इक्विटी में निवेश से न हिचकें अब
छह साल तक सुस्त रहने के बाद भारतीय इक्विटी बाजार हाल के दिनों में नई ऊंचाइयों पर पहुंचा है। सेंसेक्स तकरीबन रिकॉर्ड स्तर पर है। इसके बावजूद बाजार में उत्साह नदारद है। इस स्थिति की संभावित व्याख्याओं में एक यह है कि भले ही सेंसेक्स ऊंचे स्तर पर पहुंच गया हो, मगर पिछ
छह साल तक सुस्त रहने के बाद भारतीय इक्विटी बाजार हाल के दिनों में नई ऊंचाई पर पहुंचा है। सेंसेक्स तकरीबन रिकॉर्ड स्तर पर है। इसके बावजूद बाजार में उत्साह नदारद है।
इस स्थिति की संभावित व्याख्याओं में एक यह है कि भले ही सेंसेक्स ऊंचे स्तर पर पहुंच गया हो, मगर पिछले छह वर्षो में जिस तरह महंगाई में 70 फीसद का इजाफा हुआ है, उसे समायोजित करने पर सेंसेक्स को अभी भी तकरीबन 13000 पर ही माना जाएगा। इसके अलावा पिछले छह साल में भारतीय बाजार अप्रत्याशित रूप से दो ध्रुवों के बीच झूलता रहा। बाजार का एक हिस्सा 2010 में ही नई ऊंचाई पर चला गया था। तबसे यह लगातार ऊपर की ओर उन्मुख है। दूसरा हिस्सा ऐसी दुर्दशा का शिकार है, जिसे देखते हुए सेंसेक्स को 21,000 पर नहीं, बल्कि 12,000 से भी नीचे मानना चाहिए। ऑटो उद्योग को छोड़कर, बाजार के जिस हिस्से ने उल्लेखनीय रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है, उसमें मुख्यत: एफएमसीजी, फार्मा व आइटी जैसे रक्षात्मक प्रकृति के क्षेत्र शामिल हैं। इन क्षेत्रों का प्रदर्शन तो सेंसेक्स के 40000-50000 के स्तर का है। वहीं, बाजार के दूसरे अपेक्षाकृत बड़े भाग का प्रदर्शन लचर है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 2008 के बीएसई-500 इंडेक्स में शामिल स्टॉक्स में से महज 166 शेयर ही उस साल के उच्चतम स्तर को पार कर सके हैं।
सही मायने में देखा जाए तो भारत अप्रत्याशित रूप से आर्थिक झंझावात का शिकार है। इसकी वजहें घरेलू व वैश्विक दोनों हैं। इन नकारात्मक कारकों ने न केवल कंपनियों के प्रदर्शन पर असर डाला है, बल्कि भारतीय निवेशकों के मन में इक्विटी के प्रति एक तरह के डर और उदासीनता का वातावरण पैदा कर दिया है। पिछले पांच वर्षो में भारतीयों ने रीयल एस्टेट व सोने में जिस तरह से आवंटन बढ़ाया है, उसकी एक बड़ी वजह यही है। वैसे देखा जाए तो ऐसा कर उन्होंने अच्छा ही किया, क्योंकि इन दोनों असेट श्रेणियों ने इक्विटी के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया है।
लेकिन इतिहास पर नजर डालें तो इक्विटी में लंबे अरसे तक गिरावट रहने से आगे चलकर बड़ी कमाई की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। पिछले एक साल से कुछ ऐसा ही हो रहा है। रीयल एस्टेट व सोने के दाम गिर रहे हैं, जबकि इक्विटी के भाव चढ़ रहे हैं। सेंसेक्स ने दोनों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया है। रुपये की कीमतों में गिरावट के बावजूद रुपये के लिहाज से सोने ने पिछले डेढ़ साल से कोई रिटर्न नहीं दिया है। अमेरिकी डॉलर के हिसाब से तो पिछले दो साल में सोने के दाम 35 फीसद तक गिरे हैं। इसी तरह भले ही निवेशकों ने प्रॉपर्टी में बड़े निवेश किए हैं, मगर इसके दाम अब नहीं बढ़ रहे हैं। बल्कि अब ऐसी धारणा बन रही है कि प्रॉपर्टी में लोगों का पैसा फंस गया है।
इस सबके बीच भारत के व्यक्तिगत निवेशकों का इक्विटी पर से भरोसा कम होने लगा है। ज्यादातर घरेलू निवेशक इस असेट श्रेणी के बारे में नकारात्मक सोचते रहे और उछाल का फायदा उठाने से चूक गए। 2013 में लगातार दूसरे साल लोगों ने जमकर म्यूचुअल फंड भुनाए। वर्ष 2012 में जहां 15.6 हजार करोड़ रुपये के म्यूचुअल फंड भुनाए गए थे, वहीं 2013 में भी 10.5 हजार करोड़ रुपये के फंड भुनाए गए।
