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प्रोत्साहन से मिल सकती है मलारों को पहचान

मैक्लुस्कीगंज के मलारों को प्रोत्साहन मिले तो ये पूरी दुनिया में अपनी पहचान बना सकते हैं। यहा रहने

By JagranEdited By: Published: Thu, 18 May 2017 06:09 PM (IST)Updated: Thu, 18 May 2017 06:09 PM (IST)
प्रोत्साहन से मिल सकती है मलारों को पहचान
प्रोत्साहन से मिल सकती है मलारों को पहचान

मैक्लुस्कीगंज के मलारों को प्रोत्साहन मिले तो ये पूरी दुनिया में अपनी पहचान बना सकते हैं। यहा रहने वाली मलार जनजाति सरकारी उपेक्षा का शिकार है। पिछले चार दशक से करीब 25 मलार परिवारों ने मैक्लुस्कीगंज को अपना स्थाई बसेरा बना लिया। इससे पूर्व ये लोग खानाबदोश जीवन बिता रहे थे। मूल रूप से मलार छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के रहने वाले हैं। बिरहोरों की तरह मलार भी विलुप्त होती जनजाति है, जिनकी जनसंख्या बहुत कम है। पिछले चार दशक से मैक्लुस्कीगंज में रह रहे इन मलारों के पास सही ढंग से छत भी नहीं है। इनकी बस्ती में पानी बिजली की भी अच्छी सुविधा नहीं है। आठ वर्ष पूर्व जिले के तत्कालीन उपायुक्त केके सोन इन मलारों के टोले में आए थे और इन मलारों की सुधी ली थी। उन्होंने आश्वस्त किया था कि सभी परिवारों को इंदिरा आवास, लाल कार्ड आदि उपलब्ध कराएं जाएंगे। बस्ती में दो-तीन इंदिरा आवास बने भी, लेकिन सभी को घर नहीं मिल सका। हा, उपायुक्त के दौरे के बाद आधे लोगों को लाल कार्ड मुहैया करा दिया गया। लेकिन आज इन्हें ठीक से पीडीएस दुकान से अनाज भी नहीं मिल पा रहा है। पिछले दिनों लपरा पंचायत भवन में इन मलारों ने बीडीओ रोहित सिंह को इस बाबत जानकारी भी दी थी।

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मेटल क्राफ्ट कला में हैं पारंगत

मैक्लुस्कीगंज के इन मलारों को 'लॉस्ट वैक्स कास्टिंग' में महारत हासिल है। मेटल क्राफ्ट की यह कला हमारे देश में करीब 4000 वर्ष पुरानी है। इस कला में गैर लोहा मेटल को पारंपरिक विधि से ढलाई कर तरह-तरह की वस्तुएं बनाई जाती हैं। इस कला को ये मलार 'ढोकरा' भी कहते हैं। आरंभ में झारखंड, बंगाल, उड़ीसा तथा छत्तीसगढ़ की जनजाति इस विधि का प्रयोग करते थे। बाद में ये ही लोग दक्षिण के केरल तथा पश्चिम में राजस्थान तक गए। इस प्रकार 'लॉस्ट वैक्स कास्टिंग की कला पूरे देश में फैल गई। मैक्लुस्कीगंज के मलार इस विधि से परंपरागत घोड़े, हाथी, मोर, धार्मिक आकृतिया, नापने का पउआ, आकर्षक लैंप आदि बनाते हैं।

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नहीं मिलती है उचित कीमत

इन सामानों को बेचने के लिए इन्हें दूर दराज के गावों में भटकना पड़ता है। ये बताते हैं कि अब इन चीजों के न तो ग्राहक जल्दी मिलते हैं न ही उचित कीमत मिल पाती है। हा विदेश से मैक्लुस्कीगंज आए कुछ पर्यटक इनके सामान विदेशों में ले गए हैं। मैक्लुस्कीगंज निवासी कुछ कला प्रेमी इनसे साज-सज्जा के काफी सामान बनवाएं हैं। सितंबर 2014 में राज्य सरकार द्वारा होटवार, राची में आयोजित पारंपरिक वाद्य यंत्र निर्माण कार्यशाला में बेहतर प्रदर्शन के लिए मैक्लुस्कीगंज के अर्जुन मलार सहित कई मलारों को उनके उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए प्रमाण पत्र भी दिया गया।

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विकास भारती ने दिए कुछ दिन रोजगार

विकास भारती के पद्म श्री अशोक भगत ने इन मलारों का पता डॉ. रामदयाल मुंडा कला भवन होटवार से लिया और विशुनपुर बुलाकर थोड़े दिनों तक रोजगार दिया। इन्हें मेटल की बजरंग बली की मूर्तिया बनाने के लिए लगाया गया था। परंतु काम खत्म होते ही इन्हें वापस मैक्लुस्कीगंज लौटना पड़ा। पारंपरिक कला से जब परिवार पालना मुश्किल हुआ तो ये लोग दिहाड़ी मजदूरी करने को मजबूर हो गए। कई मलार इनदिनों कॉस्टिंग के बदले कोयला जलाने वाला लोहे का चूल्हा बनाकर बेचते हैं। इन मलारों ने बताया कि जनधन योजना के तहत मैक्लुस्कीगंज स्थित लपरा ग्रामीण बैंक में खाता भी खोले हैं लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा घोषणा किया गया, लेकिन ऋण नहीं मिल रहा। सरकार पूंजी और बाजार मुहैया करा दे तो ये फिर से अपने पारंपरिक पेशे का ही काम करने लगें। 'लॉस्ट वैक्स कास्टिंग' की कला तो इन्हें विरासत में मिली ही है, इन्हें बेहतर प्रशिक्षण दिया जाए तो इनके द्वारा निर्मित सामानों का बाजार भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व होगा।


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