परीक्षाओं में नकल की बीमारी हरियाणा को बुरी तरह घेर चुकी है। विद्यार्थी तो इससे ग्रस्त हैं ही, अभिभावक और अध्यापक भी नकल कराने में पीछे नहीं रहते। जिन्हें नकल रोकने की जिम्मेदारी दी जाती है, वे भी नकल रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते। हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड के उड़नदस्ते यदि नकलचियों को न पकड़ें तो प्रदेश में नकलची पकड़े ही न जाएं। इसकी पुष्टि तथ्यों से हो रही है। बोर्ड की तरफ से नकल रोकने के लिए प्रदेश के सभी जिलों में प्रशासनिक अधिकारियों के 163 उड़नदस्तों ने सिर्फ 854 नकलची ही पकड़े हैं।

दूसरी तरफ बोर्ड के उड़नदस्ते अब तक करीब साढ़े चार हजार नकलची पकड़ चुके हैं। प्रशासनिक अधिकारियों की इस लापरवाही से स्पष्ट है कि शिक्षा के संहार में वे भी बराबरी की भागीदारी कर रहे हैं। जहां तक स्कूलों की बात है तो उनमें से ज्यादातर नकल को अपनी आय का अतिरिक्त साधन तो मानते ही हैं, इसके जरिये अपने स्कूलों का परिणाम सुधारने के लिए प्रयासरत रहते हैं। यही वजह है कि परीक्षा केंद्र बनाने के लिए हर तिकड़म लगाई जाती है और वांछित रकम दी जाती है। अधिकारी भी इसमें पूरा योगदान करते हैं। इसके बाद जब परीक्षा शुरू होती है तो सब अपने अभियान में जुट जाते हैं। नकल कराना ही नहीं बल्कि नकलची पकड़े न जाएं, इसके लिए भी सजग रहते हैं।

इसलिए यह माना जा सकता है कि ऐसी स्थिति में नकलची विद्यार्थियों को पकड़ पाना दुरूह कार्य है। लेकिन, जब बोर्ड के अधिकारी नकलची विद्यार्थियों को पकड़ सकते हैं तो प्रशासनिक अधिकारी जिन्हें बोर्ड नकल रोकने के लिए अच्छी खासी रकम का भुगतान करता है, वे क्यों नहीं पकड़ पाते? जाहिर है कि वे लापरवाही बरतते हैं। इसी से दुखी होकर बोर्ड अब उन्हें यह जिम्मेदारी न देने का मन बना चुका है। लेकिन इससे क्या होगा। ऐसे अधिकारियों की चरित्र पंजिका में दर्ज किया जाना चाहिए कि उनमें दायित्व बोध नहीं है। तब शायद वे अपने दायित्व को समझें।