हम अइली रउवा जान, रउवा सुतली गोड़े तान
-काली सड़क देखने के लिए दुधवल के लोग जाते हैं छत्तीसगढ़ गढ़वा। हम अइली रउवा जान। रउवा सुतलीं गोड़े त
-काली सड़क देखने के लिए दुधवल के लोग जाते हैं छत्तीसगढ़
गढ़वा। हम अइली रउवा जान। रउवा सुतलीं गोड़े तान। रउवा बूझेलीं वीरान..। कमर में एक बेल्ट के साथ बंधी बड़ी-बड़ी घटिया। पाव में लोहे की पैजनी। गले से लटका मादर। उसकी थाप के साथ नेताओं के स्वागत में नाचते हुए गाया जाने वाला इस करमा गीत में इलाके का जो दर्द छिपा है, दरअसल नेता लोग इसको समझ नहीं पा रहे हैं। यदि समझते तो शायद यह गीत गाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
दुधवल, रंका प्रखंड से इसकी दूरी करीब 35 किमी होगी, पर यहा के लोग अपना कोई सरोकार न तो झारखंड से रखते हैं और न ही गढ़वा जिला से। मोबाइल का सिम भी छत्तीसगढ़ का होता है। यदि कोई केस-मुकदमा हो गया तो थाना या जिला मुख्यालय गढ़वा आना विवशता है। अन्यथा नहीं। और तो और,यहा के लोगों की मोटरसाइकिलों का रजिस्ट्रेशन भी छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले का है।
इस गाव में अधिसंख्य लोग बाहर से आकर बसे हैं। कोई डेहरी से आकर बसा है तो कोई सासाराम से। नगर उटारी व गढ़वा से भी। पुरखे तो सस्ती जमीन खरीद कर बस गए। अब मौजूदा पीढ़ी उनके इस निर्णय को कोसते नहीं थकती।
इसका कारण भी है। जिस पापी पेट के लिए यहा आकर बसे, अब उसी के लिए फिर पलायन करना पड़ रहा है। शिक्षा के लिए छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर, रोजगार के लिए दिल्ली व कर्नाटक। इस गाव में सरकारी नौकरी करने वाले मात्र दो लोग हैं। वह भी चौकीदारी। एक सिंचाई विभाग में, दूसरा थाना में। रास्ता के अभाव में लड़के-लड़कियों की शादिया रुक जाती हैं।
गाव के अयूब अंसारी, मनउव्वर अंसारी आदि ने बताया कि झारखंडी नेता सिर्फ वोट के समय आते हैं। अपने विधायक से कई गुना ज्यादा तवच्जो छत्तीसगढ़ के बलरामपुर के विधायक देते हैं। अब वोट देना मजबूरी है तो यहा ही देते हैं। इसी समय इस गाव के लोगों को आभास होता है कि वह झारखंड में रहते हैं। कहा कि और तो और पीने के पानी का भी इंतजाम यहा के नेताओं ने नहीं किया। सिंचाई की बात तो बहुत दूर की है। गर्मी में कनहर में जेसीबी से कुआ टाइप का गढ्डा खोदा जाता है। वही पीने से लेकर हर काम के लिए सहारा बनता है। चूंकि इस गाव में मुसलमान आबादी ज्यादा है, सो मदरसा भी है। लेकिन यहा लगाया गया चापाकल पानी देता ही नहीं। जबकि इसे लगवाने के लिए ग्रामीणों ने एक हजार रुपये का घूस भी दिया था। खंभों पर तार है, लेकिन लाइन कभी-कभी ही आती है। सरकारी मध्य विद्यालय है, लेकिन सरकारी शिक्षक नहीं। पारा शिक्षक ही इसे चलाते हैं। खेती है, पर नगदी फसल चाहकर भी नहीं उगा पाते, क्योंकि बाजार जाने के लिए रास्ता ही नहीं है। ऊबड़-खाबड़ जंगली रास्ते पर जितने भी नाले हैं, एकाध पर ही पुल है। लोग ऊपर वाले से मनाते हैं कि कोई बरसात में गंभीर रूप से बीमार न पड़े, नहीं तो उसका मरना तय है। जिला या प्रखंड मुख्यालय तक पहुंचने के लिए रास्ता ही नहीं है। छत्तीसगढ़ जाने के लिए भी कनहर को नाव से पार करना पड़ता है। नदी का पाट चौड़ा होने से इसमें काफी समय लगता है। यही सारे कारण है कि लोग बाहर सरिया सेटरिंग करने चले जाते हैं। आज की जागरूक नई पीढ़ी इसी के चलते अपने जनप्रतिनिधियों से नाराज है। परिवर्तन की बात करती है। इनके रिश्तेदार जिले में अन्य स्थानों पर भी हैं, उनको भी आने-जाने में दिक्कत होती, सो परिवर्तन के मूड में उनका भी रहना स्वाभाविक है। यह स्थिति सिर्फ दुधवल की नहीं है। आसपास के अन्य गावों की भी है।