बातों में ही नहीं वास्तव में हो शहीदों को सम्मान
जागरण संवाददाता, कुरुक्षेत्र : शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मरने वालो
जागरण संवाददाता, कुरुक्षेत्र : शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होगा..। यह लाइन सुनने में भले ही शहीदों के परिवारों को गौरवान्वित महसूस कराती हों, लेकिन असलियत इससे बिल्कुल जुदा है। यहां न तो शहीदों के स्मारक बनाने को सरकार के पास जगह है और न ही फंड, फिर मेले लगने तो दूर की बात है।
भगत ¨सह से भी कम आयु में देश की सुरक्षा करते प्राण न्योछावर करने वाले इन जवानों को कुछ ही वर्षो में सरकार भूल गई। शहीदों की चिताओं पर बड़े-बड़े भाषण करने वाले नेता दोबारा ना तो पिता के आंसू पोंछने आए और न मां को दिलासा ही दिया। एक दीया शहीदों के नाम कार्यक्रम में आए शहीदों के परिजनों में सरकार के प्रति कुछ ऐसा ही व्यक्त किया। दैनिक जागरण से बातचीत में रुंधे गले से अपनी व्यथा सांझा करते हुए कहा कि सरकार से कितनी ही गुजारिश की कि उनके पुत्र के नाम का एक स्मारक बनवा कर गांव के स्कूल को उसका नाम दिया जाए, लेकिन सरकार से इतना तक न हुआ। फिर शहीदों को कैसा सम्मान।
अपने निजी प्रयास से बनाया स्मारक
जम्मू बार्डर पर आतंकवादियों से एक मुठभेड़ में शहीद हुए भौर सैयदां निवासी शहीद श्याम लाल के पिता जयनारायण व माता सुरक्षा देवी ने कहा कि राज्य सरकार की ओर से केवल भाषण ही हुए। मुठभेड़ से 15 दिनों बाद ही श्याम को तीन महीने के लिए छुट्टी पर घर आना था, इसी बीच उसकी शादी होनी तय थी, लेकिन उन्हें क्या पता था कि जिसकी शादी के वे सपने सजा रहे हैं वे कभी पूरे नहीं होंगे। अक्टूबर 23, 2004 को उसके शहीद होने की सूचना मिली। तत्कालीन सरकार ने आर्थिक मदद करने के बड़े-बड़े वायदे किए, लेकिन कुछ नहीं हुआ। यहां तक कि उसका कई बार मांग के बाद भी उसका स्मारक स्थल नहीं बनाया गया। सरकारी स्कूल का नाम बदलकर शहीद श्याम के नाम करने की मांग को भी फाइलों में दबा दिया गया।
अब उसकी शहादत के दिन 23 अक्टूबर को अपने स्तर पर ही कार्यक्रम आयोजित करते हैं। अपने ही खेतों के पास निजी प्रयासों से श्याम का एक स्मारक तैयार किया है।
पुत्र के लिए चाहिए था सम्मान जो नहीं मिला
असम से लगते समुद्र में आतंकवादियों का पीछा करते हुए शहीद हुए ¨पद्रपाल के पिता सुख¨वद्र ¨सह व माता गुरमीत कौर ने बताया कि जब ¨पद्रपाल शहीद हुआ तो उसकी उम्र शहीद भगत ¨सह से भी छोटी, 21 साल थी। सुख¨वद्र ¨सह ने व्यथित मन से कहा कि दावे तो बहुत होते हैं, लेकिन बाद में कोई पूछने तक नहीं आता। अपने पुत्र ¨पद्र पाल का स्मारक गांव में बनवाने के लिए सरकारी दफ्तरों के कई बार चक्कर काटे, लेकिन प्रशासन के पास न तो स्मारक बनवाने के लिए कोई फंड है और न ही जगह। उन्हें जो सहयोग मिला वह यूनिट की तरफ से मिला। प्रदेश सरकार ने सहयोग के नाम पर केवल दो लाख रुपये का मुआवजा दिया, लेकिन वह सम्मान नहीं। उन्हें तो अपने पुत्र के लिए सम्मान चाहिए था जो उन्हें अब तक नहीं मिल पाया।