अंग्रेजी प्राध्यापक ने कभी नहीं लिखा अंग्रेजी में पत्र
जागरण संवाददाता, गुड़गांव : दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभागाध्यक्ष रहे डा. हरींद्र श्रीवास्तव ने वर्षो अंग्रेजी पढ़ाई, लेकिन जीवन में कभी भी अंग्रेजी में पत्र नहीं लिखा। देश ही नहीं विदेश में भी हिन्दी में ही भाषण देते हैं। कहते हैं पेट की भाषा अंग्रेजी हो सकती है, लेकिन हृदय की भाषा हिन्दी ही है।
मियांवाली कालोनी निवासी डा. हरींद्र श्रीवास्तव दिल्ली विश्वविद्यालय के आत्माराम सनातन धर्म महाविद्यालय से सेवानिवृत्त हैं। वह बताते हैं कि अंग्रेजों को जवाब देने के लिए उन्होंने अंग्रेजी की भी शिक्षा हासिल की। यही नहीं विभिन्न महाविद्यालयों में अंग्रेजी पढ़ाया भी, लेकिन कभी भी उनके ऊपर अंग्रेजियत हावी नहीं हुई। सरकारी सेवा के दौरान भी कभी भी एक भी पत्र अंग्रेजी में नहीं दिखा। सेवानिवृत्ति के बाद भी अंग्रेजी में पत्र नहीं लिखा। हर महीने सात से आठ जगहों पर भाषण देने के लिए जाता हूं, लेकिन कभी भी भाषण में एक भी शब्द अंग्रेजी नहीं आने देता। वह कहते हैं कि अंग्रेजी पढ़ना गलत नहीं है, लेकिन इसे संस्कार में ढालना गलत है। दुर्भाग्य से जहां हिन्दी महारानी होनी चाहिए थी, वहां नौकरानी बनकर रह गई है। लोगों को हिन्दी बोलने में शर्म आने लगी है। आवश्यकता है अंग्रेजी पढ़ें, लेकिन नौकरी तक ही यह सीमित रहे। इसे जीवन शैली में नहीं अपनाना चाहिए। दुनिया के कई देश हैं जो अपनी भाषा में ही बात करते हैं। चाहे वह कहीं चलें जाएं। क्या उन्हें पिछड़ा देश कहा जाता है। भारतीय अपने आपको हिन्दी बोलकर पिछड़ा क्यों महसूस करने लगते हैं।
विश्व हिन्दी सम्मेलन में बजाया था डंका
वर्ष 1990 के दौरान मारीशस में विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हुआ था। सम्मेलन में दैनिक जागरण के प्रधान संपादक रहे व पूर्व राज्यसभा सांसद स्व. नरेंद्र मोहन सहित काफी हिन्दी प्रेमियों ने हिस्सा लिया था। डा. श्रीवास्तव भी उसमें शामिल थे। उन्होंने हिन्दी बोलने में शर्म करने वालों के ऊपर उस समय जमकर हमला बोला था। कहा कि जब वह अंग्रेजी विभाग के प्राध्यापक होते हुए हिन्दी में न बोलते हैं, बल्कि सभी कार्य हिन्दी में ही करते हैं। फिर अन्य लोगों को क्या शर्म। अपनी भाषा और संस्कृति से प्रेम होना चाहिए। आज अपने ही देश में हिन्दी बेचारी हो गई है।