बलबीर पुंज

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज के घटनाक्रम के संदर्भ में सार्वजनिक विमर्श का मुद्दा क्या है? क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही प्रश्न मात्र है या देश की अखंडता, एकता, संप्रभुता और अस्मिता पर प्रहार करने का कुत्सित षड्यंत्र? पहले 2016 फरवरी में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कश्मीर मांगे आजादी, भारत तेरे टुकड़े होंगे..जैसे नारे लगे तो उसके एक वर्ष बाद 22 फरवरी, 2017 को रामजस कॉलेज का परिसर भी इसी तरह के राष्ट्रविरोधी नारों से गूंज उठा। दोनों घटनाओं में किरदार और उनकी विचारधारा मुख्य रूप से वामपंथी है, जिसका समर्थन कांग्रेस-जदयू जैसे तथाकथित सेक्युलरिस्ट दल कर रहे हैं। वामपंथी और उनके समर्थक रामजस कॉलेज की घटना को लोकतांत्रिक-संवैधानिक मूल्यों पर आघात बता रहे हैं। क्या उनके संगठनात्मक इतिहास और वैचारिक अधिष्ठान में इन मूल्यों का कोई स्थान है? वामपंथियों की विशेषता है कि सत्ता से बाहर वह लोक अधिकारों, अभिव्यक्ति, प्रजातंत्र और संविधान की बातें करते हैं, किंतु सत्ता में आने के बाद उन्हीं मूल्यों को मौत के घाट उतार देते हैं। क्या यह सत्य नहीं कि जब 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू करते हुए सभी नागरिकों से उनके अधिकार छीन लिए थे तब आरंभ में केवल वामपंथियों ने ही उनका समर्थन किया था? बाद में जब संजय गांधी ने कम्युनिस्टों पर सीधे प्रहार करना शुरू किया तब माकपा को आपातकाल में इंदिरा गांधी का अधिनायकवादी चेहरा नजर आया।
भारत में वामपंथी दर्शन के सबसे बड़े शिकार भारत की सनातन बहुलतावादी संस्कृति, राष्ट्रवादी संगठन और उससे संबंधित कार्यकर्ता रहे हैं। 2016 में केरल में जबसे वामपंथी सरकार बनी है तबसे वहां भाजपा-संघ के कई कार्यकर्ताओं की हत्याएं हो चुकी हैं। गुरुवार को ही कोझिकोड के नदपुरम में संघ के दफ्तर के पास देसी बम से हमला हुआ जिसमें संघ के चार कार्यकर्ता घायल हो गए। केरल में हिंसा का दौर ईएमएस नंबूदरीपाद के कार्यकाल से जारी है। वाम हिंसा केवल केरल तक सीमित नहीं है। पश्चिम बंगाल में 35 वर्षों के वामपंथी शासन में भी ऐसी ही विकट स्थिति थी। वामपंथी वर्गभेद मिटाने के लिए जिस सांस्कृतिक क्रांति का शंखनाद करते हैं, वह वास्तव में वैचारिक विरोधियों के लहू से सिंचित है। भारत ही नहीं, विश्व के जिस भू-भाग में भी माक्र्सवादी व्यवस्था कायम हुई वहां उन्होंने हिंसा को ही अपनी विचारधारा को पोषित करने का माध्यम बनाया। माक्र्सवाद में असहमति को सहन नहीं किया जाता। इसमें एक नेता और एक ही विचार पर विश्वास रखने का सिद्धांत है। जो असहमत हों उन्हें मत रखने की स्वतंत्रता तो छोड़िए, सर्वहारा के हित के नाम पर जीने के अधिकार से भी वंचित कर दिया जाता है।
अपने राजनीतिक और वैचारिक विरोधियों को समाप्त करने के मामले में जहां क्रूर वाम तानाशाह लेनिन-स्टालिन ने हिटलर को पीछे छोड़ दिया वहीं माओ ने भी साम्यवाद के नाम पर लाखों निरपराधों का खून बहाया। कंबोडिया के सनकी पोल पॉट के उदाहरण से इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि साम्यवाद में मानव जीवन और उसके अधिकारों का कोई स्थान नहीं है। उत्तर कोरिया में किम जोंग के शासन में केवल संदेह होने पर विरोध करने वाले को तोप के सामने खड़ा कर उड़ा दिया जाता है। विश्व में वामपंथी समाजवाद का मुलम्मा 1990 के दशक तक उतर गया। सोवियत संघ में समाजवादी ढांचे के कारण लोग अपनी हर आवश्यकताओं (दूध, ब्रेड, अंडे इत्यादि) को पूरा करने के लिए कतार में खड़े होते थे। सोवियत आर्थिक ढांचे से प्रेम के कारण ही भारत में भी यही स्थिति आई। 