सूर्यकुमार पांडेय

महीनों में एक उत्तम महीना है सावन का महीना। इस महीने की बात ही कुछ निराली है। सावन में पवन शोर करने लगती है। दादुर भाषण झाड़ने लगते हैं और मोर कैबरे करने लगते हैं। धरती हरियाली की जीएसटी से आच्छादित हो जाती है। सावन आता है और बादल धरती को बूंद-बूंद आश्वासन पिलाने में मशगूल हो जाया करते हैं। उधर आम जनता के मन में सांपों को दूध पिलाने की प्रवृत्ति अंगड़ाई लेने लगती है। सावन में ही नागपंचमी जो पड़ती है। यह वही मशहूर महीना है, जिसमें विरहिन और पपीहे ‘पिउ-पिउ’ का पाठ रटते हैं। सावन में अच्छे-अच्छों को दूर की सूझती है। नाबीना और काबीना, दोनों को ही सर्वत्र हरा-हरा नजारा नजर आने लगता है। स्तंभकारों को कॉलम, युवतियों को बालम और नेताओं को पालम की सुध आने लगती है। भगवान भोलेनाथ के भक्तों को अमरनाथ यात्रा और जलाभिषेक की चिंता सताने लगती है। आतंकवादियों को इसमें विघ्न डालने के मंसूबे जागने लगते हैं। सावन बरसता है तो तन-मन में आग लग जाती है। ऐसे में मुझे उन पर बेहद तरस आता है जो इसकी महिमा को कायदे से नहीं बूझते और अपने लाखों के सावन को ‘दो टकिया’ की नौकरी के पीछे गंवा दिया करते हैं। भला जिसे सावन में भी हरियाली दिखलाई न दे, ऐसों से ‘कार्तिक’ में क्या आस लगाई जा सकती है!
सावन वर्षा ऋतु का केंद्रीय महीना है। यही वह मौसम होता है, जब इंद्र देव प्रसन्न होते हैं। जवां दिलों में नई चाहत जागती है। प्यार के अंखुए फूटते हैं। समूची प्रकृति में ‘रेन डांस’ होने लगता है। रंग-बिरंगी और नंगी-अधनंगी फूल-पत्तियां फैशन परेड करने लगती हैं। संयम के बांध टूट-फूट पड़ते हैं। चाहतें भूस्खलन की शिकार हो जाती हैं और आपदा प्रबंधन नामक सरकारी महकमे के लोग डूबने-उतरने लगते हैं। ठेकेदारों और सरकारों के विकास कार्यों की पोल खुलने लगती है। बड़े-बड़े शहरों में भी निगमों और सरकारों को स्वयं के कार्यों पर नवोढ़ा जैसी लाज आने लगती है।
सीवर और मेनहोल गले तक लबालब भर जाते हैं। नाली, सड़क और मेनहोल का अंतर मिट जाता है। मार्ग पर समाजवादी व्यवस्था हावी हो जाती है। जहां देखिए, वहां पर पानी ही पानी नजर आता है। विकास कार्यों का दावा करने वालों के लिए यह मुंह छिपाने का भी मौसम होता है। जिन जिम्मेदार लोगों की आंखों में पानी शेष है, वे पानी-पानी होने लगते हैं। राहत योजनाओं की छीछालेदर का यही सुहाना मौसम होता है। सावन में बादल तबीयत से बरसते हैं। नाले फूट पड़ते हैं। क्षुद्र नदियां इतराने लगती हैं। जिन्हें शर्म से डूब मरना होता है, वे डूब मरते हैं। बादल गरजते हैं और आसमान से बिजलियां गिरती हैं। जमीनी बिजली मारे शरम के जब-तब नौ-दो-ग्यारह हो लेती है। सरकारी योजनाओं की तरह पानी गड्ढों और नालियों में सिमट जाता है। पुरानी तो पुरानी, नई छतें, छप्परें तक टपकने लगते हैं। घन घमंड से भरपूर सत्तारूढ़ मंत्री गरजते हैं। घोटाले में संलिप्त नेता का मन डरने लगता है। पराजित नेता सोचते हैं, जाने कब अगला चुनाव आएगा और यह सावन उनके आंगन में भी बरसेगा।
बाढ़ आती है। आंखों-आंखों में गांव-नगर फैले कीचड़ की पैमाइश करते हुए माननीय गण हवाई सर्वेक्षणों में जुट जाते हैं और अपने निजी क्षेत्र के बारे में बाकायदा चिंताग्रस्त होते हुए सोचा करते हैं कि कौन कितने पानी में है? वे अपने मातहतों को आदेश देते हैं, जान-माल का नुकसान न होने पाए। मातहत सब समझते हैं। वे अपनी गरम मुट्ठियां बांधे हुए माननीय के आगे-पीछे चक्कर लगाते हैं और तब माननीय का कोई खासमखास बंदा सर्वेक्षणोपरांत उनके कान में फुसफुसाता है, ‘हुजूर, चिंता न करें। आपके रहते इस क्षेत्र में और किसकी मजाल है जो जान-माल को हाथ भी लगा दे।’
कजरी, तीज और मेघ-मल्हारों के इस मौसम की कथा ही कुछ निराली है। भारत देश को स्वतंत्रता भी सावन के आसपास ही प्राप्त हुई थी। शायद यह नहीं आता तो इस देश में आजादी भी न आती। या इसे यों भी कहा जा सकता है आजादी नहीं आती तो यह सावन भी नहीं आता, क्योंकि जबसे ये दोनों आए हैं तब से इतना पानी टपका है कि तमाम बंजर जमीनें हरी-भरी हो गईं हैं और हरी-भरी जमीनें बंजर हो गई हैं। परती में नोट उगने लगे हैं।
सावन में झूलों का अपना महत्व है। लोगबाग मौसम के नशे में नभ को छू रहे हैं। आसमान की आंखें गीली हैं। हालांकि सावन का एक महत्वपूर्ण पर्व ‘रक्षाबंधन’ अभी है, लेकिन बादलों की छाती ‘महागठबंधन’ की तरह दरकी हुई है। फिर भी डरने की कोई बात नहीं है। प्रशासन सजग है। संवेदनशील इलाकों की तरफ इस शरारती और विस्फोटक सावन के प्रवेश पर ‘धारा’ लगी हुई है।

[ हास्य-व्यंग्य ]