से काफी अच्छा होता है।

अपडेट रहना इंपॉटर्ेंट

शारदा ग्रुप के एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर प्रो. वी.के. शर्मा मानते हैं कि कैंपस इंटरव्यू का प्रचलन पिछले कुछ साल में तेजी से बढ़ा है। कॉलेजों में कंपनियां कुछ खास तलाशती हैं। इससे जहां स्टूडेंट्स को उसकी पसंद की नौकरी मिल जाती है, वहीं कंपनियों का खर्च भी कम होता है। हालांकि प्लेसमेंट के लिए संस्थान को अपडेट रहना पड़ता है।

आइआइटी में अपडेटेड फैकल्टी

आइआइटी में पढ़ाई के साथ स्टूडेंट्स एक्ट्रा एक्टिविटीज और रूटीन के इवेंट्स में भी पार्टिसिपेट करते रहते हैं। यहां के फैकल्टी मेंबर्स फॉरेन में होने वाले सेमिनार, कॉन्फ्रेंस में भी हिस्सा लेते रहते हैं। इससे फैकल्टी करेंट रिसर्च से पूरी तरह अपडेट रहती है। यहां फैकल्टी की मिनिमम क्वालिफिकेशन पीएचडी होती है। इसके अलावा, कई साल का एक्सपीरियंस रखने वालों को ही फैकल्टी के लिए अप्रोच किया जाता है।

प्रो. अनुराग शर्मा, डिपार्टमेंट ऑफ फिजिक्स, आइआइटी, दिल्ली

कॉन्सेप्ट : अंशु ंिसंह, मो. रजा, राजीव रंजन

इनपुट : मेरठ से विवेक राव, पटना से बीरेंद्र पाठक, आगरा से दिलीप, पूर्णिया से मुकेश श्रीवास्तव, वाराणसी से जेपी पांडेय, गोरखपुर से क्षितिज पाण्डेय, फरीदाबाद से विजेंद्र पांडेय, धनबाद से तापस बनर्जी

..अगले अंक में भी जारी


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