1991 में देश को अंतरराष्ट्रीय देनदारियों को पूरा करने के लिए स्वर्ण भंडार गिरवी रखना पड़ा था। चीन में साम्यवाद का अस्तित्व बना हुआ है तो इसलिए कि वहां वामपंथी अधिनायकवाद के अधीन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है। माक्र्सवादी छात्र इकाई आइसा और एसएफआइ सदस्यों द्वारा आजादी के नारे उसी मानसिकता के परिचायक हैं जिसने भारत को कभी एक राष्ट्र के रूप में स्वीकार नहीं किया। 1993 में एक फ्रांसीसी समाचार पत्र में जेएनयू की वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर ने भविष्यवाणी की थी कि भारत संभवत: अधिक समय तक एक नहीं रह पाएगा। जो 1943 तक मास्को स्थित कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की अंगीकृत कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के झंडे तले रहते हुए भारत को विभाजित करने के षड्यंत्र में शामिल रहे वे सनातन भारत के प्रति वफादार कैसे हो सकते हैं?
वामपंथ के प्रारंभिक मत प्रचारक जब भारत आए तो कुंभ मेले में उमड़े जनसैलाब को देखकर बड़े निराश हुए। उन्होंने तभी यह मान लिया था कि इस अध्यात्म प्रधान देश में साम्यवाद का पनपना कठिन है, इसलिए उन्होंने भारत को टुकड़ों में बांटने का हरसंभव प्रयास किया। इसी कारण केएम अशरफ और हीरेन मुखर्जी जैसे कॉमरेडों ने यह सिद्धांत उछाला कि भारत अलग-अलग राष्ट्रों का समूह है। जो वामपंथी द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों के साथ थे और स्वाधीनता सेनानियों के खिलाफ मुखबिरी करते हुए गांधी-सुभाष जैसे नेताओं के खिलाफ अपशब्द बोलते थे उन्होंने 15 अगस्त 1947 के बाद भी देश को स्वतंत्र नहीं माना। उन्होंने 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद के रजाकरों को पूरी मदद दी। नक्सली नेता चारू मजूमदार ने चीन का चेयरमैन-हमारा चेयरमैन कहते हुए भारत के खिलाफ जो युद्ध छेड़ा वह आज भी माओवाद के नाम से जिंदा है। परतंत्र भारत में मुस्लिम लीग को छोड़कर वामपंथियों का ही वह एकमात्र राजनीतिक कुनबा था जो पाकिस्तान के सृजन के लिए अंग्रेजी षड्यंत्र का हिस्सा बना। वामपंथी 1962 के युद्ध में चीन के साथ खड़े रहे। अगर भारत की सनातन बहुलतावादी संस्कृति को नष्ट करना पाकिस्तान का एजेंडा है तो उसे क्रियान्वित करना चीन की अघोषित नीति बन चुकी है। भारतीय वामपंथी इन दोनों ‘शत्रु’ देशों के अग्रिम दस्ते का काम करते हैं। समय के साथ वामपंथियों की पद्धति, उनके नारे और प्रमुख किरदार भले ही बदल गए हों, किंतु वे आज भी भारत को पुन: विभाजित करने की ही आजादी मांग रहे हैं। जिस वामपंथ-जिहादी गठजोड़ ने 1947 में भारत को मजहब के नाम पर दो टुकड़ों में बांटा, 1980-90 के दशक में कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन के लिए विवश किया उसी विभाजनकारी नीति की पुनरावृत्ति आज वे देश के अन्य भागों में भी करना चाहते हैं। इस पृष्ठभूमि में क्या सभ्य समाज मूकदर्शक बना रह सकता है?
[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं ]