प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं के फलादेशों पर गहन विमर्श जारी है। कुछ लोग इसे एक क्रांतिकारी नई पहल तो कुछ इसको घरेलू चुनावों में 'को उपजो मो सम जग माँहीं' वाले प्रभुत्व प्रदर्शन के लिए धारण किया नाटकीय तेवर मात्र बता रहे हैं। इधर हर पल ब्रेकिंग न्यूज देकर खबरिया चैनलों की वजह से लोगों को हर नई घटना को युगांतरकारी समझ बैठने की एक आदत हो गई है। सच तो यह है कि मानव इतिहास में हर निर्णायक मोड़ की बुनियाद उसके सतह पर आने से काफी पहले चुपचाप बनती रहती है। मसलन जब बर्लिन की दीवार गिरने के बाद पूंजीवादी और साम्यवादी धड़ों के बीच बीसवीं सदी का सबसे बड़ा युद्ध बिना घरेलू खूनखराबे या किसी परमाणु हमले के अचानक ही खत्म हो गया तो 2015 में अनेक विश्व सरकारों, बाजारों को हिला रहे आइएसआइएस सरीखे आतंककारी गुटों की बुनियाद पडऩी शुरू हो गई थी। उस समय खतरनाक पर्यावरण क्षरण, नए तानाशाहों के उभार, रूस से यमन तक माफिया तथा आतंकी कबीलाई संगठनों के उदय और भूतपूर्व चेक गणराज्यों में सर्ब और क्रोएशियन आबादी के सांप्रदायिक खूनी टूट जैसे पूर्वसंकेतों को लगभग अनदेखा कर दिया गया था और पूंजीवादी धड़े में शीत युद्ध की समाप्ति और अमेरिका के इकलौती विश्व महाशक्ति बनने और एशिया के तेल संपन्न देशों से पश्चिम के नए रिश्तों को लेकर कई उछाहभरे सोहर बन्ने गाए जाते रहे। आज यूनान से नीदरलैंड तक बदहवास भटकते रिफ्यूजियों की भीड़ और अमेरिका में बढ़ती नस्ली वारदातों की जड़ में भी वही अनदेखे तत्व मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। उन जड़ों पर गहन विचार के बजाय दुनिया यूएन के घाट पर विश्वनेताओं की भीड़ के बीच पिटे पिटाए जुमलों में टिकाऊ विकास तथा आतंकनिरोध की रस्मी व्याख्याएं ही सुनकर अपनी कर्तव्यपूर्ति मान रही है।

सोवियत संघ के टूटने से नई दुनिया का बनना एक अधूरी मखमली क्रांति से अधिक नहीं। येल्तसिन सरीखे बड़बोले नेताओं ने तो सिर्फ सत्तारूढ़ पार्टी के भीतरी खोखलेपन को पश्चिम की वाहवाही और केबल टीवी की मदद से उजागर करके पुराने शासन को बेदखल किया है, पर इतिहास के तीन बड़े रक्तपिपासु पिशाचों यानी अंध राष्ट्रवाद, धार्मिक कट्टरपंथ और नस्लवाद को खत्म करने का कोई नुस्खा हमको नहीं मिल सका है। 21वीं सदी की कई निर्णायक लड़ाइयां होनी अभी बाकी हैं।अहंकार से भरा पूंजीवाद जब साम्राज्यवाद के चोले में वापस आएगा तो यह तीन पिशाच एशिया अफ्रीका में लोकतांत्रिक राज समाज की संरचना के हर यज्ञ का विध्वंस करने दौड़ पडेंग़े।