साल 2009 से अब तक एफआइआइ ने भारतीय बाजार में पूरे 4.4 लाख करोड़ रुपये का निवेश किया है। उनकी इक्विटी होल्डिंग रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई। ग्लोबल निवेशकों के लिहाज से देखा जाए तो सभी जगह चिंता का वातावरण है। इसलिए हमारे यहां घरेलू मोर्चे पर हालात चाहे जितने खराब हों, लेकिन वैश्विक मंदी के चलते विश्व के अन्य उभरते बाजारों की हालत हमसे भी गई-गुजरी है।
बीत गया बुरा दौर:
वैसे, सबसे बुरा दौर लगभग बीत चुका है। उदाहरण के लिए महंगाई के मोर्चे पर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) व थोक मूल्य सूचकांक (डब्लूपीआइ), दोनों में अगले दो-तीन माह में कुछ गिरावट आने के आसार हैं। नवंबर में सब्जियों के भाव बढ़ने से सीपीआइ व डब्लूपीआइ में उछाल आया था, जबकि अब सब्जियों के दाम गिर रहे हैं। यह भी अच्छी बात है कि आरबीआइ ने ग्रोथ व महंगाई के बारे में संतुलित रवैया अपनाया और उम्मीद के खिलाफ यथास्थिति बनाए रखी। हमारा मानना है कि यदि आरबीआइ ने आगे भी नवंबर जैसा ही रुख अख्तियार किया तो जनवरी में भी वह उम्मीद के विरुद्ध ब्याज दरों में कोई वृद्धि नहीं करेगा। हालांकि ब्याज दरों में कमी का दौर शुरू होने में अभी कुछ समय लग सकता है।
ग्रोथ के मोर्चे पर देखें तो भारत की विकास दर सबसे निचले स्तर पर जा चुकी है। अब इसमें सुधार होना तय है। वर्ष 2013 में विकास दर पांच फीसद से नीचे रही। वहीं, 2014 में यह पांच फीसद से ऊपर रहेगी। कंपनियों की आमदनी में भी 15 फीसद तक का इजाफा होने की संभावना है। भारत के चालू खाते का घाटा पिछले साल जीडीपी के 4.8 फीसद पर था। अब यह आधे यानी 2.3 फीसद पर आ चुका है। कुल मिलाकर ज्यादातर बुनियादी कारकों में आने वाले महीनों में थोड़ा सुधार ही दिख रहा है। हालांकि बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि राजनीतिक हालात कैसा रुख अख्तियार करते हैं तथा नीतिगत स्तर पर अनिश्चितता समाप्त होती है या नहीं।
असल में आने वाले समय में चुनाव अकेला सबसे बड़ा कारक होगा। हमारे हिसाब से 2014 में नई सरकार के स्वरूप व आकार से ज्यादा महत्व भारत को आगे ले जाने की उसकी प्रतिबद्धता व इच्छा शक्ति का है। इसलिए केंद्र में किसकी सरकार बनेगी यह अनुमान लगाने का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि ऐसी कोई भी सरकार ठीक है, जो नीतिगत स्थिरता सुनिश्चित करने, निर्णय प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने और अर्थव्यवस्था व बाजार के अनुकूल फैसले लेने को तैयार हो।
कहने का मतलब यह है कि भारत के व्यक्तिगत निवेशकों को अब इक्विटी बाजारों में निवेश प्रारंभ कर देना चाहिए। चूंकि शेयर बाजारों में धीरे-धीरे सुधार होगा। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि इक्विटी से तूफानी लाभ होगा, क्योंकि उतार-चढ़ाव तो आते रहेंगे। लेकिन इतिहास को देखते हुए कहा जा सकता है कि कुल मिलाकर अच्छा फायदा होगा। पिछले कुछ सालों में जिन निवेशकों ने तर्कसंगत नजरिया अपनाते हुए मध्यम अवधि के लिहाज से निवेश किया, उन्होंने बेहतर फायदा उठाया है। हम भी इसी तरह का रवैया अपनाने की सलाह देते हैं।
मधुसूदन केला
चीफ इन्वेस्टमेंट स्ट्रेटजिस्ट रिलायंस कैपिटल