समानता का उपहास उड़ाती है बिहारी की हंसी
महेश कुमार वैद्य, रेवाड़ी: संतोष, घनश्याम.??? ऊधल, धनीराम, राधा, कलावती??..सीता। दिमाग पर जोर डाल
महेश कुमार वैद्य, रेवाड़ी:
संतोष, घनश्याम.??? ऊधल, धनीराम, राधा, कलावती??..सीता। दिमाग पर जोर डाल कर जैसे-तैसे अपने सात बच्चों के नाम पूरे करता है बिहारी लाल। मध्यप्रदेश के 40 वर्षीय श्रमिक बिहारी की उम्मीद अभी भी खत्म नहीं हुई है। मैने परिवार नियोजन का जिक्र किया तो हल्की सी मुस्कान के साथ पलटकर सवाल किया, नसबंदी की कहो हो बाबूजी? मेरे द्वारा हां कहने पर जवाब मिला 'अभी कुनबो पूरा ना हुयो है। ना करवायो अभी अपरेशन।' मेरे और बिहारी लाल के बीच ये बातचीत ठीक उसी स्टेडियम में चल रही है, जहां पर ृ4 जनवरी को जिला स्तरीय गणतंत्र दिवस समारोह धूमधाम से मनाया जा रहा था। फासला सिर्फ उन निर्माणाधीन दुकानों की दीवारें थी, जिनके निर्माण में बिहारी का पसीना भी बह रहा है। पढ़ाई की बात चली तो कुपोषण के कारण चालीस की उम्र में भी अधेड़ दिख रहा बिहारी फीकी हंसी हंस देता है। उसकी हंसी गणतंत्र के समानता के अधिकार का उपहास उड़ाती दिखती है।
बिहारी की छोटी बेटी तीन वर्ष की सीता है। साथ बैठी उसकी पत्नी मासूम सीता को आंचल में छुपाकर लगभग बुझ चुके अलाव से तापने का जबरन प्रयास कर रही है। मां को बेटी की फिक्र जो है, लेकिन दुकान के अंदर कंबल में दो और बेटियां भी सो रही हैं। किसी तरह अब आंख लगी है उनकी। पास में ही निकाल रही बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ की झांकी को देखने की न उन्हें समझ है, न उनकी मां व पिता बिहारी को। बिहारी को लगता है कुनबा बड़ा होगा तो मजदूरी करने वाले हाथ भी अधिक होंगे। उसे गणतंत्र की बात करने वाले बाबुओं का अर्थशास्त्र समझ में नहीं आएगा। पल्स पोलियो ड्राप का उन्हें पता है, परंतु दूसरी बीमारियों के टीकाकरण तथा बच्चों की पढ़ाई की बात करने पर बिहारी की आंखें नम हो जाती हैं। बाबू जी बड़ो बेटो संतोष 4-5 जमात पढ़ायो थो। अब मेरे साथ है। छह बच्चे मेरे साथ हैं। एक गांव में दादा-दादी के पास रहकर सरकारी स्कूल में तीसरी-चौथी जमात में पढ़ रह्यो है। तुम कितना पढ़े हो? हम तो अनपढ़ हैं। अरे कम से कम बच्चों को तो पढ़ा लो? फेर फीस अर पेट कौन भरैगो? थोड़ी दूर रखी एक कटोरी की ओर देखकर मैने पूछा, क्या इन बच्चों को कभी दूध भी पिलाया है? बिहारी जोर से हंसता है, जैसे मैने मजाक कर दिया हो? रोटी हाथ में है, लेकिन दूर रखी चटनी की कटोरी पर झट चादर डाल दी? कहीं हम पतलून वालों की नजर न लग जाए। मैंने अधिक कुरेदना उचित नहीं समझा। सोचता हूं गणतंत्र पर ऐसा सौभाग्य कब आएगा, जब इनकी तरफ भी सरकारी मशीनरी की नजर पड़ेगी। डीसी की कार दस मीटर दूर से फर्राटा भरती निकली है। ये आस्था कुंज जा रही है। निराश्रित बच्चों को फल वितरित करने के लिए। ये परंपरा है। परंपरा में स्टेडियम के श्रमिक शामिल नहीं हैं।
बिहारी जैसे कई श्रमिक इन दुकानों में रह रहे हैं। अधिकांश की कहानी दर्द भरी है। इन्हीं में एक अनरथ है। अनरथ के चार भाई व पांच बहनें हैं। यहां अधिकांश परिवार कुपोषण के शिकार हैं। मैने यहां मौजूद साहू व राकेश से भी बात की। ये दोनों भी मध्यप्रदेश से आए हुए हैं। सभी अनपढ़ हैं। शिक्षा मिलती तो ठेकेदार को शायद ये मजदूर नहीं मिलते। ये श्रमिक एक ही सवाल पूछ रहे हैं कि कहां है हमारा गणतंत्र। वे तंत्र के गण कहां हैं, जिन्होंने समानता का अधिकार दिया था। इनकी फीकी हंसी शायद यही कह रही है-बंद करो ये झूठे नारे लगाना।