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Chhattisgarh Chunav 2018: चुनावी समर में पूरी तैयारी से उतरेंगे पांडवों के वंशज, राष्ट्रपति के दत्तक पुत्रों को चुनाव से ढेरों आस

CG Chunav 2018: यह दत्तक पुत्र आज अपने हकों के लिए ब्लॉक, तहसीलों और राजनीतिक आकाओं के यहां चक्कर काट रहे हैं।

By Rahul.vavikarEdited By: Published: Sat, 17 Nov 2018 08:12 PM (IST)Updated: Sat, 17 Nov 2018 08:12 PM (IST)
Chhattisgarh Chunav 2018: चुनावी समर में पूरी तैयारी से उतरेंगे पांडवों के वंशज, राष्ट्रपति के दत्तक पुत्रों को चुनाव से ढेरों आस
Chhattisgarh Chunav 2018: चुनावी समर में पूरी तैयारी से उतरेंगे पांडवों के वंशज, राष्ट्रपति के दत्तक पुत्रों को चुनाव से ढेरों आस

अंबिकापुर (राकेश पांडेय, नई दुनिया)। सत्ता की राजनीति में अज्ञातवास का हमेशा से ही महत्व रहा है। भावी विजेताओं को संघर्षकाल में अक्सर अज्ञातवास में जाना पड़ा है। महाभारत काल में जहां शकुनि के पासों से मात खाकर पांडवों को अज्ञातवास पर जाना पड़ा वहीं अंग्रेजों के वारंट के चलते डा. राजेंद्र प्रसाद को अज्ञातवास के लिए उन्हीं पांडवों के वंशजों के यहां शरण लेनी पड़ी थी। अज्ञातवास के बाद पांडव विजेता बनकर उभरे और डा. राजेंद्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।

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सरगुजा के जंगल से बस्तियों तक निवास कर रहे पण्डो जनजाति जो खुद को पांडवों का वंशज होने का दावा करते हैं, इनका इतिहास ही निराला है। डा. राजेंद्र प्रसाद जब राष्ट्रपति बने तो पण्डो जनजाति को राष्ट्रपति का दत्तक पुत्र बनाया। यह दत्तक पुत्र आज अपने हकों के लिए ब्लॉक, तहसीलों और राजनीतिक आकाओं के यहां चक्कर काट रहे हैं। लगातार उपेक्षित पण्डो को उम्मीद की आस तब दिखाई देती है जब राज्य में चुनावी लाउडस्पीकर बजने लगते हैं और घोर वीराने में बसी उनकी बस्तियों में सियासी पहरुए वायदे की पोटली लेकर दस्तक देते हैं। पट्टों के नवीनीकरण, पानी-बिजली की सुविधाओं, बस्तियों में सड़क लाने और बेहतर जिंदगी के जुमले एक बार फिर उन्हें आशाओं के समुद्र में ले जाते हैं। अभी तक का इतिहास रहा है कि चुनाव के बाद फिर वही ढाक के तीन पात।

दत्तक पुत्र बनने की दास्तान

पण्डो जनजाति के सामाजिक अज्ञातवास से बाहर आने और पुन: सामाजिक अज्ञातवास में भेजे जाने की दास्तान राजनीति के बदलते चेहरों और मानदंडों की एक मिसाल है। पण्डो के वंशजों को डा. राजेंद्र प्रसाद से शिक्षा का ककहरा पढ़ने का गौरव प्राप्त है। अंग्रेजों के गिरफ्तारी वारंट से बचाने के लिए पूर्व राष्ट्रपति के घनिष्ठ तत्कालीन महाराज सरगुजा ने उन्हें जंगलों में स्थित पण्डो की बस्ती में प्रौढ़ शिक्षक कहकर पेश किया था जो उन्हें आधुनिक शिक्षा से रूबरू कराने वाले थे। शोधकर्ता गोविंद शर्मा बताते हैं कि अंग्रेज संदेह न कर पाएं इसलिए डा. राजेंद्र प्रसाद की बाकायदा नियुक्ति की गई थी और उन्हें राजकीय कोष से वेतन भी दिया जाता था। राष्ट्रपति बनने के बाद वे एक बार पुन: सरगुजा आए और अपने शरणदाताओं से मिलने गए। वहीं पर उन्होंने पण्डो जनजाति को गोद लेकर उन्हें राष्ट्रपति का दत्तक पुत्र घोषित कर दिया।

शरण स्थल को बनाया राष्ट्रपति भवन

डा. राजेंद्र प्रसाद का यह स्नेह दत्तक पुत्र मानने तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि उन्होंने अपने अज्ञातवास के स्थान का जीर्णोद्धार कराके उसे राष्ट्रपति भवन की मान्यता दे डाली। उस बस्ती का नाम पण्डो नगर पड़ गया। इस तरह देश में तकनीकी तौर पर दो राष्ट्रपति भवन हैं। पहला भारतीय लोकतंत्र व गणतंत्र के स्थापत्य प्रतीक के रूप में दिल्ली की रायसीना हिल्स पर और दूसरा उच्च विचार, सादगी और कृतज्ञता को परिलक्षित करता सरगुजा क्षेत्र के सूरजपुर जिले के पण्डो नगर में। दशकों तक सरकारी व राजनीतिक संरक्षण प्राप्त कर चुके पण्डो की दुनिया समय बीतने के साथ बदरंग होती गई। कभी जंगलों में बसने वाली इस नंग-धड़ंग और घुमंतू जनजाति को सभ्य समाज में दाखिल कराने के लिए महाराज सरगुजा और सरकारों द्वारा दिए गए जमीनों के पट्टे अब इनके गले की फांस बन चुके हैं। जंगलों से रिहायशी नाता टूट चुका है और सरकारी नियमों से अज्ञानता ने उन्हें मिली हुई जमीन से बेदखली का फरमान सुना दिया है। अपनी पीड़ा को बयान करते हुए इनमें कई तो यहां तक कहते हैं कि ऐसे सभ्य समाज में रहने से बेहतर था कि हमारे पूर्वज जंगली असभ्य समाज का ही हिस्सा बने रहते। कम से कम लोगों के सामने गिड़ गिड़ाना तो न पड़ता। मियादी पट्टे और हाथियों से परेशानी दरअसल पण्डो को दिए गए जमीनी पट्टे मियादी थे और इनके अनुसार इनकी अनपढ़ता का लाभ उठाकर सरकारी बाबुओं ने ये पट्टे दूसरों के नाम कर दिए। चुनावी गणित में हावी हो चुके धनबल-बाहुबल का फायदा उठाते हुए रसूखदार और राजनीतिज्ञों के चहेतों ने उस भूमि पर कब्जा करना प्रारंभ कर दिया जो तकनीकी तौर पर उनकी हो गई थी लेकिन परंपरागत तौर पर पण्डो की थी। इसके अलावा इन्हें मिले विशेष दर्जे पर धूल पड़ने के साथ ही इनके घरों तक सड़क और बिजली-पानी भी ठीक से नहीं पहुंची। जंगलों के पास बसी इस जनजाति को नई कोयला खदानों के शुरू होने के बाद हाथियों के भी कहर का सामना करना पड़ रहा है।

हक के लिए जाग रहा समाज

अपने हक-हुकूक की लड़ाई के लिए इस जनजाति ने अपने वजूद से राजनीतिक हथियार बनाने का निर्णय ले लिया है। उन्हें इस बात का अहसास है कि डा. राजेंद्र प्रसाद के दत्तक पुत्र होने का तमगा उन्हें मुसीबतों से नहीं बचा सकता और इसके लिए एकतरफा मतदान ही एक मात्र विकल्प है। इस रणनीति के तहत जगह-जगह पंचायतें और बैठकें की जा रही हैं। इनमें यह तय किया जा रहा है कि आने वाली तारीख में किसको वोट किया जाए।

चुनावी बैठकों के सिलसिले में पूछने पर एक पण्डो प्रतिनिधि ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया कि हमन ला महाराज जमीन देहिन वो जमीन हमर होए गइस। बकि सरकार हर जो पाछू पट्टा देहिस ओकर मियाद होएल, कोई हमन ला बतावे नई करिन तो हमार मियाद गुदर गइस। ओ जमीन ला बाहरी आदमी अफन बताय के कब्जा करेबर करत है। सरकारी बाबू मन ला मिलाय के अफन नाम में करवाय लेहिन। हमर पुरखा मन कर जमीन हवे, एला हमन मरियो जाब तबो नई छोड़ब। जंगली हाथी मन हमर घर में राखल धान, चाउर, महुआ मन ला आय के खाय देहेल, अउर घरो मन ला लतियाए के ढूस के तोड़ देहेल। हमर ठन खाए बर नई हय तो कर्जा कामे पटाब। हमन पंडो मन वोट वहि ला देब जो हमके ये सब झंझट से बचाई।


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