भारत-पाक एनएसए वार्ता से पहले नाटकीय घटनाक्रम के लंबे सिलसिले के बीच भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान उफा समझौते की भावना के खिलाफ काम कर रहा है और वह कश्मीरी अलगाववादियों के साथ बैठक सहित नई-नई शर्ते जोड़ रहा है। स्वरूप ने कहा कि यह भारत को स्वीकार्य नहीं है। उनके बयान से स्पष्ट है कि अगर वार्ता रद होती है तो इसके लिए पाकिस्तान जिम्मेदार होगा।

वर्तमान घटनाक्रम के आलोक में उस पृष्ठभूमि को जानना-समझना जरूरी है जिसके चलते भारत को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा। अगर भारत-पाक के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच वार्ता होती है तो दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच उफा में बनी सहमति का कोई महत्व रहेगा। वार्ता का भविष्य अनिश्चित है, लेकिन इस बैठक से पहले जो तमाम घटनाएं हो रही थीं उनसे कुछ संकेत मिलते हैं। जब दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त और कश्मीर के अलगाववादी हुर्रियत गुट के नेताओं के बीच प्रस्तावित बैठक पर केंद्रित गतिविधियों पर सबकी निगाहें थीं तब कश्मीर में भी हलचल तेज हुई। ध्यान रहे कि हुर्रियत के साथ बैठक के कारण ही नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले साल अगस्त में विदेश सचिव स्तर की द्विपक्षीय बातचीत रद कर दी थी। इसलिए रविवार को एनएसए स्तर की बैठक के वक्तअलगाववादी गुट के साथ आधिकारिक बातचीत के संबंध में इस्लामाबाद से उकसाने वाले संकेत ने पाकिस्तान के साथ खींची गई मोदी सरकार की मुनासिब ‘लाल रेखा’ के औचित्य पर स्वाभाविक ही ऐसे सवाल खड़े कर दिए कि क्या यह वार्ता आतंकवाद और सीमा के आरपार गोलीबारी के सीमित एजेंडे पर रहेगी?

दो दिन पहले सुबह ‘जानकारों’ की तरफ से सूचनाएं दी गईं कि मोदी सरकार ने एनएसए वार्ता के बाद तक के लिए हुर्रियत के साथ बैठक स्थगित करने के लिए इस्लामाबाद को मनाने में कामयाबी पा ली है। इसका सतर्कता के साथ स्वागत किया गया। इससे लगा कि दिल्ली और इस्लामाबाद उफा की निर्मलता को बरकरार रखने में सहमति के एक स्तर तक पहुंचे हुए हैं, लेकिन फिर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ आने लगी। पहले घोषणा हुई कि हुर्रियत नेतृत्व को कश्मीर में घरों में नजरबंद कर दिया गया है और इसे द्विपक्षीय एजेंडे पर दिल्ली की ‘कड़ाई’ के तौर पर बताया गया। कुछ ही घंटे बाद घोषणा की गई कि नजरबंदी हटा ली गई है और स्थानीय पुलिस को ‘गिरफ्तार किए गए’ हुर्रियत नेताओं को रिहा करने के निर्देश दिए गए हैं। केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग और जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती टीम के राजनीतिक विरोधियों ने तुरंत ही दिल्ली और श्रीनगर-दोनों ही सरकारों की उनकी अनिश्चितता के लिए आलोचना की। सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है कि प्रमुख मध्यस्थों के बीच कुछ ऐसी बातचीत हुई होगी जिससे इस तरह की घटनाएं हुईं।

जुलाई में दोनों प्रधानमंत्रियों-नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ के बीच उफा समझौते ने दोनों देशों के कट्टरपंथी तत्वों को चौंका दिया था। भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत-भले ही सीमित एजेंडे-पर सहमति और यह कि प्रधानमंत्री मोदी 2016 में दक्षेस सम्मेलन के लिए पाकिस्तान दौरे पर जाएंगे-इस तरह के संयुक्त बयान ने अधिकांश द्विपक्षीय विश्लेषकों को भी चौंका दिया था, लेकिन उफा में इस तरह की सहमति के बाद के हफ्तों में गुरदासपुर और ऊधमपुर में आतंकी हमलों और पाकिस्तान में राष्ट्रमंडल संसदीय संघ सम्मेलन में जम्मू-कश्मीर विधानसभा अध्यक्ष को आमंत्रण नहीं देने की तनावपूर्ण घटनाएं हुईं। ऊधमपुर हमले के बाद जिंदा पकड़े गए मोहम्मद नावेद नामक पाकिस्तानी और उसकी स्वीकारोक्तियों ने मामलों को बिगाड़ा और एनएसए स्तर की बातचीत पर अनिश्चितता बढ़ाई। उफा की सहमति के बाद भी सीमा पार से गोलाबारी की घटनाएं लगातार हो रही हैं। राजनयिक मोर्चे पर भी पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र और इस्लामी देशों के संगठन (ओआइसी) में कश्मीर मुद्दे की ओर ध्यान खींचा और दोनों संगठनों से इस मुद्दे के हल के लिए ‘भागीदारी करने का’ अनुरोध किया। ऊपरी तौर पर, ये सभी घटनाएं और उफा के बाद का घटनाक्रम पाकिस्तान के तीन सत्ता केंद्र- इस्लामाबाद, रावलपिंडी और मुरीदके यह सुनिश्चित करने के लिए लगातार उकसाने वाली गतिविधियां अंजाम दे रहे थे कि भारत-पाकिस्तान बातचीत शुरू होने से पहले ही रोक दी जाए। फिर भी दिल्ली ने उफा की बात पर टिके रहना पसंद किया और इन सभी उकसाने वाली कार्रवाइयों के मद्देनजर आवेगपूर्ण ढंग से प्रतिक्रिया नहीं दी। इससे यह लगा कि मोदी सरकार पाकिस्तान से सम्मति के एक खास स्तर तक सुनिश्चितता बनाए रखना चाहती है। शायद इसके पीछे इरादा यही था कि सदैव पीड़ित पक्ष के रूप में दुनिया के सामने अपने को पेश करने की पाकिस्तानी इच्छा को समाप्त किया जा सके। पाकिस्तान इस रूप में अपने को प्रदर्शित करता रहा है कि वह तो बातचीत को उत्सुक है, लेकिन भारत ही इससे मना कर देता है। इसी आधार पर ‘पीड़ित’ बनकर वह अपनी ओर से पैरवी करने का प्रमुख देशों और वैश्विक समुदाय से अनुरोध भी करता रहता है। अभी ओआइसी के पास इस्लामाबाद का जाना इसी तरह का काम था। यहां उसने मजहबी कार्ड इस्तेमाल किया और मुस्लिम बनाम हिंदू की बात कहकर कश्मीर मुद्दे में दखल का अनुरोध किया।

हाल के महीनों में कई तरह की घटनाओं से पाकिस्तान का दुस्साहस बढ़ा है। इनमें मुल्ला उमर की रहस्यमय मौत की घोषणा तो है ही, यह भी है कि पाकिस्तानी सेना अफगानिस्तान में समाधान के लिए प्रमुख औजार है। यह निरूपण बीजिंग की तरफ से पूरी तरह और अमेरिका की ओर से थोड़ा-बहुत समर्थित है। इस्लामिक स्टेट (आइएस) के उभार और दक्षिण एशियाई क्षेत्र में इसके संभावित असर की बातों ने क्षेत्रीय स्थायित्व की अनिवार्यता को दूसरा आयाम दिया है। इन हालात में भारत को ऐसी नीति बनानी पड़ेगी जो एक ऐसे विरोधी पड़ोसी से निबटने में सक्षम हो जो दूरगामी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के तौर पर आतंक को समर्थन देने पर आमादा है। यहां यह एक बात याद रखना जरूरी है। हाल में गुजर जाने वाले लेफ्टिनेंट जनरल हामिद गुल आतंकवाद के जरिये जेहाद को समर्थन देने के सूत्रधार थे। उन्होंने आतंक विरोधी ललकार के साथ जेहाद वाली दिशा में तेजी के साथ भागने की दोहरी कला में पाकिस्तान को पारंगत कर दिया है। विडंबना यह है कि जिया-उल-हक और हामिद गुल के तीन दशक बाद रावलपिंडी दूसरे किस्म के दावे करते हुए अपने पड़ोसियों के साथ ललकार और तेजी ही बरत रहा है। भारत और अफगानिस्तान को लंबे वक्त वाली रणनीति की जरूरत है जो इस हानिकारक खंडित मानसिकता का पर्दाफाश करने और रोकने के लिए आवश्यक है। एनएसए स्तर की वार्ता का जो भी हो, यह अच्छा हुआ कि पाकिस्तान की हुर्रियत नेताओं से बातचीत करने की जिद के मामले में शुरुआती गफलत के बाद मोदी सरकार ने एक स्पष्ट रेखा खींच दी है।

[सी उदयभास्कर: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]