प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मई 2014 में भले ही अपने पक्ष में जनादेश हासिल करने में सफल रहे, लेकिन भूमि अधिग्रहण बिल पर जारी राजनीतिक संघर्ष बताता है कि राज्यसभा में अल्पमत के कारण योजनाओं को पूरा करने को लेकर सरकार के समक्ष किस तरह की चुनौतियां हैं। इस सदन में एक तिहाई सीटें प्रति दो वर्ष पर होने वाले चुनावों के माध्यम से नए सिरे से भरी जाती हैं। यदि मोदी संसद के ऊपरी सदन में नियंत्रण पाना चाहते हैं तो उन्हें आगामी चार वर्षों तक कई राज्यों में होने वाले चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करना होगा। उन्हें अपने चुनावी वादों को कानून का रूप देने के लिए इसकी आवश्यकता होगी।

कहा जा रहा है कि दो मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंदियों-भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच संघर्ष की राजनीति के चलते संसद के दोनों सदनों का संयुक्त सत्र बुलाना पड़ेगा ताकि इस भूमि अधिग्रहण बिल के लिए जरूरी बहुमत हासिल किया जा सके और इसे पारित किया जा सके। यह विकल्प होने के बावजूद इसे अपनाया ही जाएगा, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि खुद भाजपा के तमाम सहयोगी दल भूमि अधिग्रहण बिल का विरोध कर रहे हैं।

यदि हम शुरुआत से ही राज्यसभा में राजनीतिक दलों की शक्ति का विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि देश के केवल दो प्रधानमंत्रियों जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री को ही अपने पूरे कार्यकाल के दौरान संसद के इस ऊपरी सदन में बहुमत प्राप्त रहा है। शेष नौ प्रधानमंत्री इस सदन में संख्या के अभाव में कमजोर ही रहे। संसद के दोनों सदनों को पहली बार 1952 में गठित किया गया था। यद्यपि वर्तमान में राज्यसभा में कुल 245 सदस्य हैं, लेकिन ऐसा हमेशा नहीं रहा है।

इस सदन की शुरुआत 216 सदस्यों से हुई थी और कांग्रेस ने इसमें अपने 146 सदस्यों के साथ शुरुआत की थी, जो कि दो तिहाई बहुमत से भी अधिक था। 1956 में यह आंकड़ा बढ़कर तीन चौथाई पहुंच गया। वास्तविकता यही है कि प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पूरे कार्यकाल के दौरान इस सदन में कांग्रेस पार्टी के सदस्यों की संख्या 146 से 186 के बीच रही। 1964 में जब नेहरू की मृत्यु हुई तो ऊपरी सदन में कांग्रेस के 166 सांसद थे।

इंदिरा गांधी ने भी 1966 में इसी सदन से अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत की थी, लेकिन 1969 में कांग्रेस में बहुचर्चित बंटवारे के बाद राज्यसभा में कांग्रेस का वर्चस्व खत्म हो गया। कुल 99 सांसदों के साथ कांग्रेस का उनका अपना धड़ा अल्पमत में आ गया जब 42 सांसदों ने टूटकर एक अलग कांग्रेस (ओ) पार्टी बना ली। यह स्थिति आगामी तीन वर्षों यानी 1972 तक बनी रही, लेकिन वह पुन: इस सदन में बहुमत हासिल करने में कामयाब रहीं। यह सिलसिला 1977 तक चलता रहा जब लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की करारी हार हुई। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई भी 1977 से 1979 तक अपने कार्यकाल के दौरान इस सदन में बहुमत से वंचित रहे।

इस क्रम में एक और टूट के बाद इंंदिरा गांधी राज्यसभा में बहुमत हासिल करने में सफल रहीं। यह 1980 में उनकी सत्ता में पुन: वापसी के कारण संभव हो सका। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भी चार वर्षों तक इस सदन में स्पष्ट बहुमत हासिल रहा, लेकिन बोफोर्स घोटाले के फलस्वरूप वीपी सिंह के अलग होने के बाद 245 सदस्यों वाली राज्यसभा में उनकी ताकत घटकर महज 108 रह गई। इसके बाद अगले प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव उतने भाग्यशाली नहीं रहे। उन्होंने लोकसभा में महज 232 सदस्यों के साथ अल्पमत सरकार को पूरे कार्यकाल चलाया।

