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जी लो यह रोशनी लेकर

रांची : घुप अंधेरा। आंखों में रोशनी नहीं। नेत्रहीन बच्चे! जिनपर न सरकार की नजर, न प्रशासन की। समाज म

By Edited By: Published: Sat, 20 Dec 2014 01:49 AM (IST)Updated: Sat, 20 Dec 2014 01:49 AM (IST)

रांची : घुप अंधेरा। आंखों में रोशनी नहीं। नेत्रहीन बच्चे! जिनपर न सरकार की नजर, न प्रशासन की। समाज में भी उपेक्षित होकर वंचित तबके में खड़े। ऐसे बच्चों के लिए मानों आंखों का नूर बना हो संत मिखाइल नेत्रहीन विद्यालय। बच्चों से कह रहा हो, ये लो शिक्षा की रोशनी! जी लो जिंदगी इस रोशनी को लेकर।

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सुशिक्षित समाज वही है जहां हर इंसान स्वावलंबी हो, कहीं कोई किसी पर आश्रित नहीं। दृष्टिहीनता को बोझ समझनेवाले लोगों के लिए संत मिखाइल नेत्रहीन स्कूल एक मिसाल है जहां किसी की आंख में भले ही रोशनी नहीं हो, आंखों के सामने कभी अंधेरा नहीं होता। यहां के छात्र प्रोफेसर, इंजीनियर, संगीतज्ञ से लेकर क्रिकेट के खिलाड़ी तक हैं और समाज में अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। तरीका एक ही है-शिक्षा। सुशिक्षित होकर नेत्रहीन स्वयं और अपने परिवार के विकास का एक अहम हिस्सा बन चुके हैं। इस मुकाम को हासिल करने में स्कूल प्रबंधन और प्रधानाध्यापिका एमटीपी अग्रवाल की अहम भूमिका है।

इसी स्कूल का छात्र गोलू कुमार विश्व दृष्टिबाधित क्रिकेट टूर्नामेंट में भारत की जीत का प्रतिनिधित्व कर लौटा तो सैकड़ों उसके स्वागत में खड़े थे, बड़े-बड़े लोग भी। लेकिन, स्कूल के लिए यह पहली उपलब्धि नहीं थी। इसके पूर्व भी कई उपलब्धियां इस स्कूल के हिस्से आ चुकी हैं। नेत्रहीन होने के बावजूद बच्चों में शिक्षा के प्रति जज्बा व लगन है। छोटे उम्र में ही बच्चे बड़े सपने देख रहे हैं। सपने देखें भी क्यों नहीं, क्योंकि पूर्ववर्ती छात्रों ने लंबी लकीर जो खींच रखी है।

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प्राचार्य के चेंबर में भरे हैं मेडल

प्राचार्य एमटीपी अग्रवाल के चेंबर में घुसते ही करीने से सजा कर रखे दर्जनों मेडल पर नजर पड़ती है। इसमें राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर सफल प्रदर्शन के लिए बच्चों को मिले मेडल हैं। ये मेडल की सफलता की कहानी बताते हैं।

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इंजीनियर से लेकर मास्टर तक

संत मिखाइल नेत्रहीन विद्यालय से पढ़कर निकले बच्चे आज देश के कई शहरों में कई महत्वपूर्ण पदों पर हैं। सुरेंद्र कुमार नोएडा की एक कंपनी में साफ्टवेयर इंजीनियर हैं। रांची से लेकर दिल्ली तक के कॉलेजों में कई प्रोफेसर हैं। मोहित कुमार रांची कॉलेज में प्रोफेसर हैं। बसंत राय इसी विद्यालय में शिक्षण का काम करते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं।

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खेलों में कई सफलता इनके नाम

विद्यालय के बच्चे पढ़ने में तो अच्छे हैं ही, खेलों में अव्वल हैं। वर्ष 2010 में नेत्रहीन बच्चों के लिए दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में बच्चों ने 21 मेडल जीत कर देश में अपना नाम रोशन किया। वर्ष 2011 में यूएस के कोलेरेडो में आयोजित खेलों में सुजीत मुंडा ने दो गोल्ड व नमिता कुमारी ने रजत व कांस्य पदक जीता है। दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में नेत्रहीन बच्चों के लिए आयोजित अंतराष्ट्रीय क्रिकेट टीम का चैंपियन भारत रहा। इस टीम में विद्यालय का छात्र गोलू भी शामिल था।

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संगीत से भी है लगाव

यहां पढ़ने वाले बच्चों को संगीत से बेहद लगाव है। बच्चे हर साल प्रयाग विवि इलाहाबाद में संगीत की परीक्षा देने जाते हैं। वहां से बेहतर नंबर लेकर लौटते हैं। स्कूल में भी अक्सर संगीत का कार्यक्रम होता है।

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कंप्यूटर भी जानते हैं

विद्यालय के विद्यार्थी आधुनिक तकनीक से भी परिचित हैं। जीवन में आगे बढ़ने के लिए इसे अपनाते हैं। बच्चों के लिए कंप्यूटर की व्यवस्था है। बच्चे कंप्यूटर जानते हैं।

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पूर्ववर्ती छात्रों के लिए स्वरोजगार की व्यवस्था

संत मिखाइल विद्यालय की कई विशेषताएं हैं। प्रबंधन विद्यालय के पूर्ववर्ती छात्रों की अनदेखी नहीं करता है। पढ़ाई पूरी करने के बाद यदि उन्हें कोई रोजगार नहीं मिला तो स्कूल में ही स्वरोजगार की व्यवस्था है। कई ऐसे बच्चे हैं जिन्होंने स्कूल को ही अपना घर बना लिया। यहां 8 पुरुष व महिला स्कूल में ही रहते हैं। बेंत का सामान बनाते हैं। इनके रहने-खाने की व्यवस्था स्कूल की ओर से की गई है।

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सफलता का श्रेय सबको : प्राचार्य

विद्यालय की सफलता में प्राचार्य एमटीपी अग्रवाल का अहम योगदान है। स्कूल में अनुशासन के साथ-साथ बच्चों के समग्र विकास पर इनका जोर रहता है। अग्रवाल का मानना है कि सफलता का श्रेय सामूहिक है। प्रबंधन से लेकर विद्यालय के शिक्षकों तक का योगदान है। बच्चे अच्छे करते हैं तो विद्यालय का नाम रोशन होता है। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि अभिभावकों को यह सलाह दी जाती है कि नेत्रहीन बच्चों के साथ वैसे ही व्यवहार करें जैसे दूसरे बच्चों के साथ करते हैं। कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। बच्चों को मां-बाप का प्यार मिलता रहे, इसलिए छुंिट्टयों में बच्चों को उनके घर भेज दिया जाता है।

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