कला पर प्रहार जायज नहीं: पुष्पेंद्र सिंह
हाल के बरसों में हिंदी फिल्मों की शिरकत देश-विदेश के फिल्म फेस्टिवलों में बढ़ी है। 'लाजवंती' उसी मिजाज की फिल्म है। उसने प्रष्ठित बर्लिन, कैलगरी और कोलकाता फिल्म फेस्टिवल में चर्चा बटोरी। उसके बाद उसने दिल्ली का रुख किया। उसकी स्क्रीनिंग छठे जागरण फिल्म फेस्टिवल में हुई। फिल्म पुष्पेंद्र सिंह
नई दिल्ली। हाल के बरसों में हिंदी फिल्मों की शिरकत देश-विदेश के फिल्म फेस्टिवलों में बढ़ी है। 'लाजवंती' उसी मिजाज की फिल्म है। उसने प्रष्ठित बर्लिन, कैलगरी और कोलकाता फिल्म फेस्टिवल में चर्चा बटोरी। उसके बाद उसने दिल्ली का रुख किया। उसकी स्क्रीनिंग छठे जागरण फिल्म फेस्टिवल में हुई। फिल्म पुष्पेंद्र सिंह ने बनाई है। बतौर डायरेक्टर यह उनकी पहली फिल्म है।
वे कहते हैं, 'फिल्म की कहानी जैसेलमेर में सेट है। उसकी नायिका एक नवविवाहिता लाजवंती है। घूंघट के भीतर रहती है। प्रारंभ से रूढिय़ों के अंधभक्त परिवार में उसका पालन-पोषण हुआ है। वह उसकी सोच में गहरी धंसी हुई है। अनायास एक अजनबी के उसकी जिंदगी में आने पर उसकी सोच में कायांतरण होना प्रारंभ होना शुरू हो जाता है। वह अजनबी एक धुनि है। उसे कबूतर पकड़ने का शौक है। फिर लाजवंती उसके ख्वाब का हिस्सा बनती है और वे आगे किस किस्म की आध्यात्मिक जर्नी से गुजरते हैं, यह फिल्म उस बारे में है। इसकी कहानी राजस्थान के लोककथा लेखक विजयदान देता की एक कहानी पर आधारित है। उस कहानी का शीर्षक भी लाजवंती ही है।
ऐसी फिल्में हिंदी पट्टी के दर्शकों के लिए जरूरी है। ताकि वे समाज व सार्वजनिक जिंदगी में न बोले जाने वाले मुद्दों पर मुखर हों। अपने हक की बातें कर सकें। खासकर महिलाएं। मैं खुद आगरा के पास स्थित सैंया गांव का हूं। देख चुका हूं कि वहां के परिवारों में औरतों को कितना दबकर रहना पड़ता है। वे अपना वजूद अपनी सोच बना नहीं पाती। मेरी कोशिश इस फिल्म को दूरदर्शन के जरिए अधिकाधिक ग्रामीण व छोटे इलाकों में पहुंचाने की है।
मैं पहले बैरी जॉन के साथ थिएटर करता था। फिर 2006 में एफटीआइआइ कोर्स करने गया। उसके बाद फिल्मकार अमित दत्ता व बाद में अनूप सिंह को असिस्ट किया। अनूप सिंह 'किस्सा' जैसी कमाल की फिल्म बना चुके हैं। उनसे काफी कुछ सीखा। मैं जागरण फिल्म फेस्टिवल का शुक्रगुजार हूं, जो मुझ जैसे नए डायरेक्टर की फिल्म को अपने फेस्टिवल में दिखाने का मंच प्रदान किया।
ऑफबीट व कमर्शियल फिल्में दो अलग विधाएं हैं। मुझे माइंडलेस फिल्म बनानी नहीं हैं। उसमें मेरे लिए कुछ कहने को नया नहीं है। लिहाजा मैं आगे भी ऐसी ही फिल्में बनाऊंगा। राबर्ट ब्रेसों, मणि कौल, सत्यजित रे जैसे फिल्मकारों का मुझ पर प्रभाव है।
आजाद सोच में एफटीआइआइ जैसे स्वायत्त संस्थान का भी अहम योगदान है। उसको लेकर जो विवाद इन दिनों चल रहा है, वह नहीं होना चाहिए। मेरी ख्वाहिश है कि ऐसे संस्थान तो और खुलने चाहिए ताकि प्रतिभावान पर संसाधनविहीन छात्रों को कला की फील्ड में आने का मौका मिले। कला बहुत अहम चीज है, उसकी आजादी बनी रहनी चाहिए। वरना जिन देशों में उनका हाल खस्ता है, वहां ढेर सारी सामाजिक समस्याएं हैं। वहां के लोगों की सोच प्रोग्रेसिव नहीं है।