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कई उतार-चढ़ावों से गुजरा आज का सिनेमा

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By Edited By: Published: Wed, 19 Dec 2012 03:28 PM (IST)Updated: Wed, 19 Dec 2012 03:33 PM (IST)

1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद देश में तेजी से परिवर्तन हुए। अचानक सभी अमीर होने लगे। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री भी इस परिवर्तन से प्रभावित हुई। कुछ दशकों पहले तक हिंदी फिल्मों के निर्माता-निर्देशक अपनी कथा और प्रस्तुति में आम दर्शकों की रुचि का ख्याल रखते थे। इस दशक में आम दर्शक भी बदला और उसी के अनुरूप निर्देशकों की सोच और रुझान में भी बदलाव आया। सिनेमा मुख्य रूप से दर्शकों से ही संचालित होता है। लक्षित दर्शकों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ध्यान में रख कर ही फिल्मों की कहानियां चुनी जाती हैं।

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ऊब गए थे दर्शक

आजादी के बाद के आरंभिक दशकों में निर्देशकों ने नैतिकता और सामाजिक संस्कार का लिहाज रखा था। देश के विभिन्न कोनों से आए लेखकों-निर्देशकों ने अपने इलाके की संस्कृति से प्रेरित कहानियां पेश कीं। इसे ही हिंदी सिनेमा का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। तब निर्माता-निर्देशकों का लक्ष्य पैसों से अधिक कथ्यों पर था। आठवें दशक के अंत और नौवें दशक में मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा जैसे निर्देशकों ने हिंदी फिल्मों के हीरो को लफंगा, उचक्का, पाकेटमार, चोर आदि बना दिया। इस दशक में अमिताभ बच्चन की अधिकांश फिल्मों का नायक लुम्पेन है। लगातार एक जैसी कहानियां और गिने-चुने चेहरों को देखते हुए दर्शक भी ऊब चुके थे। पिछली सदी के आखिरी दशक में उन्हें जब आमिर, सलमान और शाहरुख खान दिखे तो उन्होंने इन नए सितारों को अपनी पसंद बना दिया। हालात ऐसे हुए कि वन मैन इंडस्ट्री अमिताभ बच्चन भी कुछ सालों के लिए बेरोजगार हो गए।

अप्रवासी भारत की फिल्में

दर्शकों को कुछ नया देने की चाह में फिल्म इंडस्ट्री से आए निर्देशकों ने हिंदी फिल्मों की प्रचलित कहानियों को नई साज-सज्जा के साथ पेश किया। रुपहले पर्दे का परिवेश समृद्ध हो गया। नायक संभ्रांत और संपन्न हो गए। फिल्म इंडस्ट्री में सूरज बड़जात्या, आदित्य चोपड़ा और करण जौहर ने आगे-पीछे फिल्मों में प्रवेश किया। तीनों के प्रयासों से हिंदी सिनेमा का परिवेश स्थानापन्न हो गया। देश की गलियों और आम आदमियों के घरों से निकल कर हिंदी फिल्में विदेशों के स्क्वायर और लकदक अपार्टमेंट में पहुंच गई। हीरो सायकिल, टांगा, बाइक या कार के बजाए हवाई जहाज से उतरने लगा। इनकी फिल्मों को दर्शकों ने सराहा और पसंद किया। उल्लेखनीय है कि इन निर्देशकों ने अप्रवासी भारतीयों और देश के समृद्ध नागरिकों के लिए फिल्में बनाई। इनकी कामयाबी से लकीर के फकीर निर्देशकों ने हिंदी फिल्मों के पारंपरिक दर्शकों को विस्थापित कर डॉलर और पाउंड दे रहे विदेशी दर्शकों की परवाह शुरू कर दी। यहां तक कि दबाव में आकर सुभाष घई को भी परदेस जैसी फिल्म बनानी पड़ी। इस ट्रेंड के बाहर बन रही फिल्में बहुत ही साधारण और अप्रभावी होती गई। यह दौर कुछ लंबा ही चलता अगर सन् 2000 में आशुतोष गोवारिकर की लगान नहीं आ गई होती।

लगान ने बदला ट्रेंड

साधारण फिल्मों की लंबी हताशा के बाद आशुतोष गोवारिकर ने अपने मित्र आमिर खान को लगान की कहानी सुनाई। शुरू में न कहने के बाद आखिरकार आमिर खान राजी हुए और फिल्म के निर्माता भी बन गए। लगान हिंदी फिल्मों के इतिहास में कई तरह से निर्णायक फिल्म के तौर पर याद की जाती रहेगी। पहली बार किसी हिंदी फिल्म शूटिंग एक शेडयूल में पूरी की गई थी। इसके साथ ही निर्माण में कॉरपोरेट प्रक्रिया अपनाई गई थी। स्टार और दूसरे कलाकार में भेदभाव नहीं किया गया था। हालांकि आरंभ में जब आमिर खान ने जावेद अख्तर को इस फिल्म की कहानी सुना कर गीत लिखने के लिए कहा था तो उन्होंने सलाह दी थी कि यह फिल्म मत बनाओ। उनकी राय में हिंदी फिल्मों में सफलता के जितने मसाले होते हैं, उनमें से एक भी लगान में नहीं था। फिर भी इस फिल्म ने दर्शकों को रिझाया और विदेशों तक में पसंद की गई। भारत से ऑस्कर के लिए भेजी गई लगान विदेशी भाषा की फिल्म की श्रेणी में नामांकित हुई। इस कामयाबी और सराहना ने दूसरे निर्माता-निर्देशकों को भी प्रेरित किया। समझ में आया कि अप्रवासी भारतीयों से इतर भी दर्शक हैं।

परिवर्तन की नई लहर

21वीं सदी के आरंभ से ही परिवर्तन के लक्षण दिखने लगे थे। एक नई लहर सी उठने को तैयार थी, जो अपने साथ फिर से देश के विभिन्न हिस्सों से आए निर्देशकों को मंच पर ला रही थी। इस दशक में ढेर सारे युवा निर्देशकों की फिल्में सफल रहीं। उन्हें पहचान और जगह मिली। फरहान अख्तर, राजकुमार हिरानी, मधुर भंडारकर, अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, तिग्मांशु धूलिया, इम्तियाज अली, अनुराग बसु, राजकुमार गुप्ता आदि ने हिंदी सिनेमा का परिदृश्य बदल दिया। इन्होंने कथ्य, प्रस्तुति और परिवेश में हिंदी फिल्मों को सकारात्मक विस्तार दिया। ये सभी फिल्मकार अपने संस्कार और नजरिए से हिंदी फिल्मों को नई ऊंचाई और गहराई दे रहे हैं। देश-विदेश में इनकी फिल्में समान रूप से सराही जा रही हैं।

कारपोरेट सिनेमा का दौर

21वीं सदी में ही मल्टीप्लेक्स के आने की वजह से सिनेमा दर्शन और प्रदर्शन में बड़ा फर्क आया। शहरों में मल्टीप्लेक्स ने दर्शकों को सुविधा और सुरक्षा दोनों प्रदान की। नतीजतन घरों में बैठे दर्शक थिएटरों में आए। फिल्मों की आमदनी बढ़ी और निवेश भी। इनके साथ ही कुछ कारपोरेट घरानों ने फिल्म प्रोडक्शन में कदम रखा। उन्होंने अपनी सीमाओं और भूलों के बावजूद हिंदी सिनेमा के आर्थिक पक्ष को व्यवस्थित किया। काले धन और माफिया से ग्रस्त हिंदी सिनेमा में सुरक्षित निवेश से नई ऊर्जा का संचार हुआ। इसी दौर में स्टारों की कीमत करोड़ों पहुंची। स्टार फिर से हावी हुए और गिने-चुने डायरेक्टरों के अलावा बाकी सब गौण हो गए। इससे हिंदी फिल्मों का नुकसान भी हुआ। लेकिन आमिर खान जैसे स्टार ने अपनी फिल्मों और कार्यप्रणाली से नए उदाहरण भी पेश किए। इन दिनों ज्यादातर स्टार एक समय में एक ही फिल्म करते हैं। कोशिश यह रहती है कि हर फिल्म पर पर्याप्त ध्यान दिया जाए।

100 करोड़ का कांसेप्ट

वर्तमान दशक में फिल्में नई दिशाओं में बढ़ रही हैं। इस प्रगति के साथ नई चुनौतियां भी सामने आ रही हैं। फिलहाल निर्माता और वितरक का पूरा ध्यान वीकएंड कलेक्शन पर रहता है। अधिकतम प्रिंट बाजार में झोंक कर वे वीकएंड की कमाई से निवेश और लाभ वसूल कर लेना चाहते हैं। फिल्में 100 करोड़ का बिजनेस कर रही हैं। यह आंकड़े दर्शकों की पसंद भी संचालित कर रहे हैं। माना जाने लगा है कि जिस फिल्म का कलेक्शन जितना अधिक होगा, वह फिल्म उतनी ही अच्छी होगी। सच्चाई इसके विपरीत भी होती है। कहना मुश्किल नहीं है कि 3 इडियट के अलावा 100 करोड़ क्लब की ज्यादातर फिल्मों को दर्शक दस सालों के बाद याद नहीं रखेंगे। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को इससे फर्क नहीं पड़ता। कंज्युमरिज्म का दौर है। इस दौर में अभी की कमाई ही परम सत्य है।

अजय ब्रह्मात्मज

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