सूर्यकुमार पांडेय। वह जानते हैं, जमानत का सिलसिला कायम है। आज नहीं तो कल मिलेगी ही! कुछ नहीं तो सशर्त तो मिल ही जाएगी। लगता है कि अदालत ने उनको जमानत देकर उनका मनचाहा काम कर दिया। अब वह निहायत मुक्त हैं, परम स्वतंत्र हैं। उनको अपना ही नहीं, गैरों तक के तमाम काम निपटाने की मोहलत मिल गई है। वे सारे काम, जो जेल जाने की वजह से अधूरे रह गए थे और जिनको पूरा करने के सपने सलाखों के पीछे करवटें बदलते हुए देखा करते थे, उनके साकार होने का मौसम आ चुका है।

सबके अपने-अपने सपने हुआ करते हैं। इन्हें देखने पर काहे की पाबंदी! लोग देखते थे, देखते हैं और देखते रहेंगे। कुछ लोग उन्हें पूरा भी करना चाहते हैं। कई लोग तो ऐसे भी पाए गए हैं, जिन्हें सिर्फ सपने देखने की आदत पड़ी रहती है। ऐसे लोग न जाने कैसे-कैसे सपने देखने लग जाते हैं कि नैनों की जोत चली जाती है। बेचारों को कुछ सूझता नहीं है, इसलिए थोड़ा-बहुत बहक जाया करते हैं। अपने ख्वाबों के पीछे अंधे हो चुके ऐसे ही स्वनामधन्य महानुभावों के लिए ये निचली और ऊपरी अदालतें बनी हुई हैं। यदि इस धरती पर चोरी-चकारी, लोभ, बेईमानी, भ्रष्टाचार, हिंसा वगैरह न होती तो कोर्ट कचहरी का अस्तित्व भी नहीं होता। वकीलों के चेंबर में मक्खियां भिनभिनाया करतीं।

लोग पकड़े जाते हैं। जेलों में प्रेमपूर्वक लाए जाते हैं, मेहमानखाने में बाइज्जत ठहराए जाते हैं। खाते-पीते हैं, मौज करते हैं। तब एक रोज अदालत के सामने पेश किए जाते हैं। इरहें-जिरहें होती हैं। प्रेस-टीवी वाले फोटुएं खींचते हैं। वे गर्व से खिंचवाते हैं। मन ही मन हुड़कते हैं, 'एक दफा बाहर आ जाऊं, फिर देखना, कितनों की खालें खींचता हूं!' वह जानते हैं कि शेर की खाल ओढ़े सियार-सी दिखने वाली उनकी आकृति के पीछे एक खूंखार भेड़िया है।अभी मांद में है। छूटने का इंतजार है। फिर वे जमानत पर छूट जाते हैं और तब मस्ती से छुट्टा सांड की मानिंद जिधर तबीयत आ गई, चरने को निकल पड़ते हैं। आखिरकार वे ही जमानत पर छूटे हैं, उनकी आदतें नहीं।

एक आरोपित जनसेवक की भी दिली इच्छा उसके भीतर उमड़ती-घुमड़ती है। देश को ठिकाने लगाने का लक्ष्य उनकी काजलदार-अंधी आंखों में नई चमक पैदा करता है। अब पूरे होंगे सपने। वह यह भी जानता है कि काश लोभ के दर्पण के सामने वह इस कदर अंधा न होता, तो 'जेल-बेल' की नौबत ही क्यों आती? कहा भी गया है, चारे के अंधे को हर तरफ भूसा-ही-भूसा नजर आता है। ऐसी जीवात्माएं जमानत पर रिहा होती हैं और जेल की कोठरियां सूनी पड़ जाती हैं। वह भी सोचती हैं, हाय, कितने अरमानों से पाला था इन्हें कि ताउम्र साथ निभाएंगे। मगर ये बड़े बेवफा निकले।

कोठरियां सोचती हैं, ये ऐसे बेवफा न होते तो यहां आते ही क्यों? फिर यह विचार कर संतोष करती हैं कि तू नहीं और सही। 'कल और आएंगे नोटों की मोटी गड्डियां गिनने वाले, तुमसे ज्यादा खाने वाले तुमसे बेहतर पीने वाले।' ऐसे लोग भी इन्हीं गद्दों पर लेटेंगे। रात-रात भर हवालों-घोटालों के नाम लेते हुए बड़बड़ाएंगे। खर्राटे भी लेंगे तो लगेगा कि सीबीआइ और ईडी गले में अटकी हुई हैं। आजकल यही इस मुल्क की नियति हो गई है। लोग इसे पान की तरह खा और चबा रहे हैं। जब गाल भर जाते हैं तो जेलों को उगालदान समझकर यहां की दीवारों पर दो-चार पीकें मारने चले आते हैं। कारागारों का पर्यावरण खराब करते हैं और सादर जमानत पर बाहर चले जाते हैं। कई तो ऐसे निकले, जो यहां आए ही नहीं! बाहर ही बाहर अग्रिम बेल लेकर ठाठपूर्वक पूरे देश को जेलखाने में बदलने की तजबीजें तलाशने में लगे हैं।

अहा, कितनी सुविधाएं हैं? करोड़ों का वारा-न्यारा करो और पचास-पचास हजार के एक या दो मुचलके भर कर चौड़े से टहलो। मुकदमे चलते रहेंगे। तारीखें पड़ती रहेंगी। जनता की कमर पर लातें पड़ती रहेंगी। अदालतें 'आर्डर-आर्डर' करती रहेंगी। वह इसे आदेश मानकर अपने धंधे निपटाते रहेंगे। डरने की कोई जरूरत नहीं है। जो डर गया, वह मर गया। जो अमर हैं, वे भ्रष्टाचार का अनंत सिलसिला जारी रखे हुए हैं। वह जानते हैं, जमानत का सिलसिला कायम है। आज नहीं तो कल मिलेगी ही! कुछ नहीं तो सशर्त तो मिल ही जाएगी।