संख्या के अभाव में वह अन्य दलों के तदर्थ समर्थन पर आश्रित रहे। राव को भी राज्यसभा में अल्पमत स्थिति का सामना करना पड़ा, जहां उनके सदस्यों की संख्या 85 से 99 के बीच रही। राजग सरकार को 1988 से 2004 के बीच में अटल बिहारी वाजपेयी ने चलाया, लेकिन उनकी सरकार भी इस सदन में दूसरों पर ही निर्भर रही। अपने सहयोगी दलों के साथ गठबंधन बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी की ताकत भी इस सदन में महज 45 से 49 के बीच रही। उस समय राजग के सबसे बड़े घटक दल तेलुगू देसम पार्टी के सदस्यों की संख्या इस सदन में महज 13 थी।

राजग को केंद्रीय सत्ता से हटाने वाली संप्रग सरकार को भी राज्यसभा में समर्थन के संकट का सामना करना पड़ा। दस वर्षों के कार्यकाल में संप्रग में सबसे अधिक शक्ति रखने वाली कांग्रेस के सदस्यों की संख्या इस सदन में 71 से 73 के बीच रही। इसने घटक दलों के साथ कुछ छोटी पार्टियों और निर्दलीयों का भी अतिरिक्त समर्थन जुटाया, लेकिन संप्रग सरकार भी तदर्थ तौर पर राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाज पार्टी और दो वामपंथी पार्टियों के रणनीतिक समर्थन पर बहुत हद तक निर्भर थी। भाजपा के पूर्ववर्ती रूप जनसंघ के पास 1952 में राज्यसभा में केवल एक सीट थी। भाजपा को 1990 में कुछ शक्ति तब मिली जब इसके सदस्यों की संख्या 40 से अधिक हो गई। पिछले दो दशकों में इस सदन में इसकी ताकत 41 से 51 सदस्यों तक रही है। कानून बनाने वाले और सरकार का संचालन करने वालों पर इसका गंभीर असर हुआ, क्योंकि संविधान के मुताबिक धन विधेयक को छोड़कर अन्य सभी विधेयकों को दोनों सदनों में पारित किया जाना अनिवार्य है।

यदि कोई विधेयक एक सदन से पारित होने के बाद दूसरे सदन द्वारा खारिज कर दिया जाता है अथवा विधेयक में किए गए संशोधन के प्रति दोनों सदन असहमत होते हैं तो अनुच्छेद 108 राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह दोनों सदनों का संयुक्त सत्र आहूत करें जिसमें विधेयक पर मतदान हो। पहली बार दोनों सदनों का संयुक्त सत्र तब बुलाया गया था जब 1961 में दहेज निषेध विधेयक को लेकर राज्यसभा लोकसभा से असहमत हो गई, लेकिन यह इसलिए नहीं हुआ कि सत्ताधारी पार्टी के पास संख्याबल का अभाव था। प्रधानमंत्री नेहरू के पास उस समय राज्यसभा में अपने 164 सदस्यों की एक बड़ी संख्या थी। यह प्रस्तावित कानून को लेकर दोनों सदनों के सदस्यों के बीच वास्तविक असहमति का एक उदाहरण था।

मई 1978 में जनता पार्टी सरकार ने बैंकिंग सर्विस कमीशन (निरसन) बिल को लेकर भी संयुक्त सत्र बुलाया था जब राज्यसभा में बहुमत प्राप्त कांग्रेस ने इसे अस्वीकार कर दिया। तीसरी बार संयुक्त सत्र का आयोजन 2002 में हुआ जब राज्यसभा में बहुमत प्राप्त कांग्रेस के तीव्र विरोध के बावजूद वाजपेयी सरकार आतंकवाद निरोधी बिल को पारित कराना चाहती थी। क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के प्रसार और उनकी एकजुटता के कारण 1989 के बाद से राज्यसभा में बडे़ विधेयकों के मामले में गतिरोध की स्थिति समस्या बनती रही है। वर्तमान संदर्भ में भी कानून निर्माताओं के लिए निर्मित संवैधानिक व्यवस्था पर नए सिरे विचार करने की आवश्यकता है, लेकिन सवाल यही है कि क्या हम इसके लिए तैयार हैं।

(ए सूर्यप्रकाश : लेखक प्रसार भारती के अध्यक्ष हैं)