जीवन और मृत्यु पर किसी का वश नही है। फिर भी जीवन की इच्छा अदम्य है। लोग अपने-अपने कारणों से जीवन जी रहे हैं। किसी को धन चाहिए, किसी को प्रतिष्ठा, किसी को परिवार। हर कोई लेना चाहता है, देने में किसी की दिलचस्पी नही है। प्राप्त करने की अभिलाषा इतनी प्रबल होती जाती है कि मनुष्य कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। लोगों के इस व्यसन ने समाज में असंतुलन पैदा कर दिया है। लोग पा लेने में ही लगे रहेंगे, तो उनका क्या होगा जो निर्बल हैं, असहाय हैं, अभावग्रस्त हैं । समाज तो आज भी दो भागों में बंटा है। एक वर्ग उन लोगों का है, जो मनचाहा प्राप्त करने में समर्थ हैं। दूसरी ओर वे हैं, जिन्हें अन्य का सहारा चाहिए। समर्थ अर्जित करने में लगा है और देने की इच्छा नहीं रखता, तो यह बड़ा संकट है। इस कारण सामाजिक आदान-प्रदान रुक जायेगा। जैसे सृष्टि के संचालन में दिन का ही नहीं रात का भी बराबर का योगदान है।
शीत ऋतु है, तो ग्रीष्म ऋतु का भी स्वागत है। दिन सदा ही रात के लिए स्थान बना रहा है। शीत ऋतु अनवरत ग्रीष्म ऋतु के लिए राह छोड़ रही है। दिन और रात का बदलना, ऋतुओं का आना-जाना उनके आकर्षण को बनाए रखता है। मनुष्य में जब देने की प्रवृत्ति जन्म लेती है, तो उसका प्रभामंडल बनता है। जब वह अपने परिवार के लिए उदार होता है, परिजनों का स्नेह मिलता है, परिवार से निकलकर समाज के प्रति सहयोग और उपकार उसे आदरणीय बनाते हैं। किसी की सहायता से मात्र उसकी आवश्यकताएं ही नहीं पूरी होती हैं, बल्कि इससे समाज में सद्गुणों का प्रसार भी होता है। अन्य लोग इससे प्रेरित होते हैं। मनुष्य की सारी उपलब्धियां तभी सार्थक हैं, जब समाज में सुख और शांति का वातावरण हो। श्रेष्ठ बीज और उत्तम भूमि मात्र से ही सुंदर फूल नहीं खिलते। इसके लिए उन्हें वायु, प्रकाश और जल की आवश्यकता भी होती है। सद्गुणों के प्रभाव में ही समाज प्रफुल्लित होता है। इनके अभाव में कुछ लोगों का अति धनवान, ज्ञानवान, शक्तिशाली और प्रभावशाली हो जाना, कोई मायने नहीं रखता। शेर को वन का राजा कहा जाता है, किन्तु वह एक ऐसे राज्य का राजा है जहां सभी उससे आतंकित होकर छिपे फिर रहे हैं। शेर अकेला होता है जिससे उसकी आन-बान अर्थहीन हो जाती है। देना सबसे बड़ा मानवीय गुण है, जो जीने का एक निश्चित उद्देश्य प्रदान करता है।
[ सत्येंद्र पाल सिंह ]