किसानों के चार दिनों से चले आ रहे आंदोलन ने पंजाब व पड़ोसी राज्यों के रेल यातायात, जनजीवन व व्यापार पर असर डाला है लेकिन मामले का कोई स्थाई हल अभी निकला नहीं है। इस तरह के आंदोलनों का दूरगामी असर होता है, वह चाहे शासन-प्रशासन हो या किसान सभी के लिए इस तरह के संघर्ष अहितकारी ही साबित होते हैैं। मौजूदा किसान आंदोलन भी जितना लंबा खिंचेगा, उतना ही नुकसानदेय होगा। नरमे की फसल खराब होने के बाद पर्याप्त मुआवजा न मिलने व घटिया कीटनाशक के मामले में किसान खुद को ठगा महसूस कर रहे हैैं। पहले दो दिन के लिए आंदोलन का एलान किया गया था फिर उसे दो दिन और बढ़ा दिया गया। हालांकि 12 अक्टूबर को अब मुख्यमंत्री के साथ उनकी बैठक तय हुई है लेकिन अब भी ऐसा लगता नहीं कि किसान संतुष्ट हैैं। नतीजतन उन्होंने दो दिन आंदोलन और बढ़ा दिया है। यानी छह दिन लगातार रेल रोकी जाएगी। ऐसा देश में बहुत कम हुआ है कि किसी राज्य में रेल व्यवस्था लगभग एक सप्ताह लडख़ड़ाई रहे और सब हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। स्थिति कितनी गंभीर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इन चार दिनों में ही पौने दो सौ के करीब ट्रेनें प्रभावित हुई हैैं, हजारों यात्री परेशान हुए हैैं, करोड़ों के व्यापार पर असर पड़ा है। यही नहीं, पुलिस व प्रशासन की भी रातों की नींद व दिन का चैन काफूर हुआ है लेकिन हकीकत यही है कि सरकार किसानों को समय रहते शांत करने में कामयाब नहीं हो सकी। हालांकि मुख्यमंत्री व उप मुख्यमंत्री ने किसानों को बातचीत का न्योता दिया और इस तरह का आंदोलन न करने की अपील की लेकिन ऐसा लगता नहीं कि उनकी मांगों व मामलों को हल करने के लिए जमीनी स्तर पर कोई ठोस व त्वरित प्रयास हुए। 12 अक्टूबर को बातचीत के बाद भी किसान क्या रुख अपनाते हैैं, यह कहना मुश्किल है। सरकार को चाहिए कि वह इस आंदोलन को हर हाल में जल्द खत्म करवाए। किसानों की मांगें जायज हो सकती हैैं लेकिन उन्हें भी यह जरूर सोचना चाहिए कि आखिर ट्रेनें रोककर वे किसका भला व किसका नुकसान कर रहे हैैं? यह तो कानूनन भी गलत है। लोकतंत्र में अपनी आवाज बुलंद करने का हक सभी को है, लेकिन इसका तरीका क्या हो, इस पर भी विचार जरूरी है। किसानों के नाम पर सियासी रोटियां भी नहीं सेंकी जानी चाहिए और न ही उन्हें भड़काना चाहिए। अगर ऐसा कोई कर रहा है तो वह किसानों, राज्य व देश का ही नुकसान कर रहा है।

[स्थानीय संपादकीय: पंजाब]