आज के इस युग में मुद्दों का जीवनकाल क्षणिक होता है और माहौल चुनावी हो तो तो वे और अधिक क्षणिक हो जाते हैं। प्रतिदिन कोई भड़काऊ बयान या फिर कोई नया उपद्रव सामने आता है और ओझल हो जाता है। इसी आपाधापी में संजय लीला भंसाली की निर्माणाधीन फिल्म पद्मावती को लेकर हुए बवाल का मसला भी आया और चला गया। करणी सेना ने तरह-तरह की चर्चाओं को पत्थर की लकीर मानकर फिल्म के सेट पर धावा बोल दिया। दो-तीन दिन तक माहौल गरम रहने के बाद संजय लीला भंसाली ने कहा कि फिल्म में रानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के रोमांटिक सीन की कोई जगह नहीं होगी।

इस दौरान कई तमाम तरह की बातें कही गईं। किसी ने इतिहास की दुहाई दी तो किसी ने पद्मावती संबंधी इतिहास को ही काल्पनिक बताया, किसी अहिंसा का बखान किया तो किसी ने कहा कि देखिए, हिंदू आतंकी आ गए। मुङो चित्ताैड़ याद आया। मैं बरसों पहले परिवार के साथ वहां घूमने गई थी। तभी पहली बार 16वीं शताब्दी के कवि मलिक मोहम्मद जायसी की रचना पद्मावत पर आधारित रानी पद्मावती की कहानी सुनी-समझी थी। जायसी के इस काव्यग्रंथ में वर्णित कई तथ्य इतिहासकारों के बीच बहस का विषय हैं, लेकिन उस कहानी का जनमानस की चेतना पर एक अलग ही स्थान है।

पद्मावत इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि जायसी अपनी रचना में शायद अनजाने में ही सही उस युग की महिलाओं की विवश परिस्थितियों का प्रतिबिंब खींच गए। 1जायसी कहते हैं कि अलाउद्दीन खिलजी को चित्ताैड़ के राजा रतनसेन द्वारा निष्कासित किए गए एक कवि के जरिये रानी पद्मावती की अद्वितीय सुंदरता का पता चला। खिलजी रानी के बारे में सुनकर कौतूहल से भर उठा। उसने लाव-लश्कर समेत चित्ताैड़गढ़ की घेराबंदी कर ली और रानी को अपने हरम के लिए मांगने लगा। रानी ने साफ मना कर दिया, पर परिस्थितियों से विवश होकर उन्होंने खिलजी को आईने में अपना प्रतिबिंब देखने की अनुमति दे दी। रानी का प्रतिबिंब देखकर खिलजी हवस से और पागल हो उठा। उसने चित्ताैड़गढ़ पर हमला तेज कर दिया, परंतु राजा रतनसेन के वीर योद्धा टस से मस न हुए।

खिलजी ने चालाकी से राजा रतनसेन को अगवा किया, पर चित्ताैड़ के राजपूतों ने डोलियों में रानी पद्मावती को भेजने का स्वांग रचकर राजा को आजाद करा लिया। खिलजी के सारे दांव नाकाम रहे, फिर भी वह मद में चूर होकर चित्ताैड़गढ़ की घेरेबंदी किए रहा। अंतत: जब किले का राशन समाप्त होने लगा तो राजपूत योद्धा बाहर निकल वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मावती समेत हजारों महिलाओं ने जौहर कर लिया। जब खिलजी किले के अंदर पहुंचा तो उसे राख के अलावा कुछ हाथ न लगा। यदि इस विषय पर गहराई से मनन करें तो पाएंगे कि भले ही इस काव्य की विषयवस्तु रानी पद्मावती हों, पर कहानी पुरुषों के चारों ओर घूमती दिखाई पड़ती है। खिलजी को रानी के विचारों, उनकी आशाओं आशंकाओं और उनकी सम्मति की परवाह न थी। रानी द्वारा खिलजी के प्रस्ताव को ठुकराए जाने के बाद भी उसकी रानी को पाने की ललक में कोई कमी न आई और आती भी क्यों?

पद्मावती तो उस आततायी के लिए किसी वस्तु के समान स्वामित्व प्राप्त करने एवं भोग करने की चीज से अधिक कुछ नहीं थीं। मरते दम तक अपनी असहमति पर टिके रहने का पद्मावती का दृढ़ निश्चय हृदय को शोकाकुल करता है। उस जमाने में नारी होना आसान बात न थी। औरतों और बच्चों को विदेशी हमलावर सैनिक युद्ध की लूट समझ उठा ले जाते और गाय-बकरी के समान गुलामों की मंडियों में बेच दिया करते थे। इस यौन-उत्पीड़न को मजहबी कानून की मंजूरी प्राप्त थी। यदि आप तत्कालीन भारतीयों की इस बदहाली का समकालीन उदाहरण देखना चाहते हैं तो 2014 में इराक के माउंट सिंजर में आइएस द्वारा बंदी बनाई गई यजीदी महिलाओं पर ढाए गए जुल्म-सितम याद करें।

चूंकि रानी पद्मावती दुर्गम परिस्थितियों से परिचित थीं इसलिए उसके पास अपनी असहमति को लागू करने का एकमात्र साधन था-जौहर। जौहर में कोई कीर्ति नहीं, कोई प्रताप नहीं। जौहर आशाहीन परिस्थितियों में घिरी हताश औरतों का अपनी नियति को स्वीकार करने का अंतिम साधन था। उन महिलाओं के सामने दो असाध्य विकल्प थे-मृत्यु अथवा यौन दासता। ऐसी हताशापूर्ण परिस्थिति किसी मनुष्य के सामने कभी नहीं आनी चाहिए। जिन वीरांगनाओं को ऐसा निर्णय लेने के लिए विवश होना पड़ा, हम उनके स्वाभिमान और उनके चरित्र की प्रशंसा ही कर सकते हैं। 1आज जब वामपंथी नारीवादी और अन्य उदारवादी बुद्धिजीवी जायसी की कविता को महज एक काल्पनिक प्रेम कहानी बताते हैं तो नारी होने के नाते मेरा मन कचोटने लगता है।

जी करता है ऊंची आवाज में चीख कर पूछ लूं कि क्या 21वीं शताब्दी में भी प्रेम में नारी की सहमति की महत्ता किसी को समझ नहीं आती? नारी को भोग की वस्तु समझना और उस पर अधिकार पाने की चाह रखना किसी प्रकार का प्रेम नहीं होता। हम एक ऐसे विश्व में जी रहे हैं, जहां नारी मानवता का आधा हिस्सा है। सदियों से अपने अधिकार की लड़ाई लड़ने के बावजूद वह आज तक समाज को अपनी सहमति का महत्व नहीं समझा पाई है। आखिर इसकी अनदेखी कैसे हो सकती है कि एक निर्भया को अपनी जान गंवाने के बाद भी न्याय नहीं मिलता? हमारे एक पड़ोसी देश पाकिस्तान में हिंदू युवतियों का मवेशियों की भांति लेन-देन किया जाता है और एक अन्य पड़ोसी देश बांग्लादेश में सरकार बलात्कार पीड़ित युवतियों को अपने ही आक्रमणकारियों संग विवाह करने का विकल्प मुहैया कराने वाला कानून बनाने जा रही है।

अमेरिका जैसे विकसित देश में भी एक अचेत महिला के बलात्कारी को मात्र छह महीने की कैद देकर मुक्त कर दिया जाता है। इस सबके बीच खिलजी जैसे क्रूर एवं चरित्रहीन तानाशाह, जो अपनी हवस के कारण एक महिला को आत्महत्या करने को मजबूर कर देता है, की कहानी को अफसाना बनाकर परोसने का प्रयत्न जुगुप्सा ही पैदा करता है। यह न केवल पद्मावती का अनादर है, बल्कि हर पीड़िता की वेदना और हर नारी के संघर्ष का तिरस्कार भी है। भले ही पद्मावती ने नारीवाद का नाम न सुना हो, लेकिन मरते दम तक अपने निर्णय पर अडिग रहने की उनकी कहानी दुनिया की हर महिला के लिए एक प्रेरणा है।

(न्यूयार्क स्थित लेखिका नेहा श्रीवास्तव सामाजिक मसलों की अध्येता हैं)