प्राण है तो जान है..
नई दिल्ली [रतन]। फिल्मों में अभिनय की बात हो, तो जिक्र यह भी होता है कि कैसा अभिनय? अहम बात यह भी है कि अगर हम हर तरह के किरदार को जीवंत बनाने वाले कलाकार पर नजर दौड़ाएं तो वह जाकर टिकती है प्राण पर। बतौर हीरो जब उन्हें खास पसंद नहीं किया गया तो वे खलनायक बन गए। खलनायकी के जितने रंग और अंदाज उन्होंने फिल्मों में दिखाए, उतने शायद ही किसी अभिनेता ने दिखाए हों।
नई दिल्ली [रतन]। फिल्मों में अभिनय की बात हो, तो जिक्र यह भी होता है कि कैसा अभिनय? अहम बात यह भी है कि अगर हम हर तरह के किरदार को जीवंत बनाने वाले कलाकार पर नजर दौड़ाएं तो वह जाकर टिकती है प्राण पर। बतौर हीरो जब उन्हें खास पसंद नहीं किया गया तो वे खलनायक बन गए। खलनायकी के जितने रंग और अंदाज उन्होंने फिल्मों में दिखाए, उतने शायद ही किसी अभिनेता ने दिखाए हों।
एक वक्त वह भी आया जब दर्शक यह पूछते थे कि इस फिल्म में प्राण है या नहीं? जवाब होता था कि प्राण है, तो उसके मुंह से यही वाक्य निकलता कि प्राण है तो फिल्म में जान जरूर होगी। यह थी अभिनेता प्राण की खूबी। बाद में जब बारी आई चरित्र भूमिका निभाने की, तो उन्होंने इस काम को बखूबी अंजाम दिया फिल्म उपकार से। उसके बाद प्राण ने हर तरह की भूमिकाओं में खुद को साबित किया।
दिल्ली के बल्लीमारान में जन्मे प्राण को शुरुआती पढ़ाई के बाद उनके पिता ने अपने दोस्त से कहकर फोटोग्राफी की दुकान में रखवा दिया था। बाद में उन्हें इसी काम के सिलसिले में लाहौर जाना पड़ा। लाहौर में ही उनके फिल्मी करियर की शुरुआत हुई। प्राण के बाबूजी नहीं चाहते थे कि उनका बेटा एक्टिंग को अपना करियर बनाए। आरंभिक फिल्मों की रिलीज के बाद उन्होंने प्राण को लाहौर से दिल्ली बुलवाया और अपने एक दोस्त की फैक्ट्री में लगवा दिया। प्राण अपने बाबूजी के दोस्त की अंबाला और पानीपत की फैक्ट्री में काम देखने लगे। इस बीच उनकी शादी भी तय कर दी गई ताकि वे सही रास्ते पर आ जाएं। यह सब चल ही रहा था कि बाबूजी केवल किशन सिकंद को दिल का दौरा पड़ा और उनका निधन हो गया। बाबूजी के निधन के कुछ दिनों बाद प्राण 1944 में फिर लाहौर चले गए और विभाजन तक वहां फिल्मों में काम करते रहे।
विभाजन के वक्त लाहौर छोड़कर वह भारत आ गए। कुछ दिनों तक बेरोजगार रहने के बाद लाहौर के दिनों के उनके मित्रों की मदद से उन्हें बांबे टॉकीज की फिल्म जिद्दी में देवआनंद व कामिनी कौशल के साथ अभिनय करने का अवसर मिला। कुछ और फिल्में गृहस्थी, अपराधी और पुतली मिल गई। फिल्म बड़ी बहन ने उन्हें चोटी के खलनायक के रूप में स्थापित कर दिया।
नायक से बड़ा खलनायक
''हिंदी सिनेमा के 100 साल पूरे होने के पाक मौके पर प्राण साहब जैसी शख्सियत को दादा साहेब फाल्के अवार्ड मिलने से और ज्यादा खुशी की बात क्या हो सकती है। उनकी रग-रग में हिंदुस्तानी सिनेमा बसा हुआ है।'' - महेश भट्ट (निर्देशक)
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''अरे वाह! मैं बहुत खुश हूं, जो उन्हें इस अवार्ड से नवाजा गया। यह फिल्म इंडस्ट्री में सबसे बड़ी खुशी का दिन है। हालांकि उन्हें यह पुरस्कार बहुत देरी से दिया गया।'' - मनोज कुमार (अभिनेता)
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''वे कमाल के कलाकार और उम्दा इंसान हैं। उन जैसा कलाकार सदियों में पैदा होता है। वे आए तो हीरो बनने थे, लेकिन विलेन के रूप में उन्होंने धूम मचाकर रख दी। उनकी अदाकारी देख मैं दांतो तले अंगुलियां दबा लेती थी।'' - सायरा बानो (अभिनेत्री)
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''यह पूरी इंडस्ट्री को सम्मान मिलना सरीखा है। प्राण साहब ने बतौर कलाकार विलेन के कद को काफी ऊंचा किया। वह अपने अभिनय से दिलीप कुमार और देव साहब को टक्कर देते थे।'' - राज बब्बर (अभिनेता)
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''प्राण अपनी भूमिकाओं में ऐसा आकर्षण पैदा करते थे कि खलनायक को भी दर्शक चाहने लगते थे। उन्होंने देवआनंद से लेकर अमिताभ बच्चन तक एक सफल पारी खेली। उनकी अदाकारी से फिल्म के हीरो का कद बढ़ जाता था।'' - सुधीर मिश्र (निर्देशक)
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''हम उन्हें विलेन के तौर पर देखते हुए बड़े हुए, लेकिन वह हीरो थे।'' - ऋषि कपूर (अभिनेता
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