संस्कृत भाषा में भारत की सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित है और इसलिए इस पर ध्यान देना स्वाभाविक है। संस्कृत की उपेक्षा हमें उस विरासत से विलग कर देती है। शाब्दिक रूप से 'संस्कृत' का अर्थ है तैयार, शुद्ध, परिष्कृत, श्रेष्ठ आदि। इसे 'देववाणी' भी कहा जाता है। ऐसा कह कर कई लोग अज्ञानवश इसे सिर्फ पूजा-पाठ, कर्मकांड से जुड़ा मान बैठते हैं। इसके चलते इस भाषा को 'अवैज्ञानिक' तथा 'परलोकवादी' करार दे कर अनुपयोगी ठहरा कर खारिज कर देते हैं। यह अलग बात है कि इसका केवल पांच-सात प्रतिशत साहित्य ही इस तरह का है। दूसरी ओर एक बड़ी सच्चाई यह है कि इसके अंतर्गत सुरक्षित षड् दर्शनों को जाने बिना हम उस चिंतन तक नहीं पहुंच सकते जो भारत देश की संस्कृति का मूल आधार बना हुआ है। यह कहना गलत नहीं होगा कि संस्कृत वाङमय हजारों वर्षों पुरानी भारतीय सभ्यता का एक सजीव और मूर्त रूप है। यह भाषा किसी न किसी रूप में केरल से चल कर कश्मीर और कामरूप से चल कर सौराष्ट्र तक सभी क्षेत्रों के लोगों के जीवन में महत्वपूर्ण और पावन क्षणों में उपस्थित रहती है। यह अंदर से बिना प्रकट हुए सबको बांधने का काम करती है और ज्ञान के आलोक से सबको प्रकाशित करती है। यह सबकी एक साझी विरासत है और इस अर्थ में अत्यंत व्यापक है कि यह स्थानीयता के आग्रह से पार जाती है। इसमें इतिहास का पश्चिमी मोह नहीं है और देश काल का अतिक्रमण कर सबका समावेश कर पाने की क्षमता विद्यमान है। इसके सरोकार व्यापक हैं और यह साहित्य, पर्यावरण, शिक्षा, ज्ञान तथा मानव गरिमा की रक्षा करने के लिए तत्पर है। इसी को ध्यान में रख कर भारत की शिक्षा नीति जो 1968 में और फिर 1986 में प्रस्तुत की गई थी, उसमें स्पष्ट रूप से संस्कृत के अध्ययन के महत्व को स्वीकार करते हुए देश की सांस्कृतिक विरासत व प्राचीन ज्ञान को आगे की पीढिय़ों तक पहुंचाने के लिए संस्कृत की शिक्षा को आवश्यक माना गया।

इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि एक भाषा के रूप में संस्कृत अनेक भारोपीय भाषाओं की जननी है और उनके साथ गहराई से जुड़ी हुई है। भाषा की व्यवस्था को देखने पर उसकी वैज्ञानिकता अनेक अध्येताओं ने असंदिग्ध रूप से स्थापित की है। भाषा वैज्ञानिकों के लिए यह अभी भी एक चुनौती बनी हुई है, परंतु प्रतीकों के उपयोग की संस्कृत भाषा केवल एक पक्ष है। इससे भी अधिक यह एक व्यापक विचार पद्धति और जीवनशैली की व्यवस्था भी प्रस्तुत करती है। संस्कृत की विशाल और वैविध्यपूर्ण ज्ञान-राशि में वेद, पुराण, उपनिषद्, आरण्यक, रामायण, महाभारत ही नहीं, बल्कि शंकर, रामानुज, माध्व गौतम, कपिल, जैमिनी जैसे महान दार्शनिक, पाणिनि, कात्यायन, भर्तहरि जैसे वैयाकरण, पतंजलि जैसे योगगुरु, आर्य भट्ट, ब्रह्म गुप्त और भास्कर जैसे गणितज्ञ, चरक और सुश्रुत जैसे महान आयुर्वेदज्ञ, भरत जैसे नाट्यविद और वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति, भास, व्यास, बाणभट्ट और दंड़ी जैसे अनेकानेक सर्जकों के अनेक विशिष्ट और उल्लेखनीय अवदान भी हैं। इनमें से बहुतों की वैज्ञानिकता, तर्ककुशलता, जीवन में उपयोगिता और अकादमिक मूल्यवत्ता, देश-विदेश के अध्येताओं को सदियों से आकर्षित करती रही है।

इस क्रम में श्रीमद्भागवतगीता का नाम सबसे ऊपर आता है। इस पुस्तक ने विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को देश ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी निरंतर प्रेरित किया है और आज भी उसका महत्व कम नहीं हुआ है। इसी तरह श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथों ने बाद के कवियों और चिंतकों को प्रभावित किया है। प्राच्य विद्या के रूप में संस्कृत के विविध पक्षों पर विदेशों में अनेक विश्वविद्यालयों में शोध और अध्ययन का कार्य हो रहा है, परंतु भारत में इसकी उपेक्षा चिंता का विषय है। इसकी उपेक्षा कई कारणों से है जिनमें संस्कृत को लेकर हीनता की भावना और इसे पुरातनपंथी मानना प्रमुख हैं। इसे केवल संग्रहालय की वस्तु मानना और इतिहास की वस्तु समझ कर आंखों की ओट कर देना किसी भी तरह विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता। संस्कृत को पंथनिरपेक्षता के लिए खतरा मान बैठना और संकीर्ण मानना तथ्य पर आधारित न हो कर रूढिग़त धारणा है जो पूर्वाग्रह से ग्रसित है।

संस्कृत को खोने का मतलब है भारत का अतीत खोना, अपनी अस्मिता खोना और अकूत ज्ञान राशि से हाथ धो बैठना। संस्कृत की ज्ञान-राशि की यह विशेषता है कि उसमें अद्भुत किस्म की बहुलता है और विचारों का प्रजातंत्र है जिसमें विविधता का आदर और स्वीकार है। इन्हीं सब विशिष्टताओं के मद्देनजर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और प्रगतिवादी पंडित नेहरू ने कभी कहा था कि 'अगर मुझसे पूछा जाए कि भारत का सबसे बड़ा खजाना क्या है और श्रेष्ठतम विरासत क्या है तो असंदिग्ध रूप से यही कहूंगा कि संस्कृत भाषा और साहित्य और जो कुछ उसमें है। यह उत्कृष्ट विरासत है और जब तक यह जीवित है, हमारे समाज के जीवन को प्रभावित करती है, तब तक भारत की मेधा अक्षुण्ण बनी रहेगी।'

यह याद रखना चाहिए कि भाषा केवल अक्षर और शब्द भंडार की यांत्रिक व्यवस्था मात्र नहीं होती है। यह अपने साथ बहुत सारे विचार भी लाती है, दुनिया को देखने का एक नजरिया भी देती है और एक वैकल्पिक विश्व भी रचती है। संस्कृत की विरासत संभाल कर भारत भारत रह सकेगा और समकालीन विमर्श में सार्थक उपस्थिति बना सकेगा। संगीत और कला के अनेक रूप की भव्य उपस्थिति इसका एक प्रमुख उदाहरण है।

(गिरीश्वर मिश्र: लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं)