विवेक काटजू

कश्मीर में आतंकी सरगना मसूद अजहर के भतीजे का मारा जाना और उसके पास से पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली अमेरिकी राइफल बरामद होना यही बताता है कि अमेरिका के दबाव के बाद भी वह शायद ही खुद को आतंकवाद से अलग करे। गौरतलब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान से भारत और अफगानिस्तान को निशाना बनाने वाले लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिजबुल मुजाहिदीन सहित अपनी धरती से संचालित हो रही सभी आतंकी गतिविधियों को रोकने की मांग की थी। बीते दिनों जब अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के दौरे पर थे तो उन्होंने न सिर्फ ट्रंप की बातों को दोहराया, बल्कि वाशिंगटन लौटने के बाद यह भी कहा कि यदि पाकिस्तान उन पर कार्रवाई नहीं करेगा तो अमेरिका यह काम अपने तरीके से करेगा। निश्चित ही उनका फोकस अफगानिस्तान पर था। शुरुआती ना-नुकुर के बाद पाकिस्तान अमेरिका का साथ देने की बात करने लगा। उसके सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा ने काबुल यात्रा में संकेत दिया कि उनका देश खासकर सेना तालिबान के खिलाफ कार्रवाई में उसका भरपूर साथ देगी ताकि वह अफगानिस्तान सरकार के साथ समझौता करने को बाध्य हो जाए। यह अलग बात है कि हकीकत में पाकिस्तान तालिबान पर कभी भी लगाम नहीं लगाएगा जो अफगानिस्तान में लगातार हमले कर रहा है। सच्चाई यह है कि अफगानिस्तान के संबंध में उसके द्वारा सहयोग का सिर्फ दिखावा ही किया जा रहा है।


वास्तव में पाकिस्तान अमेरिका से कह रहा है कि अफगानिस्तान में भारत की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। इसके साथ ही उसने इसके कोई संकेत भी नहीं दिए हैं कि भारत के लिए खतरा बने लश्कर, जैश और हिजबुल को नेस्तनाबूद करने में उसकी कोई दिलचस्पी है। इसके विपरीत उसने कश्मीर में कथित मानवाधिकारों के भारत द्वारा उल्लंघन किए जाने का राग अलापना उसी तरह जारी रखा है। इसके अलावा उसने जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर निर्दोष नागरिकों को निशाना बनाने के साथ-साथ सीमापार से गोलीबारी पर भी लगाम नहीं लगाई है। भारत के खिलाफ उसका दुष्प्रचार अभियान भी लगातार चल रहा है। पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहिद खाकन अब्बासी का बयान और फिर उसके विदेश मंत्री ख्वाजा आसिफ की टिप्पणियां इसकी पुष्टि कर रहे हैं। हालांकि यह अलग बात है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसके इन बेजा बयानों पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा है। चीन और कुछ हद तक रूस को छोड़कर बाकी सारे देश आज पाकिस्तान से अपनी आतंकी गतिविधियों को बंद करने की मांग कर रहे हैं। भारत के प्रति पाकिस्तान का घृणित और शत्रुतापूर्ण रवैया उसकी भारत नीति की प्रकृति और मनोदशा पर एक तरह से प्रकाश डालता है। दरअसल यह भारत के खिलाफ उसकी नकारात्मकता है जो वह अपने वजूद में आने के बाद से ही अपने लोगों के कल्याण की कीमत पर प्रदर्शित करता आ रहा है। इसी के चलते 1971 में उसके दो टुकड़े हो गए।
भारत के साथ वह एक जिम्मेदार देश की तरह पेश नहीं आ रहा है, बल्कि एक अशक्त और सनकी देश की तरह व्यवहार कर रहा है। जिस तरह ऐसे विकार एक व्यक्ति के अस्तित्व के लिए खतरनाक होते हैं ठीक उसी तरह एक देश के लिए भी। पाकिस्तान की इस मनोदशा के सूत्र इतिहास में निहित हैं। द्विराष्ट्र सिद्धांत के उत्पाद पाकिस्तान ने हमेशा स्वयं को इस्लाम का ऐसा चैंपियन माना है जो हिंदू भारत के साथ शाश्वत संघर्ष में स्वयं को घिरा पाता है। यह सांप्रदायिक सोच उसे मुस्लिम लीग के संस्थापक नेताओं से विरासत में मिली। चूंकि वे हिंदू जीवन पद्धति की समावेशी प्रकृति को नहीं समझ सके इसलिए बाद के पाकिस्तानी नेताओं ने भी भारत को कभी भी एक सेक्युलर देश के रूप में नहीं माना। भारत के प्रति नफरत के चलते पाकिस्तान अपने नागरिकों की जरूरतों को नजरअंदाज करता रहा और भारत को नीचा दिखाने के लिए हथियारों की होड़ में लगा रहा। उसने भारतीय हितों को नुकसान पहुंचाने के लिए हरसंभव प्रयास किया है। पिछले तीन दशकों से उसने आतंकवाद को अपना हथियार बना रखा है, यह जानते हुए भी कि यह दोधारी तलवार के समान है। इसके जरिये वह भारत की सामाजिक शांति और एकता को छिन्न-भिन्न करना चाहता है। भारत को विरासत में मिली सहिष्णुता और धैर्य की भावना हमें निश्चिंत करती हैं कि पाकिस्तान अपनी चाल में कभी सफल नहीं होगा।
भारत के प्रति पाकिस्तान के दूषित दृष्टिकोण का एक दूसरा पहलू भी है। पाकिस्तान ने कभी भी इस मूल तथ्य को दिल से नहीं स्वीकारा कि वह अपने छोटे आकार और अल्प संसाधनों के बल पर भारत की बराबरी नहीं कर सकता है। उसका मुख्य ध्येय भारत के साथ प्राकृतिक विषमता के अंतर को घटाना नहीं, बल्कि छोटा करना है। इस संबंध में उसका पसंदीदा विकल्प भारत को तोड़ना है, लेकिन चूंकि यह संभव नहीं है, लिहाजा उसने इस प्राकृतिक विषमता को दबाने के लिए आक्रामकता, आतंकवाद और दुष्प्रचार का सहारा ले रखा है। उसने भारत के साथ सहयोग की भावना विकसित करने के बजाय टकराव की नीति अपना रखी है। जाहिर है कि यदि पाकिस्तान भारत के साथ दोस्ताना व्यवहार करता तो उसकी स्थिरता और समृद्धि में वह खासा योगदान दे सकता था। एक जिम्मेदार और तर्कसंगत देश जहां जरूरत होती है वहां टकराव करते हैं, लेकिन जहां अपने फायदे की बात होती है वहां सहयोग करते हैं। लगता है भारत विरोध के चलते पाकिस्तान अपना भला-बुरा सोचने में नाकाम है। वह इस्लामी कट्टरता के चंगुल में फंसने के साथ ही इस्लाम के उदारवादी दृष्टिकोण से भी दूर होता जा रहा है। वह भारत को काफिर यानी दोयम दर्जे का देश मानता है। यह भावना अधिकांश पाकिस्तानियों के मन में बैठी हुई है कि यदि भारत के प्रति दोस्ताना दृष्टिकोण ही रखना था तो फिर पाकिस्तान क्यों बनाया गया?
चूंकि पाकिस्तान ने भारत के साथ टकराव का रास्ता चुना इसलिए उसने अपने देश में सेना को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। पाकिस्तान में लंबे समय तक प्रत्यक्ष सैन्य शासन की यही वजह रही है। आज नागरिक सरकार होने के बावजूद उसकी सुरक्षा और विदेश नीति पर सेना का ही नियंत्रण है। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान कभी भी एक लोकतांत्रिक देश नहीं बन सकता। कुछ मुट्ठीभर नागरिक समाज के आंदोलनकारियों को छोड़कर पाकिस्तान की अधिकांश जनता भारत को अपना स्थाई दुश्मन मानती है और इस प्रकार सेना को देश की सबसे बड़ी जरूरत मानती है। ऐसी परिस्थिति में भारत को क्या करना चाहिए? भारत अपना पड़ोसी नहीं बदल सकता, लेकिन उसे यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिए कि कुछ पाकिस्तानियों के इस सवाल से घबराकर पाकिस्तान जल्द ही बदल जाएगा कि आखिर भारत विरोधी नीति अपनाने से उसे क्या हासिल हुआ? भारत को यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि वह पाकिस्तान के किसी भी शत्रुतापूर्ण कदम के खिलाफ कठोर कार्रवाई करेगा और उसे उसकी स्थिरता में कोई रुचि नहीं है।
[ लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं ]