एन के सिंह 

दिल्ली स्थित एक नामी अस्पताल में एक महिला के जुड़वां बच्चे पैदा हुए-एक बेटा और दूसरी बेटी। डॉक्टरों ने बताया कि एक बच्चा मरा पैदा हुआ और दूसरा कुछ ही क्षण बाद मर गया। जब दुखी मां-बाप अपने सगे संबंधियों के साथ उन ‘शवों’ को अंतिम क्रिया के लिए ले जा रहे थे तो आधे रास्ते में पिता ने देखा कि एक ‘शव’ में कुछ हरकत हो रही है। फौरन उसे कफन से निकाल कर पास के अस्पताल में ले जाया गया, जहां कई दिनों तक चले इलाज के बाद उसे बचाया नहीं सका। दरअसल घंटों पॉलिथीन में ऑक्सीजन के अभाव में बंद बच्चे की स्थिति गंभीर हो गई थी। मीडिया में खबर आने के बाद देश के स्वास्थ्य मंत्री ने मामले का संज्ञान लिया। इसके पहले गुरुग्राम में एक अन्य नामी गिरामी अस्पताल ने सात साल की एक बच्ची के 15 दिन चले असफल इलाज में पिता को 16 लाख रुपये का बिल पकड़ा दिया था।

सोशल मीडिया और बाद में मुख्यधारा की मीडिया में खबर आने के बाद स्वास्थ्य मंत्री ने मामले का संज्ञान लिया। तीसरे मामले में नोएडा के एक मशहूर अस्पताल में एक व्यक्ति ने आरोप लगाया कि उसकी पत्नी 3 दिन पहले ही मर चुकी थी, पर अस्पताल प्रबंधन ने वेंटीलेटर पर रखकर तीन दिनों में ही हजारों रूपये का बिल बनाया। पता नहीं स्वास्थ्य मंत्री  जी ने इस मसले को संज्ञान में लिया या नहीं? उक्त तीनों घटनाएं पिछले 15 दिनों के भीतर घटी हैं। दिल्ली - एनसीआर में उपचार में लापरवाही के ये तीन मामले स्वास्थ्य तंत्र को कठघरे में खड़ा करने के साथ ही शर्मिंदा करने वाले हैं। इन तीन घटनाओं से तीन निष्कर्ष निकलते हैं। आप या आपका बच्चा बीमार पड़े तो निजी अस्पताल में जाने के बाद तीन बातों का ध्यान रखें। अस्पताल में जरूरी नहीं कि इलाज हो और अगर हो तो मरीज बच ही जाए। फिर कब मरे और कब मरना बताया जाए, यह भी अस्पताल और ़डॉक्टर की 'प्रोफेशनल बुद्धिमत्ता' पर निर्भर करेगा।

अगर मरना बता भी दिया गया तो जरूरी नहीं कि यह सच हो इसलिए उसे एकबार और किसी डॉक्टर को दिखा लें। और आखिरी में अगर दुर्भाग्य से मरीज मर भी गया हो तो आप उस बिल के सदमें से न मरें। एक सीख यह भी है कि अगर आप अस्पताल और उसके मनमाना बिल से बच भी गये हो तो कम से कम सोशल मीडिया की शरण जरूर लें।कई बार मुख्याधारा का मीडिया तभी मामले की गंभीरता समझता है, जब वह सोशल मीडिया में वायरल हो जाता है। आकिर क्या हो गया है देश की नैतिकता, समझ और कर्तव्यबोध को? क्या हत्या का अपराध सिर्फ चौराहे पर गोली मारने को कहा जाना चाहिए? कम से कम दस साला पढ़ाई और हाउस जॉब के बाद किसी डॉक्टर से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वह हमारी-आपकी टैक्स के रूप में वसूली गयी रकम के लाखों रूपये खर्च करने के बाद इतना ज्ञानी या जिम्मेदार तो हो ही जाता है कि जिंदा और मरे में अंतर कर सके?

