भारतीय मिशन प्रमुखों की सालाना बैठक में बड़ी शक्तियों के साथ भारत के संबंधों के अलावा पाकिस्तान और चीन से तनाव का मसला छाया रहा तो इस पर हैरत नहीं। पाकिस्तान के साथ चीन का व्यवहार भारत के लिए चिंता का विषय बनना ही चाहिए। हालांकि पाकिस्तान का भारत विरोधी रुख कोई नई बात नहीं, लेकिन चीन के हालिया तेवर कोई शुभ संकेत नहीं। वह जिस तरह अपनी शर्तों पर भारत से दोस्ती करना चाह रहा है उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह अजीब है कि चीन एक ओर यह चाह रहा है कि भारत वन बेल्ट-वन रोड नामक उसकी महत्वाकांक्षी परियोजना का हिस्सा बने और दूसरी ओर वह भारतीय हितों की परवाह करने से भी इन्कार कर रहा है। इससे भी अजीब यह है कि वह यह भी रेखांकित कर रहा है कि यदि भारत इस परियोजना से संबंधित सम्मेलन में भाग नहीं लेता तो यह भारतीय हितों के लिए ठीक नहीं होगा। यह और कुछ नहीं एशिया का स्वयंभू चौधरी बनने वाला रवैया है। चीन का ऐसा ही रुख पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से गुजरने वाले चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को लेकर है। वह यह तो चाहता है कि भारत ताइवान, तिब्बत और दक्षिण चीन सागर के मसले पर उसकी भावनाओं का ध्यान रखे, लेकिन वह खुद अरुणाचल प्रदेश और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को लेकर भारत की चिंता को समझने के लिए तैयार नहीं। वह तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा के हाल के अरुणाचल दौरे को लेकर जिस तरह अभी भी तूल देने में लगा हुआ है उससे उसके इरादों को लेकर संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। दलाई लामा इसके पहले चार-पांच बार अरुणाचल की यात्रा कर चुके हैं, लेकिन यह पहली बार है जब चीन जरूरत से ज्यादा विरोध प्रदर्शन करने में लगा हुआ है। ऐसा क्यों है, इस पर भारत को गंभीरता से ध्यान देना होगा।
यह सर्वथा उचित है कि भारतीय नेतृत्व चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को लेकर हर आवश्यक मंच पर अपनी आपत्ति दर्ज कराए। आखिर जब चीन कश्मीर विवाद को भारत-पाकिस्तान के बीच का द्विपक्षीय मसला मानता है तब फिर वह इसी कश्मीर के हिस्से से आर्थिक गलियारा बनाने की तैयारी कैसे कर सकता है? यदि चीन यह चाहता है कि भारत उसकी संप्रभुता की परवाह करे तो उसे भी ऐसा करना होगा। चीन के बारे में यह भी नहीं भूला जा सकता कि वह अराजक पाकिस्तान की ढाल बना हुआ है। चूंकि चीन भारतीय हितों के समक्ष नए सिरे से चुनौती बनता दिख रहा है इसलिए मोदी सरकार को पड़ोसी देशों से संबंध सुधार के अपने अभियान कोे और गति देनी होगी। पिछले दिनों पाकिस्तान को छोड़कर अन्य सभी दक्षेस देशों को दक्षिण एशियाई उपग्र्रह की जैसी सौगात दी गई उसका सिलसिला कायम रहना चाहिए। सच तो यह है कि भारत को दक्षेस के स्थान पर कोई वैकल्पिक संगठन खड़ा करने की कोशिश करनी चाहिए। इसके जरिये वह पड़ोसी देशों में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने में कहीं अधिक सक्षम हो सकेगा। विदेश नीति पर विशेष सक्रियता मोदी सरकार की विशेषता रही है। इस विशेषता को बरकरार रखने के साथ-साथ विदेश नीति को फिर से नई धार देने की जरूरत है।

[  मुख्य संपादकीय  ]