शिव कुमार राय

दो चतुर सुजान चचा-भतीजा बैठ गए और ताजा अखबार और बासी चाय के साथ देश दुनिया का ज्ञान बहने लगा। भतीजे ने अखबार पर नजर मारते हुए कहा कि लो, ये डॉक्टर लोगों के तो मजे हो गए, यूपी सरकार ने रिटायरमेंट की उम्र बढ़ा के साठ से बासठ कर दी है। चचा ने चाय सुड़कते हुए अखबार से सिर उठाया और इत्मीनान से फरमाया कि नहीं भाई, इससे डॉक्टर लोग खुश नहीं हैं, बल्कि उन्होंने तो इस फैसले का विरोध भी किया है। यह क्या बात हुई भला? वहां मास्टर लोग अपनी रिटायरमेंट की उम्र बढ़ाने के लिए जब-तब धरना प्रदर्शन करते रहते हैं, यहां बिन मांगी मुराद मिल रही है तो भी खुश नहीं हैं? इस सहज सवाल पर ज्ञानी चचा ने ज्ञान दिया कि भई मास्टर, मास्टर हैं और डॉक्टर, डॉक्टर ....हर गली में, हर मुहल्ले में, बल्कि हर घर में मास्टर मिल जाएंगे, मगर डॉक्टर दिया ले के भी खोजने से नहीं मिलते हैं। मिल भी जाते हैं तो उनके आगे मरीजों की इतनी भीड़ और लाइन लगी रहती है कि भगवान के दर्शन को ज्यादा टाइम मिल जाता है, मगर घंटा भर लाइन लगा के भी अपना नंबर आने पर दर्शन को उतना टाइम नहीं मिल पाता है। फिर डॉक्टर की किसी से बराबरी कैसे की जा सकती है? बात को ऐसे समझो कि मास्टर सरकार का मोहताज हो सकता है, मगर डॉक्टर सरकार का मोहताज कतई नहीं है, बल्कि सरकार ही मोहताज है डॉक्टर की।
यह बात तो ठीक है, मगर सवाल तो फिर भी वही का वही है कि डॉक्टर लोग इस फैसले से खुश क्यूं नहीं हैं। आखिर सरकार दो साल और ज्यादा तनख्वाह देने को तैयार है? जब यह बात सामने आई तो ज्ञानी सुजान चचा तनिक मुस्कुराए, अपना सिर हिलाया और फिर शुरू की असली भेद की बात, ‘देखो भाई, पहली बात तो यह रही कि तनख्वाह से किसी जमाने में गुजारा न हो सका, इस जमाने की तो बात ही क्या? याद करो कि प्रेमचंद ने क्या लिखा था कि तनख्वाह तो पूर्णमासी का चांद है जो एक दिन मिलने के बाद रोज घटता ही जाता है। तो असली चीज है पी पी यानी प्राइवेट प्रेक्टिस। यही सदानीरा है जिसका पानी कभी कम नहीं पड़ता। अभी चचा आगे कुछ कहते कि भतीजा बीच में ही बोल पड़ा कि क्या चचा, तुमको क्या लगता है कि सरकारी डॉक्टर लोग पी पी नहीं करते? चचा ने अनुभवी आंखें मिचमिचाईं और कहना शुरू किया, ‘करते होंगे बेटा, खूब करते होंगे, मगर मैं ऐसा कहने का पाप अपने माथे काहे को लूं? मेरी समझ में तो सरकार ने प्राइवेट प्रेक्टिस न करने का ठीक ठाक सा भत्ता जब अलग से दे रखा है और डॉक्टर लोग हर महीने इसे चौड़े से अपनी तनख्वाह का हिस्सा समझ के ले रहे हैं तो नहीं ही करते होंगे पी पी, मगर असली बात है सरकारी अस्पतालों की हालत, मरीजों की रोज की भीड़-भाड़ और चिकिर-पिकिर, पुलिस केस होने पर कोर्ट-कचहरी का चक्कर और सबसे बढ़कर जिसे देखो, मंत्री से लेकर ग्राम प्रधान तक, डीएम से लेकर तहसीलदार तक आके आंखें दिखा जाता है जैसे सारे लोग सरकारी काम ठीक से कर रहे हैं और बस एक डॉक्टर ही है जो अपना काम ठीक से नहीं कर रहा। ऐसे में कौन बुढ़ापे में दो साल और अपनी मिट्टी पलीद करवाए, बस इसीलिए दुखी हैं डॉक्टर लोग।
तुम भी चचा, डॉक्टर लोगों को कुछ ज्यादा ही बेचारा बनाए दे रहे हो। इतने भी बेचारे नहीं हैं जितना तुम बताने की कोशिश कर रहे हो। शहरों के सरकारी अस्पताल में तो शायद मिल भी जाएं, कस्बे और गांवों के सरकारी अस्पतालों में कंपाउंडर को ही डॉक्टर समझिओ, काहे कि डॉक्टर साहब तो शहर में ही पाए जाते हैं। भतीजे के बाउंसर को झेल कर चचा ने कहा कि इसमें कौन सी बड़ी बात है? जब गांव का आदमी ही गांव में नहीं रहना चाहता, शहर में चाहे खोली में ही रहना पड़े। रोजी-रोजगार के चक्कर में शहर फैलते जा रहे हैं, फूलते जा रहे हैं इतना कि लगता है कि फूट ही न पड़ें। फिर खाली डॉक्टर से ही इस बलिदान की मांग काहे की जा रही है कि बिना बिजली, पानी और सड़क के गांव और कस्बे के अस्पताल में अपनी जिंदगी नरक करें। फिर उनके भी बाल बच्चे हैं जो कहते हैं, पूछते हैं कि वाह पापा, आप तो खुद तो पढ़े बनारस, भोपाल, दिल्ली जैसे शहरों के मेडिकल कॉलेज में और हमारे लिए पिछड़े हुए जिले का कसबा। इसलिए डॉक्टरों में सरकारी नौकरी का क्रेज खत्म होता जा रहा है। नया डॉक्टर आने को तैयार नहीं हैं, जो फंस गए हैं उन्हीं को सरकार और फंसाए जा रही है।
हजारों डॉक्टरों ने तो स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए भी आवेदन दे रखा है। हालांकि सरकार आवेदन स्वीकार तो छोड़ो, विचार भी नहीं कर रही। यह बात मैं नहीं मेरे डॉक्टर दोस्त ने कही, चचा ने बात खत्म करते हुए कहा। यानी कि डॉक्टरों को गांव और कस्बे के अस्पताल में बुलाना हो तो बिजली, पानी, सड़क और बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ेगी? भतीजे ने आंखें बड़ी करके हैरत से पूछा। चचा ने समझने के अंदाज में फरमाया कि ‘बिल्कुल सही।’ भतीजे ने लगाया जैकारा कि ‘न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी’ कि यह काम तो पिछले सत्तर साल में न हो पाया और अगले सत्तर साल तक भी बस उम्मीद ही है। चचा ने न तो न कहा न हां। बस अपने डॉक्टर दोस्त के दुख को महसूस करते हुए मन में सोचने लगे कि अच्छा हुआ! हम डॉक्टर न हुए!

[ हास्य-व्यंग्य ]