उत्तर प्रदेश में केवल दूध में मिलावट के लगभग डेढ़ हजार मामले लंबित होना चकित ही नहीं, चिंतित करने वाला भी है। दूध में मिलावट के संदर्भ में उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पेश किए गए हलफनामे में जैसे तथ्य सामने आए वे भयभीत करने वाले हैं। यह कल्पना करना भी कठिन है कि दूध में वाशिंग पाउडर जैसी चीजों को मिलाया जा रहा है। यह स्थिति तो यही बताती है कि दूध समेत खाने-पीने की अन्य वस्तुओं में मिलावट की रोकथाम के लिए किसी स्तर पर कुछ भी नहीं किया जा रहा है। दूध में मिलावट की रोकथाम केवल इसलिए ही नहीं हो पा रही है कि जिन लोगों पर इसकी जिम्मेदारी है वे हाथ पर हाथ धरे बैठे हुए हैं, बल्कि इसलिए भी, क्योंकि दूध की खपत के अनुरूप उत्पादन नहीं हो पा रहा है। चूंकि खपत और उत्पादन के बीच अंतर बढ़ता ही जा रहा है इसलिए मिलावटखोरों की बन आई है। यह निराशाजनक है कि दूध के उत्पादन को बढ़ाने की दिशा में कोई ठोस प्रयास होते नजर नहीं आते।

मिलावट पर अंकुश लगाने के मामले में शासन-प्रशासन की निष्क्रियता का एक प्रमाण यह भी है कि उन वस्तुओं में भी बेरोकटोक मिलावट की जा रही है जिनका खपत के अनुरूप ही उत्पादन हो रहा है। शासन-प्रशासन को इसका अहसास हो जाना चाहिए कि मिलावट के खिलाफ चंद दिनों के अभियान छेड़ने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। ऐसे अभियान रस्मअदायगी के रूप में ही चलाए जाते हैं। मिलावट की रोकथाम के संदर्भ में शासन-प्रशासन की ओर से चाहे जैसे दावे क्यों न किए जाएं, यह एक तथ्य है कि मिलावटखोरों के दुस्साहस पर कहीं कोई अंकुश नहीं लगाया जा पा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मिलावटखोरी पर मुश्किल से ही किसी को कोई सजा मिल पाती है। ऐसे किसी प्रकरण को याद करना कठिन है जब मिलावटखोरी पर किसी को ऐसी सजा मिली हो जो मिलावट के धंधे में लगे लोगों के लिए सबक बन सके। न केवल यह आवश्यक है कि मिलावट के लंबित मामलों का त्वरित निस्तारण हो, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि दोषियों को ऐसी कड़ी सजा मिले जो इस गोरखधंधे में लगे लोगों को भयभीत करने वाली हो।

[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]

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