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चली मुहिम, बंद हुआ पालीथिन

लोहरदगा जमीन को बंजर बनाने से लेकर प्रदूषण फैलाने में सहायक बने पालीथिन के खिलाफ सतत जागरूकता का ल

By Edited By: Published: Fri, 23 Jan 2015 10:08 PM (IST)Updated: Fri, 23 Jan 2015 10:08 PM (IST)

लोहरदगा

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जमीन को बंजर बनाने से लेकर प्रदूषण फैलाने में सहायक बने पालीथिन के खिलाफ सतत जागरूकता का लोहरदगा में इतना असर हुआ कि आज उसका इस्तेमाल 50 प्रतिशत तक कम हो गया है। मुहिम चली तो लोगों ने भी कहा, नहीं चाहिए पालीथिन।

लोगों को पालीथिन के खतरे के प्रति जागरूक करना मुश्किल काम था, पर साइंस फॉर सोसायटी के सदस्यों ने इस चुनौती को स्वीकार किया। 24 सदस्यों की छोटी-सी टोली निकल पड़ी गली-मोहल्लों में। हर दरवाजे पर जाकर एक ही अपील पालीथिन का इस्तेमाल न करें। सोसायटी के तत्कालीन सचिव अरुण राम व वर्तमान सचिव राहुल कुमार ने 2009 में अभियान शुरू किया। यह लगातार चल रहा है। इस बीच राज्य सरकार ने भी पालीथिन पर प्रतिबंध लगा दिया। आज लोहरदगा जैसे छोटे शहर में पालीथिन के खतरों को लेकर लोग जागरूक हैं। यही कारण है कि दुकानों में कागज का ठोंगा दिखता है। पेशे से शिक्षक और सोसायटी के सदस्य अरुण कहते हैं कि पालीथिन से न सिर्फ जमीन बंजर होती है, बल्कि यह नालों में पानी के प्रवाह को भी रोकता है। सबसे ज्यादा कचरा इसी से पैदा होता है। इसलिए कि यह नष्ट नहीं हो पाता।

शुरू-शुरू में काफी दिक्कतें आई, लेकिन धीरे-धीरे लोग समझने लगे। समाज के हर तबके का सहयोग मिला। इससे न सिर्फ पालीथिन पर रोक लगी है, बल्कि कागज से ठोंगा बनाने के व्यवसाय को भी जीवन मिला है।

शहरी क्षेत्र की थाना टोली निवासी माला देवी, हजरा खातून सहित कई महिलाएं प्रतिदिन ठोंगा बनाकर आजीविका चला रही हैं। माला कहती हैं, लोगों ने पालीथिन का इस्तेमाल बंद किया तो उनलोगों का ठोंगा बनाने का काम अच्छा चल रहा है। अरुण के साथ-साथ प्रवीण कुमार, जगतपाल केशरी, संजय बर्मन, देशराज गोयल, आलोक कुमार, बालान्जिनप्पा, जितेन्द्र मित्तल, स्नेह कुमार आदि भी अभियान में शरीक हैं।

ये लोग शहर से लेकर प्रखंड मुख्यालय के चौक-चौराहों पर लोगों को रोक-रोककर जागरूक करते हैं। पिछले पांच वर्षो में साइंस फॉर सोसायटी के सदस्यों ने करीब 20 हजार लोगों को अभियान से जोड़ा। एक हजार से अधिक दुकानों, बस पड़ाव, रेलवे स्टेशन, सरकारी कार्यालयों में पालीथिन के इस्तेमाल पर रोक लगवाने में सफलता पाई। जिन दुकानों से छोटी-छोटी वस्तुएं भी पालीथिन में पैक होकर घरों तक पहुंचती थीं, वहां अब कपड़े का थैला या फिर ठोंगा है। दुकानदार हिरण वर्मा कहते हैं कि साइंस फॉर सोसायटी के अभियान से उनकी भी परेशानी कम हुई है। अब लोग ठोंगा और कपडे़ के थैले का उपयोग सहजता से कर रहे हैं। दुकानदार अमित घोष कहते हैं कि यह अभियान वरदान साबित हुआ है। कूड़े-कचरे का ढेर बहुत कम हुआ है और बहुत बड़ा कारण है पालीथिन के इस्तेमाल में कमी।


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