मोदी सरकार के तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्द्धन ने ओडिशा एम्स में डॉक्टरों को संबोधित करते हुए जुलाई, 2014 में बताया था कि एक डॉक्टर बनाने में सरकार जनता के टैक्स का 8 से 10 करोड़ रूपया खर्च करती है। आखिर इनमें से चंद डॉक्टर (सभी नहीं) इतने अनैतिक क्यों हो जाते हैं कि अस्पताल और अपना बिल बढ़ाने के लिए मरे हुए व्यक्ति को कई दिनों तक वेंटीलेटर पर रखकर धंधा करते हैं? क्या यह संगठित अपराध की परिभाषा में नहीं आना चाहिए? जेब काटने वाले को तो हर कोई पकड़े जाने पर दो हाथ लगा देता है और कानून भी मुस्तैद हो जाता है, पर इन पढ़े लिखे लोगों के नाम पर चल रहे 'क्राइम सिंडिकेट' का मसला तभी क्यों सामने आता है जब मंत्री जी को मीडिया के जरिए बाताया जाता है? इस पर भी गौर करें कि अधिकांश अस्पतालों में दवा एमआरपी पर ही मिलती है। पेटेंट की जगह जेनेरिक दवा लिखवाने के सारे सरकारी प्रयास विफल हो रहे हैं। कई डॉक्टर अभी भी महंगी दवा लिखकर कंपनियों से मोजी रकम कमीशन के रूप में वसूल रहे हैं। क्या कभी किसी सरकार ने पूछा है कि पांच सितार होटलों में दवा कंपनियों के खर्चे से होने वाले मेडिकल सेमिनार कैसे चिकित्सा ज्ञान बढ़ाने का सबब बनते हैं?

इस तस्वीर का दूसरा पहलू देखिए। अगर आप बिहार में पैदा हुए हैं तो वहां की सरकार आपके स्वास्थ्य पर मात्र 338 रूपये का खर्च करेगी, जबकि हिमाचल , उत्तराखंड या केरल में पैदा हुए हैं तो  क्रमश:छह गुना, पांच गुना और चारगुना खर्च करेगी। आप दूसरे शब्दों में उपयुक्त सरकारी सुविधा के अभाव में आप बिहार, उत्तर प्रदेश या झारखंड में गरीब होते हुए भी अपनी जेब से इसका पांच गुना खर्च करेंगे भले ही इसके लिए आपको घर या जमीन बेचनी पड़े। गुजरात और महाराष्ट्र में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च क्रमश:1040 और 763 रूपये हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत मलेरिया पर काबू पाने में असफल रहा है और आज 70 साल बाद भी केवल 8 प्रतिशत मलेरिया के मामले ही सर्विलांस के जरिरए संज्ञान में आता है। इस मामले में नाइजीरिया के समकक्ष खड़ा है। बाल मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर और जन्म के समय बच्चे क वजन या कुपोषण  आदि पैमाने पर भी भारत आज बेहद पीछे है। इसका कारण यह है कि जहां हम देश के सकल घरेलू उत्पाद का मात्र एक प्रतिशत से भी कम स्वास्थ्य मद में खर्च करते हैं वहीं चीन और कुछ छोटे-छोटे देश चार प्रतिशत तक खर्च करते हैं।

हालांकि मोदी सरकार के वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने संसद में नयी स्वास्थ्य नीति रखते हुए इसे जीडीपी का 2.5 प्रतिशततक लाने के संकल्प जताया था, लेकिन जब बजट आया तो वह कहीं भी पारिलक्षित नहीं हुआ। तो गरीब क्या करें? सरकारी अस्पताल में दवा नहीं, डॉक्टर नहीं इलाज के लिए उपकरण नहीं कभी-कभी तो मंशा भी नहीं उधर ऐसे अस्पतालों की गिनती करना कठिन हो रहा जो ऐसे इलाज के बहाने धंधा  कर रहे हैं। क्या कानून बनाकर अनैतिक व्यापार करने वालों पर अंकुश लगाना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है।

[लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं]