प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के एक वर्ष की समाप्ति पर विश्लेषकों ने उनकी उपलब्धियों की तो समीक्षा की, लेकिन किसी ने उनकी राजनीतिक रणनीतियों पर गौर नहीं किया। उपलब्धियों की समीक्षा तो इस पर निर्भर करती है कि समीक्षाकार का चश्मा कैसा है, लेकिन भारतीय संदर्भ में शायद यह महत्वपूर्ण है कि मोदी सरकार में अभी तक कोई घोटाला या भ्रष्टाचार के मामले सामने नहीं आए। मोदी सरकार को काम करते एक वर्ष तक देखने के बाद ऐसा लगता है कि विकास, भ्रष्टाचार-मुक्त और समावेशी समाज के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मोदी ने ‘पंचशील राजनीतिक रणनीति’ को अंगीकार किया है, जिसके पांच प्रमुख घटक हैं। प्रथम, मोदी ने राजनीति का एक नया मॉडल स्वीकार किया है जिसके तहत वह वैश्विक, राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय राजनीति को एक ही सिक्के के कई पहलुओं के रूप में देख रहे हैं।

अभी हाल के चीन दौरे में शंघाई में भारतीय समुदाय को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि भारत न केवल ‘वसुधैव कुटुंबकम’ अर्थात पूरी पृथ्वी को अपना परिवार मानता है, बल्कि संपूर्ण ब्रrांड को भी अपना परिवार मानता है जिसमें चांद को मामा और सूरज को दादा का संबोधन दिया जाता है। जब स्वयं प्रधानमंत्री ऐसा मानते हैं तो अनेक अंतरराष्ट्रीय समस्याएं हल्की हो जाती हैं और उनके समाधान संभव लगने लगते हैं। जब अंतरराष्ट्रीय समस्याएं सुलझती हैं तो देश के अंदर की समस्याओं के समाधान और निकट लगने लगते हैं। मोदी की इस रणनीति के आगे बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश आदि अनेक राज्यों को समझ में ही नहीं आ रहा कि वे मोदी से कैसे निपटें? वहां विरोधी दलों की सरकारें होने के कारण मोदी सरकार की आलोचना करना उनका फर्ज है, लेकिन उन आलोचनाओं में कोई धार नहीं।

दूसरी रणनीति के तहत मोदी राजनीति के नए मॉडल को ‘टॉप-डाउन’ स्वरूप में लागू कर रहे हैं जिससे उसे संसदीय लोकतंत्र की चुनावी आवश्यकताओं से जोड़ा जा सके। इसके लिए वह अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में वैश्विक, राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय मुद्दों को ऊपर से नीचे के क्रम में प्राथमिकता दे रहे हैं। उनका प्रथम वर्ष निश्चित रूप से वैश्विक समुदाय को गया जिसमें उनके ऊपर यह आरोप लगा कि वे घरेलू मुद्दों को महत्व नहीं दे रहे। लेकिन अपनी अनेक विदेश यात्रओं के दौरान मोदी ने जो मित्रताएं कीं तथा भारत और अपने लिए जो विश्वास जीता वह आने वाले समय में घरेलू समस्याओं के समाधान में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक पूंजी होगी। मोदी की विदेश यात्रएं कोई व्यक्तिगत या पारिवारिक आनंद के लिए नहीं थीं; वे विशुद्ध गुजराती लेन-देन के सिद्धांत पर आधारित थीं। जब तक मोदी घरेलू समस्याओं तक पहुचेंगे तब तक उन विदेश यात्रओं के लाभ प्रकट हो सकते हैं और लोग उनकी प्रसंशा कर सकते हैं।

हाल में इनफोसिस के सह-संस्थापक नारायणमूर्ति और गुजरात में मोदी के धुर विरोधी संजय जोशी द्वारा मोदी की तारीफ इसका एक संकेत है। जैसे-जैसे अगले चुनाव निकट आते जाएंगे वैसे-वैसे मोदी वैश्विक-फलक से निकल कर जमीनी-पटल पर और सक्रिय हो जाएंगे और चुनावी वर्ष में वित्तीय-समावेशन की अनेक योजनाओं (जनधन योजना, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर आदि) के माध्यम से वह गरीबों और किसानों का दिल जीत सकेंगे। मोदी में गजब का हुनर है कि वह अपनी आलोचनाओं को ही अपनी शक्ति बना डालते हैं। शायद इसीलिए मोदी ने पिछले दिनों शिकायत की थी कि उन्हें आरोप तो मिल रहे हैं, लेकिन आलोचनाएं नहीं। मोदी की तीसरी रणनीति ‘मेक इन इंडिया’ द्वारा भारत को वाणिज्यिक से औद्योगिक देश में बदलने की है।

कृषि-प्रधान देश होने के कारण भारत कृषि-उत्पादों और कच्चे-माल के निर्यात पर ही ज्यादा निर्भर रहा है। चूंकि देश की जनसंख्या ज्यादा है इसलिए कृषि-उत्पादों को निर्यात करने की सीमा है। विगत दो दशकों में कंप्यूटर-सॉफ्टवेयर और सेवा-क्षेत्र के निर्यात से देश ने आर्थिक क्षेत्र में दूसरा कदम बढ़ाया। मोदी अपनी रणनीति से देश को औद्योगिक-क्षेत्र में आगे बढ़ा कर आमदनी का एक नया अवसर खोलने का प्रयास कर रहे हैं। जब देश औद्योगिक-उत्पादन कर रहा होगा तब उसे बेचने के लिए एक विदेशी बाजार की जरूरत पड़ेगी। भारतीय उत्पादों को विदेशी बाजारों में बेचने के लिए शक्तिशाली देश और शक्तिशाली प्रधानमंत्री की जरूरत होगी।

अत: मोदी की चौथी रणनीति स्वयं को एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने की है। इसकी शुरुआत तभी हो गई थी जब मोदी को भाजपा के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया। तब लोगों को अचंभा भी हुआ था कि मोदी के अलावा भाजपा का कोई और नेता चुनाव-प्रचार में मुखर क्यों नहीं? उन पर आरोप लगाए गए कि वह संसदात्मक-व्यवस्था में चुनावी-स्पर्धा को अध्यक्षात्मक स्वरूप दे रहे हैं। चुनावों में पूर्ण-बहुमत प्राप्त करने के बाद उन पर आरोप लग रहे हैं कि वह मंत्रिमंडलीय-प्रणाली को प्रधानमंत्रीय-प्रणाली में बदल रहे हैं। इंग्लैंड में भी पूर्व प्रधानमंत्रियों विंस्टन चर्चिल और ग्लैडस्टोन पर ऐसे ही आरोप लगे थे। हाल के वर्षो में मार्गरेट थैचर और टोनी ब्लेयर जैसे ब्रिटिश प्रधानमंत्रियों पर बिल्कुल यही आरोप लगाए गए, लेकिन क्या हमें इसके बारे में चिंता करनी चाहिए?

मोदी ने एक शक्तिशाली, मेहनतकश और स्वच्छ-छवि वाले प्रधानमंत्री का खिताब अर्जित किया है। परंपरागत-उदारवादियों के लिए संसदीय-लोकतंत्र एक फैशनेबल अवधारणा हो सकती है, लेकिन आम-आदमी के लिए वह अर्थहीन है यदि उससे उसे कोई लाभ न पहुंचे।1मोदी की रणनीति का अंतिम घटक है कि सरकार पूर्णरूपेण शासन पर केंद्रित रहे, भारतीय राजनीतिक-संस्कृति में सुधार करे, पर चुनाव की चिंता पार्टी करे। पूर्व-सरकारें पहले ही दिन से लोक-लुभावन निर्णय लेने लगती थीं और ऐसे निर्णयों से बचना चाहती थीं जिससे मतदाता के नाराज होने की संभावना हो।

मोदी ने अपने को केवल शासन पर केंद्रित रखा है और उनका मानना है कि आगामी चुनावों में विकास और सुशासन के परिणाम ही उनकी असली राजनीतिक ताकत होंगे। इसके चलते मोदी कुछ ऐसे कठोर निर्णय भी ले सकते हैं जिससे उनकी आलोचना हो, पर संभवत: उन्हें उसकी परवाह नहीं, क्योंकि लोगों को भी पता है कि मोदी अपने या अपने परिवार के लिए कुछ भी करने वाले नहीं। मोदी अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और शीर्ष नौकरशाहों को भी नहीं छोड़ते, वह उन्हें भी बराबर संकेत देते रहते हैं कि कामकाज में कोई ढिलाई बर्दाश्त नहीं। अच्छा काम करने वालों की वह सार्वजनिक तारीफ करने से नहीं चूकते। लोकसभा में रेलमंत्री सुरेश प्रभु और वित्तमंत्री अरुण जेटली के प्रति उद्गार इसके प्रमाण हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मोदी 2019 के संसदीय चुनावों को लेकर निश्चिंत हैं। वह इसकी पूरी बागडोर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को दे चुके हैं। मोदी के शासन के परिणाम और अमित शाह की चुनावी तैयारी आगे क्या गुल खिलाएगी, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन फिलवक्त मोदी की राजनीतिक रणनीति काफी शांत, भरोसेमंद और सुनियोजित लगती है।

(लेखक डॉ. एके वर्मा वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं)