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विदेशी दीया मार रहा कुम्हारों का रोजगार

हीरोडीह (गिरिडीह) : अपने हाथों से दीपक बना कर दूसरों का घर रोशन करनेवाले शिल्पी कुम्हारों के घर आज भ

By Edited By: Published: Fri, 28 Oct 2016 06:56 PM (IST)Updated: Fri, 28 Oct 2016 06:56 PM (IST)
विदेशी दीया मार रहा कुम्हारों का रोजगार

हीरोडीह (गिरिडीह) : अपने हाथों से दीपक बना कर दूसरों का घर रोशन करनेवाले शिल्पी कुम्हारों के घर आज भी विकास की रोशनी को तरस रहे हैं। देश को आजाद हुए कई दशक बीत गए लेकिन इनकी दशा सुधरने के बजाय बिगड़ती जा रही है। पहले तो विद्युत सज्जा के सामानों पर ही विदेशी कंपनियों का कब्जा था अब तो दीया भी विदेशी आने लगा है। इससे कुम्हारों की जीविका पर बेहद बुरा असर पड़ा है।

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अब तक कई सरकारें बनीं और सबने इनके विकास की बड़ी-बड़ी घोषणाएं की किन्तु धरातल पर नतीजा सिफर रहा। जग रोशन करने की तैयारी है पर अपने घर में इससे खुशियां आएंगी कि नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है। जी हां जब से भारत में विदेशी सामान का बाजार हावी हुआ हैं। दीपावली में बाजार की रौनक बढ़ानेवाले कुम्हारों में मायूसी है। विदेशी दीयों एवं देवी-देवताओं की बनी मूर्तियों ने कुम्हार की पारंपरिक कला को नष्ट कर दिया है। परिवार के कुछ सदस्य कठिन आर्थिक परिस्थितियों में अभी भी अपनी कला को बचाये हुए हैं। हालांकि बदलाव की उम्मीद के बीच कुम्हार दिन रात मिट्टी का दीया, कलश आदि सामान बनाने में लगे हैं। उनकी नई पीढ़ी के लोग इस पेशे से दूर होते जा रहे हैं। वे पारंपरिक पेशा छोड़कर रोजी-रोटी के लिए अन्य धंधों में लगे हैं।

फाइबर दीये से कुम्हारों के कारोबार को नुकसान : जमुआ प्रखंड क्षेत्र के ढीबीटांड़ गांव निवासी जागो पंडित, मागो पंडित, हरि पंडित, नारायण पंडित आदि ने बताया कि दीपावली में मिट्टी के दीये घरौंदा एवं छोटी मूर्तियों की बिक्री नहीं होती है। केवल पूजा के लिए बड़े दीये बनाएंगे। उन्होंने कहा कि विदेशी एवं फाइबर के सामान बाजार में आने से उनके कारोबार को नुकसान हुआ है। विदेशी सामान की कीमत कम होने के कारण हम उनकी बराबरी नहीं कर पा रहे हैं। दस वर्षों से मिट्टी के बने सामानों की बिक्री में कमी आई है। पहले हम सब लगभग मिट्टी के लाखों दीये बेचा करते थे। कहा कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो आनेवाले कुछ वर्षो में हमलोग इस धंधे को पूरी तरह से छोड़ देना पड़ेगा।

सरकार से नहीं मिल रहा सहयोग : कुम्हार समाज के लोगों ने कहा कि सरकार की ओर से हमारे पेशे को जीवित रखने के लिए कोई सहयोग नहीं मिल रहा है। मिट्टी भी महंगी हो गई है। लकड़ी उपलब्ध नहीं हो पाती है। वर्तमान में कई किमी दूर से मिट्टी पांच सौ से सात सौ रुपये प्रति ट्रैक्टर खरीदकर लाते हैं। इससे दीये की कीमत अधिक होती है। अधिक कीमत होने के कारण बाजार में इस दीये को कोई लेना नहीं चाहता। विदेशी दीयों की कीमत कम होने के कारण उसकी मांग अधिक है।

पलायन को मजबूर : मिट्टी और जलावन की किल्लत ने कुम्हारों को रोजगार की तलाश में पलायन होने को मजबूर कर दिया है। हीरोडीह थाना क्षेत्र के ढीबीटांड़ में 170 कुम्हार परिवारों की घनी आबादी थी। अब आधा दर्जन कुम्हार ही अपने पुश्तैनी धंधे में लगे हैं। अन्य कुम्हारों के परिवार अपने परंपरागत पेशे को त्यागकर रोजगार की तलाश में अन्यत्र पलायन कर रहे हैं।

मजबूरी है पुश्तैनी धंधा छोड़ना: खोरीमहुआ अनुमंडल क्षेत्र के हीरोडीह निवासी बालेश्वर पंडित का कहना है कि परंपरागत पुश्तैनी काम छोड़ना उनकी मजबूरी बन गई है।

क्या कहते हैं लोग : नारायण पंडित, चेतो पंडित, रामेश्वर पंडित, च¨हतामण पंडित आदि ने कहा कि बदलाव अन्य व्यवसाय में हुआ है उतना इस क्षेत्र में नहीं दिखता। बताया कि अब तो लागत भी कभी कभी निकालना मुश्किल हो जाता है।इस समाज के युवा नेता मंटू कुमार ने कहा कि सरकार का ध्यान हमारे समाज की तरफ नहीं रहा है। सरकार ने आज तक कारीगरों के लिए कोई सरकारी अनुदान नहीं दिया है। देबू पंडित ने कहा कि कुम्हारों की बदहाली में पहुंचाने का सबसे बड़ा योगदान औद्योगिक विकास का रहा है। अब शादी विवाह एवं अन्य मांगलिक कार्य में मिट्टी के बर्तनों की जगह प्लास्टिक और फाइबर के बने उत्पादों ने ले ली है।


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