यह भविष्यवाणी हमारे नेतृत्व के लिए भी गौरतलब है। बीस बरस पहले सीनियर बुश ने देश की तत्कालीन अर्थव्यवस्था की अभूतपूर्व उछाल से लहक कर साम्यवादी बोतल में दो सदी से कैद धार्मिक कट्टरपंथी कबीलाई पिशाचों को बाहर निकाल कर एशिया की फिजां में छोड़ दिया था। उनसे एक खूनी आंधी उठी। उसने यूरोप को अवाक कर अमेरिकी सुरक्षा कवच को बेमतलब बनाया और फिर यूरोपीय महासंघ की अर्थव्यवस्था को दिवालियापन की कगार पर ला दिया है। ऐसे में घरेलू सुरक्षा, नए रोजगार सृजन और अपनी बड़ी सी अनिवासी पटरी से उतरती अर्थव्यवस्था की बहाली का हवाला देते हुए पश्चिमी देशों से पूर्व की तरफ पूंजी के उमडऩे का ऐलान और इस संभावना पर संशय जताने वाले मीडिया के खिलाफ तमाम तरह की बंदिशें लगाना सयानापन नहीं। विकासशील-विकसित भाईचारे की दुहाई देने या मीडिया पर लगाम लगाने से नए सरदर्द गायब नहीं होंगे। इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी जैसे उपनिवेशवादी बड़े देश ही नहीं ग्रीस सरीखे छोटे देश भी आज अपना जगबंधुत्व वाला पवित्र तेवर त्याग कर खुल्लमखुल्ला कहने लगे हैं कि अफ्रो एशियाई संस्कृतियां उनकी संस्कृति से भिन्न हैं। लोकतंत्र पूर्व को पश्चिम जैसा बना सकता था, पर जिद्दी एशियाइयों ने उसे नाकाम बना दिया है और अपने विस्थापित हमारे मत्थे डाल रहे हैं। समय कठोर है। मिस्न, ट्यूनीशिया, लीबिया की जनता ने जिस तरह नए सोशल मीडिया की भरपूर मदद से बिना बड़े नेताओं के जनक्रांतियों की जो शृंखला रची थी, आंदोलनकारियों की विशाल भीड़ ने जिस तरह एशिया और अफ्रीका के तेल समृद्ध देशों पर बरसों से काबिज तानाशाहों को बाहर फेंक दिया था वे सारी तख्तापलट की घटनाएं अब तक मखमली क्रांतियां ही साबित हुई हैं। आइएसआइएस के उदय से लग रहा है कि नव धर्मांधता के दौर में लोकतंत्र की लंबी और मशक्कत भरी साझा डगर पर चलना कितना कठिन है।

कई लोगों को इस तरह की बातें नागवार गुजरती हैं। वे बहुत गुस्से से पूछते हैं कि हमारे नेतृत्व की करिश्माई भाषणशैली, मिलनसारिता और देशभक्ति से ओतप्रोत परदेसी सभाओं में जुटी अनिवासी युवा भारतीय भीड़ का जुनून क्या इस बात का प्रमाण नहीं कि भारत अब दुनिया में सबसे लोकप्रिय और तेजी से उभरता देश है। बिहार चुनाव आसन्न हैं और सरकार की उपलब्धियों में विदेश यात्राओं की सफलता का बखान उसकी जनसभाओं में जरूर शामिल होगा, पर जब अपने ही दल के अनेक अनुभवी तपे-तपाए लोगों द्वारा भाजपा पर दागी प्रत्याशी उतारने के संगीन आरोपों की बढ़ोतरी हो रही हो तब सच्चाई याद रखनी होगी कि लोकतंत्र बनाना और उसमें अपने दल की निर्विवाद स्वीकार्यता बनाना एक लंबी श्रमसाध्य दौड़ है। इस दौड़ में जीत कर स्थायी नाम कमाने के इच्छुक नेतृत्व के लिए पहली बाध्यता होगी कि जीता हुआ दल ईमानदार लोकतांत्रिक नियमानुशासन के तहत चले। कठिन बाध्यता खुद नेतृत्व पर लागू होगी। इससे पहले कि नेतृत्व दूसरों से जवाबतलबी करे, लोकतंत्र का देवता पहले खुद नेतृत्व से विवेकशील धीरज और असली विनय के साथ की गई भूलों का सार्वजनिक स्वीकार मांगता है। सोशल नेटवर्किंग में कुशल जनसंपर्क का रंगरोगन नेताओं को हवा से होड़ लेते भले न दिखाता हो, लेकिन जमीनी लोकतंत्र में स्थायी और सकारात्मक बदलाव ट्विटर और फेसबुक पर क्रांतिकारी नारेबाजी पोस्ट करने से नहीं आते।

[लेखिका मृणाल पाण्डे, वरिष्ठ स्तंभकार हैं और प्रसार भारती की प्रमुख रह चुकी हैं]